अहंकार का अंत (प्रेरक प्रसंग)

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Kalidas

प्रकृति का नियम ही ऐसा है कि किसी में भी अहंकार आ जाए, वह देर-सबेर टूटता जरूर है। चाहे वह अहंकार मनुष्य तो क्या देवता में ही क्यों न हो। देवराज इंद्र से लेकर देवर्षि नारद तक एवं बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं व विद्वानों आदि सभी के अहंकार टूटे हैं। दरअसल अहंकार व्यक्ति को खुद से एवं प्रकृति की सच्चाई से दूर कर देता है। इससे वह परम सत्य का ज्ञान नहीं पा सकता है। चूंकि प्रकृति का नियम और न्याय सबके लिए बराबर है और वह सबको आध्यात्मिक उन्नति का मौका देना चाहती है, इसलिए वह अहंकार को  बर्दाश्त नहीं कर पाती है। धर्मग्रंथों में भी अहंकार को मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन कहा गया है। इस लेख में मैं एक महान विभूति में आए अहंकार उसके टूटने की ऐसी ही एक घटना के बारे में आपको बताने जा रहा हूं। उम्मीद करता हूं कि इसे आप पसंद करेंगे।


यह तो सर्वविदित है कि कालिदास शुरू में निपट मूर्ख थे। मां काली के वरदान से वह प्रकांड विद्वान बन सके और उन्हें ढेर सारी विद्या मिल गई। उन्हें शास्त्रार्थ में कोई परास्त नहीं कर पाता था। कहा जाता था कि उनके कंठ में साक्षात मां सरस्वती का वास था। भवभूति से विवाद होने पर मां सरस्वती ने ही दोनों के बीच विद्वता की व्यवस्था देते हुए घोषणा की थी कि मैं ही कालिदास हूं। जाहिर है कि असाधारण ज्ञान और उसके बल पर पर मिले अपार यश और वैभव पाकर कालिदास को अपनी विद्वता का घमंड हो गया था। राजा विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक कालिदास को लगने लगा था कि उन्होंने संसार का सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है और अब उनके पास सीखने के लिए कुछ भी नहीं है। एक बार कालिदास को पड़ोसी राज्य से शास्त्रार्थ करने का निमंत्रण प्राप्त हुआ तो ज्ञान के अहंकार में भरे कालिदास ने महाराज विक्रमादित्य से शास्त्रार्थ में जाने और प्रतिद्वंद्वी को रौंदने की अनुमति मांगी।


विक्रमादित्य से अनुमति लेकर लेकर वे अपने घोड़े पर सवार होकर पड़ोसी राज्य के लिए निकल पड़े। रास्ता लंबा था और सूरज सिर पर चढ़ गया था। कुछ देर बाद उन्हें काफी जोर की प्यास लगी। रास्ते में कालिदास को एक कुआं दिखाई दिया। वहां एक छोटी सी बच्ची मटके से पानी भर रही थी। कालिदास ने उस बच्ची से जाकर पानी मांगा। बच्ची ने कहा, मैं आपको जानती तक नहीं हूं।  पानी पीने से पहले आपको अपना परिचय देना होगा। यह सुन कर कर कालिदास के अहंकार ने जोर मारा और उन्होंने बच्ची से कहा, तुम अभी छोटी हो। मेरा नाम कालिदास है। मैं भारी विद्वान और बलवान हूं। यदि तुम्हारे घर में कोई बड़ा व्यक्ति हो तो उसे भेजो। वह मुझे देखते ही पहचान लेगा। बच्ची ने कहा कि यह तो कोई बात नहीं हुई। यदि आपको मुझसे जल पीना है तो आपको अपना पूरा परिचय मुझे ही देना होगा।


तब कालिदास ने बच्ची को शारीरिक रूप से कमजोर समझ कर कहा, मैं बलवान हूं। बच्ची ने कहा, असत्य कह रहे हैं आप, आप बलवान नहीं हो सकते। इस संसार में दो ही बलवान हैं और मैं उन दोनों को जानती हूं। चलिए आप ही मुझे बताइए कि इस संसार में कौन दो बलवान हैं। यदि आपका उत्तर सही हुआ तो ही मैं आपको जल पिलाऊंगी। काफी सोचने के बाद भी कालिदास को उत्तर नहीं सूझा। उन्होंने कहा, मुझे नहीं मालूम। इस प्रश्न का उत्तर तुम ही दे दो और मुझे जल पिला दो। बच्ची बोली, भूख और प्यास बड़े-बड़े बलवानों को झुका सकती है। अभी प्यास ने आपको भी बेचैन कर रखा है। उस भूख और प्यास को अन्न और जल परास्त कर देते हैं। इस कारण संसार में अन्न और जल दो ही बलवान हैं। बच्ची का तर्क अकाट्य था। महाकवि कालिदास चकित रह गए। बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में अपने ज्ञान से पराजित करने वाले कालिदास एक छोटी सी बच्ची के सामने निरुत्तर खड़े थे।


बालिका ने पुन: पूछा-सत्य बताएं, कौन हैं आप? इस बार कालिदास थोड़ा नम्र होकर बोले-बालिके, मैं एक बटोही हूं। बच्ची ने मुस्कुराते हुए कहा-आप फिर असत्य बोल रहे हैं। इस संसार में दो ही बटोही हैं और मैं उन दोनों को भी जानती हूं। बताइए, कौन हैं वे दोनों? कालिदास आश्चर्यचकित रह गए। एक बच्ची के सवालों ने उनका सारा ज्ञान भुला दिया। उन्हें निरुत्तर खड़े देख बच्ची ने कहा, एक से दूसरे स्थान तक बिना थके हुए जाने वाला ही बटोही कहा जाता है। आप तो रास्ते के मध्य में ही थक गए। भूख-प्यास से बेदम हैं। सूरज और चंद्रमा को देखिए ये दोनों रोज बिना थके हुए अपना मार्ग तय करते हैं। इस संसार में ये दो ही बटोही हैं।


उन्होंने बच्ची से पुन: पानी पिलाने का आग्रह किया। बच्ची ने मुस्कुरा कर कहा, पहले आप अपना सही परिचय दीजिए, तभी पानी पिलाऊंगी। तब कालिदास ने कहा कि मैं अतिथि हूं। बच्ची बोली-आप कैसे अतिथि हो सकते हैं। इस संसार में दो ही अतिथि हैं और मैं उन दोनों को जानती हूं। बताइए, कौन हैं वे? कालिदास फिर उत्तर नहीं दे सके। बच्ची ने कहा, दो अतिथि धन और यौवन हैं। इन्हें जाने में समय नहीं लगता है। सत्य बताइए, कौन हैं आप? लगातार पराजित हो रहे कालिदास ने कहा- मैं सहनशील हूं। बच्ची ने कहा, नहीं, सहनशील तो दो ही हैं. पहली, धरती जो पापी-पुण्यात्मा सबका बोझ सहती है। उसकी छाती चीरकर बीज बो देने से भी अनाज के भंडार देती है। दूसरा सहनशील पेड़ है जो पत्थर मारने पर भी मीठे फल देता है। अपना सही परिचय दीजिए। अबकी कालिदास ने झल्लाते हुए कहा- मैं हठी हूं। बच्ची बोली-फिर असत्य। हठी तो दो ही हैं- पहला नख और दूसरे केश, कितना भी काटो, बार-बार निकल आते हैं। आप तो इतनी ही देर में निराशा से भर गए हैं। सत्य कहें ब्राह्मण, कौन हैं आप? पूरी तरह अपमानित और पराजित हो चुके कालिदास ने कहा-फिर तो मैं मूर्ख ही हूं। बच्ची फिर मुस्कुरा कर बोली, आप मूर्ख कैसे हो सकते हैं। मूर्ख दो ही हैं। पहला राजा जो सिर्फ राजा के पुत्र के रूप में जन्म लेकर बिना योग्यता के भी सब पर शासन करता है, और दूसरा दरबारी पंडित जो राजा को प्रसन्न करने के लिए गलत बात पर भी तर्क करके उसको सही सिद्ध करने की चेष्टा करता है।


बच्ची के सवाल-दर-सवाल से लगातार निरुत्तर हो रहे कालिदास पूरी तरह से पराजित हो गए थे। उनका सारा अहंकार समाप्त हो चुका था। हर तरह से पराजित कालिदास भूमि पर बैठ गए। सहसा आवाज आई, उठो वत्स! उन्होंने देखा तो वहां साक्षात मां सरस्वती खड़ी थीं। उन्होंने पहले कालिदास को जल पिलाया। फिर कहा कि शिक्षा से ज्ञान और नम्रता बढ़ती है, ना कि अहंकार। कालिदास को अपनी गलती का आभास हो चुका था। वे नतमस्तक हो गए। उस घटना के बाद उनका पूरा जीवन बदल गया। अब विद्वता के साथ ही उनमें नम्रता भी आ गई थी।



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