सितारा गुल : कर्म बनाता है भाग्य

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हमारा जीवन हमारे हाथ, हम जैसा चाहे बना सकते हैं
हमारा जीवन हमारे हाथ, हम जैसा चाहे बना सकते हैं। यह हमारे विचार व कर्म पर निर्भर है।

प्राचीन मान्यता है कि इंसान को अपने कर्मों का ही फल भोगना पड़ता है। इसे कहते तो सभी हैं लेकिन भरोसा बहुत कम लोग कर पाते हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें अधिकांश कर्मों का फल उस समय मिलता है, जब वह अपने पूर्व कर्मों को भूल जाते हैं लेकिन प्रकृति कुछ नहीं भूलती है। वह सभी के कर्मों का पूरा-पूरा हिसाब करती है। किसी बच्चे का जन्म बड़े औद्योगिक घराने में होने तो किसी का मजदूर के घर होने को क्या कहेंगे? किसी को जन्म लेते ही सोने की सेज मिलती है तो किसी बच्चे के सिर से बहुत छोटी उम्र में मां-बाप का भी साया क्यों छिन जाता है? क्या यह पूर्व जन्मों का फल नहीं है? अधिकतर कर्मों का फल हमें तत्काल मिल जाता है। मेहनत करने पर बच्चों को परीक्षा में अच्छे नंबर मिलते हैं, जीवन में सफलता मिलती है। कामचोरी करने पर शिक्षा, करियर आदि सभी क्षेत्रों में असफलता मिलती है। लेकिन कई कर्म ऐसे हैं जिसमें तत्काल फल का अनुभव नहीं होता है जबकि उसकी प्रक्रिया शुरू हो जाती है। किसी पर क्रोध करने, उसका नुकसान करने एवं नकारात्मक विचारों को तरजीह देने पर तत्काल जीवन में अंतर नहीं दिखता। इसी तरह दीन-दुखियों, माता-पिता आदि की सेवा करने, दूसरों के प्रति प्रेम व भाईचारा निभाने तथा सकारात्मक विचारों से भरे रहने का भी तत्काल जीवन पर खास असर नजर नहीं आता है लेकिन सच यह है कि दोनों ही स्थिति में जीवन एवं आत्मा को प्रभावित करने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।


नकारात्मकता से जहां तन व मन के साथ प्रकृति कलुषित होती है और हमारे लिए नकारात्मक स्थितियों का सृजन करती है, वहीं दूसरों की सेवा, मदद व सकारात्मकता  से हमारे लिए अनुकूल स्थितियों का निर्माण होने लगता है। इसकी प्रक्रिया इतनी धीमी व नजर न आने वाली होती है कि हमें खास पता नहीं चल पाता है लेकिन देर-सबेर जीवन में वह परिलक्षित होता अवश्य है। कई ऐसे कर्म भी हैं, जिनका फल मिलते-मिलते जिंदगी बीत जाती है लेकिन उससे बचा नहीं जा सकता है। लाजार लागिन ने जीवन और प्रकृति के खेल को स्पष्ट करने वाली एक बड़ी अच्छी कहानी लिखी है। उम्मीद करती हूं कि आपको पसंद आएगी और इससे प्रेरणा मिलेगी।


किसी जमाने की बात है- वह जमाना न मेरा था, न आपका था, न किसी और का। तब एक खगोल शास्त्री था अहमद। अहमद के बारे में सुना जाता था कि उसने ऐसा तरीका खोज लिया था, जिससे आकाश के किसी भी सितारे को गुल किया जा सकता है- बेशक, बहुत ही ज़रूरत हो तो। जब इसकी खबर उस प्रदेश के सुलतान के कान तक पहुंची, तो उसने आज्ञा जारी कर दी कि अहमद को हमारे सामने ह़ाजिर किया जाये। अहमद को ह़ाजिर किया गया। सुल्तान ने पूछा, ‘क्या तू ही वह आदमी अहमद है, जो कि सुनते हैं कि सितारों को बुझा सकता है?


‘हां, जहांपनाह! मैं ही वह अहमद हूं। मगर सुनते हैं की कोई बात नहीं। मैं सचमुच आकाश के सितारों को बुझा सकता हूं- बेशक, बहुत जरूरी हो तो। ‘तो अच्छी बात है।सुलतान बोला- ‘जऱा उस सितारे को बुझाकर दिखा और सुलतान ने आसमान में चमकते एक सितारे की ओर उंगली उठा दी।  ‘परवर-दिगार! अहमद डर से एकदम सफेद पड़ गया और बोला- ‘बिना कारण एक सितारे को क्यों नष्ट करा रहे हैं आप। यों भी बहुत ही ज़रूरी हो, तभी यह किया जा सकता है। ‘क्या कहा? क्या मेरी इच्छा बहुत ज़रूरी नहीं है? उसे इसी क्षण बुझा दे। नहीं तो तेरा सिर धड़ से अलग कर दिया जायेगा।


अब चारा ही क्या था! अहमद पहरेदारों के साथ दौड़ा-दौड़ा घर गया और अपने यंत्र ले आया, और यंत्रों के साथ कुछ खुटर-पुटर करने के बाद उसने निवेदन किया- ‘ओ दुनिया के सबसे विवेकी बादशाह! वैज्ञानिकों और विद्वानों के परम मित्र! आपकी इच्छा अनुसार वह तारा बुझा दिया गया है। सुलतान ने नजऱ उठाकर आसमान में ताका, मगर सितारा तो उसी तरह चमक रहा था और चारों तरफ उजली किरणें फेंक रहा था।


‘अरे धूर्त! पाखंड़ी! अपने सुलतान का मज़ाक उड़ाना चाहता है तू! ‘नहीं माई-बाप! अहमद उसके कदमों में लेटता हुआ चिल्ला उठा- ‘मेरा सिर मत कटवाइये. मुझे एक बात स्पष्ट करने का अवसर दीजिये।


 ‘अब तो तू परलोक में अपनी बात स्पष्ट करना। दोजख के कुत्ते!


अहमद का सिर कलम कर दिया गया और कटे सिर को भाले में खोंपकर सारे शहर में घुमाया गया, ताकि सभी अहमदों को ऐसी नसीहत मिल जाये, जिसे वे जीवन-भर न भूलें। इसके बाद दस साल बीत गये, पचास साल, सौ साल। लोगों को उस सुलतान की याद भी नहीं रही, जिसने अहमद का सिर कटवाया था और न तारे बुझाने वाली किसी घटना की जानकारी रही।


सौ साल और बीत गये, फिर दो सौ और तीन सौ साल। उसके ऊपर बयालीस साल, चार दिन दो घंटे और सैंतीस मिनिट और गुजर गया। तभी अचानक आकाश के परीक्षण में लगे खगोलशास्त्रियों ने नजऱें ऊंची करके आसमान में देखा, लीजिये, वह सितारा नदारद था। दौड़े-दौड़े वेधशाला में गये, उन्होंने दूरबीनों में से झांककर देखा। सितारा सचमुच नदारद था।


दरअसल उस कभी के बुझे हुए सितारे के प्रकाश को पृथ्वी पर पहुंचने में पूरे चार सौ बयालीस साल, चार दिन, दो घंटे और सैंतीस मिनिट लगे थे। अब तो आप समझ गये न? कर्मों का फल भी ऐसा ही होता है। प्रकृति समय के अनुसार कर्मों का फल देती है, यह अलग बात है कि कई बार फल दिखने के समय तक कर्मं करने वाला और उससे प्रभावित लोगों का रूप बदल जाता है और दुनिया भी उस घटना को भूल जाती है।



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