मति बदली तो जीवन बदला, अहंकार का हुआ अंत

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मति बदली तो जीवन बदला, अहंकार का हुआ अंत
मति बदली तो जीवन बदला, अहंकार का हुआ अंत।

end of ego change of life : मति बदली तो जीवन बदला। यह बोध कथा है अहंकार के अंत की। अहंकार किसी का नहीं रहता है। इंसान तो क्या देवता के भी अहंकार का अंत होता है। वास्तव में अहंकार व्यक्ति के उत्थान में बाधक है। इससे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है। यह कथा है सत्याभामा, सुदर्शन चक्र व गरुड़ के अहंकार के अंत की। श्रीकृष्ण द्वारका में सिंहासन पर विराजमान थे। साथ में अत्यंत रूपवती रानी सत्यभामा थीं। निकट ही गरुड़ और सुदर्शन चक्र भी बैठे थे। उनके चेहरे पर दिव्य तेज झलक रहा था। भगवान के पास बैठे सभी गर्वोन्नत थे।

सत्याभामा, सुदर्शन चक्र व गुरुड़ को हुआ अहंकार

बातों ही बातों में रानी सत्यभामा ने श्रीकृष्ण से पूछा। हे प्रभु, आपने त्रेता युग में राम के रूप में अवतार लिया था। तब सीता आपकी पत्नी थीं। क्या वे मुझसे भी ज्यादा सुंदर थीं? तभी गरुड़ बोले। दुनिया में मुझसे तेज कोई उड़ नहीं सकता है। यह सुन सुदर्शन चक्र से भी रहा नहीं गया। वह भी कह उठे। भगवान मैंने बड़े-बड़े युद्धों में आपको विजयश्री दिलवाई है। क्या संसार में मुझसे शक्तिशाली कोई है? भगवान मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जान रहे थे कि उनकी मति बदली तो जीवन बदला। उनके अहंकार के नष्ट होने का समय आ गया है। 

द्वारकाधीश ने अहंकार नष्ट करने का फैसला किया

भगवान ने उनका अहंकार नष्ट करने का निश्चय किया। फिर उन्होंने गरुड़ से कहा। हे गरुड़! तुम हनुमान के पास जाओ। उनसे कहना कि भगवान राम, माता सीता के साथ उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। गरुड़ उनकी आज्ञा से हनुमान को लाने चले गए। इधर, श्रीकृष्ण ने सत्यभामा से कहा कि देवी आप सीता के रूप में तैयार हो जाएं। स्वयं द्वारकाधीश ने राम का रूप धारण कर लिया। उन्होंने सुदर्शन चक्र को कहा कि तुम प्रवेश द्वार पर पहरा दो। ध्यान रहे कि मेरी आज्ञा के बिना महल में कोई प्रवेश न करे। सुदर्शन चक्र प्रवेश द्वार पर तैनात हो गए।

इस तरह टूटा गरुड़ का अहंकार

गरुड़ जी पवनपुत्र हनुमान के पास पहुंचे। उनसे कहा कि हे वानर श्रेष्ठ! भगवान राम माता सीता के साथ द्वारका में आपसे मिलने के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं। आप मेरे साथ चलें। मैं आपको अपनी पीठ पर बैठाकर शीघ्र ही वहां ले जाऊंगा। हनुमान ने विनयपूर्वक इन्कार किया। उन्होंने गरुड़ जी से कहा। आप चलिए, मैं आता हूं। गरुड़ ने सोचा, पता नहीं यह बूढ़ा वानर कब पहुंचेगा। खैर मैं भगवान के पास चलता हूं। यह सोचकर वे शीघ्रता से द्वारका की ओर उड़े। पर यह क्या, महल में पहुंचकर आश्चचर्यचकित रह गए। गरुड़ जी ने देखा कि हनुमान तो उनसे पहले ही पहुंच गए। वे महल में प्रभु के सामने बैठे हैं। गरुड़ का सिर लज्जा से झुक गया। मति बदली तो जीवन बदला। गति का अभिमान फल भर में गायब हो गया। 

सुदर्शन चक्र व सत्याभामा को लगा झटका

श्रीराम ने हनुमान से कहा कि तुम बिना आज्ञा के महल में कैसे आ गए? क्या तुम्हें किसी ने प्रवेश द्वार पर रोका नहीं? हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए सिर झुका लिया। फिर अपने मुंह से सुदर्शन चक्र को निकाल कर प्रभु के सामने रख दिया। उन्होंने कहा- प्रभु आपसे मिलने से मुझे इस चक्र ने रोका था। इसलिए इसे मुंह में रख मैं मिलने आ गया। मुझे क्षमा करें। भगवान मंद-मंद मुस्कुराने लगे। हनुमान ने हाथ जोड़ते हुए श्रीराम से प्रश्न किया। प्रभु! आज आपने माता सीता के स्थान पर किस दासी को इतना सम्मान दे दिया? कौन आपके साथ सिंहासन पर विराजमान है? अब सत्यभामा के अहंकार भंग होने की बारी थी। उन्हें सुंदरता का अहंकार था। वह पल भर में चूर हो गया था। इस तरह प्रभु ने अपने भक्तों का अहंकार चूर-चूर किया था।

मति बदली तो जीवन बदला

एक कुम्हार माटी से चिलम बना रहा था। उसने माटी को सुंदर चिलम का आकार दिया। थोड़ी देर में उसने उसे बिगाड़ दिया। उसे माटी का गोला बना दिया। यह देख माटी से रहा नहीं गया। उसने कुम्हार से पूछा, तुमने चिलम अच्छी बनाई थी। फिर उसे बिगाड़ क्यों दिया? कुम्हार ने कहा-पहले मैं चिलम बनाने की सोच रहा था। किंतु बाद में मेरी मति (सोच) बदल गई। अब मैं सुराही बनाऊंगा। ये सुनकर माटी खुश हो गई। वह बोली-मुझे खुशी है कि तेरी मति बदली तो जीवन बदला। मैं चिलम बनती तो स्वयं भी जलती। दूसरों को भी जलाती। अब सुराही बनूंगी। अब स्वयं शीतल रहूंगी। दूसरों को भी शीतल रखूंगी। उनकी प्यास बुझाऊंगी। जीवन की सच्चाई यही है। यदि हमारी सोच अच्छी होगी। तब हमारा फैसला अच्छा होगा। इससे हम खुद भी खुश रहेंगे। साथ ही दूसरे को भी खुशियां देंगे।

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