प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर, तुलसी चिंता क्यों करे…

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अब नए कलेवर और नए रूप से हों रूबरू।
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Destiny was created first and the body was created behind : प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर। तुलसी चिंता क्यों करे, भज ले श्री रघुबीर। तुलसीदास जी की इस पंक्ति में विज्ञान का बहुत बड़ा सिद्धांत छिपा हुआ है। यह बताता है कि पहले भाग्य का निर्माण होता है। उसके बाद शरीर बनता है। विज्ञान के इस गहरे रहस्य की खोज ऋषियों ने हजारों साल पहले कर ली थी। आज तथाकथित प्रगतिशील लोग न्यूटन को कार्यकारिणी नियम का जनक मानते हों। आप विचार करें तो पाएंगे कि हिंदू हजारों साल से इस सिद्धांत को जानते और मानते रहे हैं। न्यूटन का सिद्धांत है कि हर क्रिया के विपरीत समान प्रतिक्रिया होती है। हमारा अध्यात्म कहता है कि जो बोओगे, उसे काटना ही पड़ेगा। मनुष्य लाख जतन कर ले, कर्मों के फल से बच नहीं सकता है।

पूर्व जन्मों के कर्म फल से बनता है भाग्य

ऊपर तुलसीदास  की रचना उक्त सिद्धांत की व्याख्या करती है। उनके दोहे की व्याख्या करें तो साफ होता है कि पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर पहले भाग्य का निर्माण होता है। उसके बाद शरीर की रचना की जाती है। कर्मों के आधार पर बने भाग्य में बदलाव संभव नहीं है। अत: चिंता किए बिना भगवान का भजन करते रहिए। इसके निष्कर्ष पर पहुंचने की प्रयास करें तो पाएंगे कि भगवान भी आपको कर्मों से नहीं बचा सकते हैं। इसे और ज्यादा बेहतर तरीके से समझने के लिए एक छोटी कथा नीचे दे रहा हूं। इससे जानें कि प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर का आधार क्या है?

निरंतर ईश्वर का नाम लेने वाले की कथा

एक व्यक्ति हमेशा ईश्वर के नाम का जाप किया करता था। धीरे-धीरे वह काफी वृद्ध हो गया। चलना-फिरना यहां तक कि स्वयं नित्यक्रिया करना भी कठिन होने लगा। इसीलिए वह एक कमरे में ही पड़ा रहता था। जब शौच, स्नान आदि की आवश्यकता होती तो बेटों को आवाज लगाता था। बेटे आकर उसकी आवश्यकता पूरी कर देते थे। कुछ समय बेटों ने ठीक से ध्यान रखा। बाद में वे उससे परेशान होने लगे। उन्होंने धीरे-धीरे कन्नी काटनी शुरू कर दी। फिर वृद्ध के कई बार आवाज लगाने के बाद ही आते थे। कुछ दिन बाद उन्होंने रात को आना छोड़ दिया। अब रात में कभी-कभी उन्हें गंदे बिस्तर पर सोना पड़ता था। और अधिक अवस्था होने पर उन्हें दिखना कम होते-होते बंद हो गया। वे लगभग अंधे हो चुके थे। तब उनकी दुर्दशा और बढ़ गई।

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बेटे के कन्नी काटी तो अज्ञात लड़का आने लगा

एक दिन रात को निवृत्त होने के लिये जैसे ही उन्होंने आवाज लगायी, तुरंत एक लड़का आया। वह बड़े ही कोमल स्पर्श के साथ उनको निवृत्त करवा कर बिस्तर पर लिटा गया।। अब ये नित्य का नियम हो गया। लड़के के कोमल स्पर्श और किसी भी समय तत्काल सेवा के लिए उपस्थित हो जाने पर वृद्ध को संदेह होने लगा कि बेटे-पोते इतने कैसे बदल गए? पहले तो कई बार आवाज लगाने पर भी नहीं आते थे। आने पर झल्लाते थे। फिर किसी तरह काम निपटा कर चले जाते थे। अब आवाज लगाते ही दूसरे क्षण आ जाते हैं। कहीं यह बेटे की जगह कोई और तो नहीं है? चूंकि उन्हें कुछ नजर नहीं आता तो सत्य जानने के लिए एक रात उन्होंने लड़के का हाथ पकड लिया। पूछा कि सच बता तू कौन है? यह कथा प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर का सिद्धांत का चरम है।

ईश्वर ने दिए वृद्ध को दर्शन

तभी कमरे में एक अलौकिक उजाला हुआ। लड़के रूपी ईश्वर ने वृद्ध को अपना वास्तविक रूप दिखाया। वह व्यक्ति रोते हुए बोला, हे प्रभु। आप मेरे निवृत्ति के कार्य कर रहे हैं? यदि मुझसे इतने प्रसन्न हैं तो मुक्ति ही दे दीजिए। प्रभु ने जवाब दिया- जो आप अपने प्रारब्ध को भुगत रहे हैं। आप मेरे सच्चे साधक हैं। यही कारण है कि मैं आपके प्रारब्ध भी आपकी सच्ची साधना के कारण स्वयं कटवा रहा हूं। वृद्ध ने कहा कि क्या मेरा प्रारब्ध आपकी कृपा से भी बड़ा है? क्या आप इसे नहीं काट सकते हैं? प्रभु ने कहा- मेरी कृपा सर्वोपरि है। वह अवश्य आपके प्रारब्ध तात्कालिक रूप से काट सकती है। लेकिन तब अगले जन्म में आपको इसे भुगतने फिर से आना होगा। यही कर्म का नियम है। इसलिए आपके प्रारब्ध मैं स्वयं अपने हाथों से कटवा रहा हूं।

तीन तरह के होते हैं प्रारब्ध

सनातन धर्म कहता है कि प्रारब्ध तीन तरह के होते हैं। वे हैं- मंद, तीव्र तथा तीव्रतम। मंद प्रारब्ध- नाम जपने से कट जाता है। तीव्र प्रारब्ध- किसी सच्चे संत की संगत करने, श्रद्धा और विश्वास से ईश्वर की भक्ति करने पर कटता है। तीव्रतम प्रारब्ध- भुगतना ही पड़ता है। जो हर समय श्रद्धा और विश्वास से ईश्वर को जपते हैं। उनके प्रारब्ध को ईश्वर स्वयं जीव के साथ रहकर कटवाते हैं। उसकी तीव्रता का अहसास नहीं होने देते हैं। यह यह भी ध्यान देने योग्य है कि वर्तमान कर्म फल से भी प्रारब्ध की तीव्रता को कम या अधिक किया जा सकता है। अच्छे कर्म से दोष में कमी आती है। वहीं बुरे कर्मों से अच्छे भाग्य का प्रभाव भी कम हो जाता है।

संदर्भ- भारतीय दर्शन, तुलसीदास।

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    • वेबसाइट में लेखों के नीचे बीच-बीच में अपना परिचय देता रहता हूं। पुनः आपके लिए– मेरा नाम किशोर झा है। 35 साल की सक्रिय पत्रकारिता के दौरान कई बड़े समाचार पत्रों में महत्वपूर्ण पदों पर रहा। पिछले साल दैनिक जागरण के दिल्ली-एनसीआर के स्थानीय संपादक के पद से समय पूर्व स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार और शोध कार्य में जुट गया हूं। इस क्रम (अध्ययन और शोध) में जो जानकारी मिल रही है, उससे लोगों की निःशुल्क सहायता कर रहा हूं। विशेष रूप से समस्या से परेशान लोगों को समाधान के लिए आसान उपाय बता रहा हूं। ऐसे उपाय जिन्हें वे स्वयं घर में कर सकें।

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