सृष्टि का विज्ञान है वेद-16

247

प्रकृति ने हमारे सामने सारे विकल्प खुले रखे हैं। उसने किसी के लिए दुख या सुख, रोग या निरोग पहले से तय करके नहीं रखा है। प्रकृति के लिए हर व्यक्ति समान है। यह हम हैं जो प्रकृति से अपनी सोच, क्षमता और प्रयास से सुख या दुख बटोर लेते हैं। वैदिक काल में जाएं तो पाएंगे कि वेद में मनुष्यों के सुख, संपन्नता, संतान, परिवार आदि की बेहतरी की बात ही की गई है। उसके लिए प्रकृति के विभिन्न देवताओं इंद्र, वरुण, मरुत, अग्नि आदि की प्रार्थना कर सुख, समृद्धि, सुरक्षा आदि ही देने की कामना की गई है। दुर्भाग्य या ज्ञान की कमी कह लें कि बाद के लोगों ने सुब कुछ को भाग्य के भरोसे मान लिया है। यह सही है कि हमारे पिछले कर्म ही हमारा मौजूदा भाग्य बनाता है लेकिन वर्तमान समय और उसमें होने वाले कर्म व सोच तो हमारे हाथ में हैं तो हम क्यों नहीं, उसे अपने हिसाब से ठीक कर सकते हैं। ये सारी बातें मैं किसे से सुनकर या सिर्फ पढ़कर नहीं बल्कि खुद पर आजमा कर कह रही हूं। आप भी इसे एक बार अवश्य आजमाएं। प्रकृति की शक्ति आपको चमत्कृत कर देगी।


यदि आपमें प्रकृति की शक्ति के दोहन की इच्छा क्षमता है (जो जरूर है) तो आप मनचाहा सुखी जीवन जी सकते हैं। हमारे जीवन में कुछ भी आकस्मिक या अनायास नहीं होता है। उन सबके लिए हम खुद कहीं न कहीं जिम्मेदार हैं। अपनी सोच और क्रियाओं को नियंत्रित कर हम अपने जीवन में होने वाली घटनाओं और स्थितियों को बदल सकते हैं।  इस तथ्य को अच्छी तरह से समझ लें कि मनुष्य में असीमित शक्ति है। जरूरत है उसे समझ कर उसके सही तरीके से उपयोग की। भारतीय ऋषियों ने प्रकृति के शक्ति का दोहन का तरीका जान लिया था। वे इस रहस्य से परिचित थे और उन्होंने उसका सफलतापूर्वक इस्तेमाल भी किया। वेद मंत्र वास्तव में इसी भावना को परिलक्षित करता है।  मैंने इसे आजमाया है और चमत्कारिक लाभ उठाया है। आप भी इसे पढ़ते रहे और इसका लाभ उठाकर अपने जीवन को मनचाहे रूप में ढाल लें। इस अंक में सूक्त 31 को शामिल किया गया है। इसमें अग्नि की स्तुति की गई है और कहा गया है कि इससे उन्हें बल मिलता है। होता के साथ मिलकर वे आकाश और पृथ्वी को कंपा सकते हैं। अत: वे भी यज्ञकर्ता को बली और सुखी बनाएं। इसका स्पष्ट अर्थ है कि कृतज्ञता, स्तुति और भावना से हम न सिर्फ प्रकृति के खास हिस्से को और शक्तिशाली बना सकते हैं, बल्कि उसका दोहन कर खुद भी मनोवांछित परिणाम पा सकते हैं।


सूक्त-31

(ऋषि-हिरण्यस्तूप, आंगिरस। देवता-अग्नि। छंद-त्रिष्टुप।)

त्मग्ने प्रथमो अंगिरा ऋषिर्देवो देवानामभव: शिव: सखा। तव व्रते कवयो विद्यनापसो स्जायन्त मरुतो भ्राजदृष्टय:।।1
त्वमग्ने प्रथमो अंगिरस्तम: कविर्देवानां परि भूषसि व्रतम्। विभुर्विश्वस्मै भुवनाय मेधिरो द्विमाता शयु: कतिधा चिदावये।।2
त्वमग्ने प्रथमो मातरिश्वन आविर्भव सुक्रतूया विवस्वते। अरेजेतां रोदसी होतृवूर्ये स्सघ्नोर्भारमजयो   महो वसो।।3
त्वमग्नो मनवे द्यामवाशय: पुरूरवसे सुकृते सुकृत्तर:। श्वात्रेण यत् पित्रोर्मुच्यसे पर्या स्स् त्वा पूर्वमनयन्नापरं पुन:।।4
त्वमग्ने वृषभ: पुष्टिवर्धन उद्यतस्रुचे भवसि श्रवाय्य:। य आहुतिं परि वेदा वषट्कृतिमेकायुरग्रे विश आविवाससि।।5।।32

अर्थ–हे अग्ने! आप अंगिरा ऋषि से पहले होकर भी उनके और हमारे मंगल की कामना वाले मित्र हैं। मेधावी ज्ञान और कर्म वाले दमकते हुए शास्त्रों वाले मरुद्गण आपके नियम में प्रकट हुए हैं। हे अग्ने! आप अंगिराओं में श्रेष्ठ और प्रथम हैं। आप देवताओं को नियमों से सुशोभित करते हैं। लोक व्यापक दो माथे वाले! मनुष्यों के हित के निमित्त विद्यमान हैं। हे अग्ने! आप सुंदर कर्म की इच्छा से प्रकट हुए। होता के वरण करने पर आपके बल से आकाश-पृथिवी कांपती है। इसलिए आपने यज्ञ का भार उठाकर देवताओं का पूजन किया है। हे अग्ने! आप अत्यंत श्रेष्ठ कर्म वाले हैं। आपने मनु और पुरूरवा राजा को स्वर्ग के संबंध में बताया था। जब आप मातृ-भूत दो काष्ठों में उत्पन्न होते हैं, तब आपको पूर्व की ओर ले जाते हैं। हे पोषण शक्ति वाले अग्ने! स्रुक हाथ में लिये हविदाता आपकी स्तुति करता है और वषटकार सहित आहुति देता है। आप प्रधान पुरुष उन यजमानों को प्रकाशित करते हैं।


त्वमग्ने वृजिनवर्तनिं नरं सक्मन् पिपर्षि विदथे विचर्षणे। य: शूरसाता परितक्म्ये धने दभ्रेभिश्चित् समृता हंसि भूयस:।।6
त्वं तमग्ने अमृतत्व उत्तमे मर्तं दधासि श्रवसे दिवेदिवे। यस्तातृषाण उभयाय जन्मने मय: कृणोषि प्रय आ च सूरये।।7
त्वं नो अग्ने सनये धनानां यशसं कारूं कृणुहि स्तवान:। ऋध्याम कर्मापसा नवेन देवैर्ध्यावापृथिवी प्रावृतं न:।।8
त्वं नो अग्ने पित्रोरूपस्थ आ देवो देवेष्वनवद्य जागृवि:। तनूकृद् बोधि प्रमतिश्च कारवे त्वं कल्याण वसु विश्वमोपिषे।।9
त्वमग्ने प्रमतिस्त्वं पितासि नस् त्वं वयस्कृत् तव जामयो वयम्। सं त्वा राय: शतिन: सं सहस्रिण: सुवीरं यन्ति व्रतपामदाभ्य।।10।।33

अर्थ–हे विशिष्ट इष्टा अग्ने! आप पाप कर्मियों का भी उद्धार करते हैं। आप युद्ध उपस्थित होने से पहले थोड़े से धर्मवीरों द्वारा भी बहुसंख्यक पापियों को नष्ट करा देते हैं। हे अग्ने! आप सेवक को भी वह अविनाशी पद देकर यशस्वी बनाते हैं, जिस पद की देवता और मनुष्य दोनों कामना करते हैं। आप अपने साधक को अन्न-धन द्वारा सुखी करते हैं। हे अग्ने! हमें भी धन प्राप्ति की योग्यता दीजिए। साधक को यशस्वी बनाइए। हम नए उत्साह से यज्ञादि कर्म करें। देवताओं के सहित आकाश-पृथिवी हमारे रक्षक हों। हे निर्दोष अग्ने! आप देवताओं में चैतन्य, आकाश-पृथिवी के मध्य में स्थित हमें पुत्र रूप समझें। आप शासक का कल्याण करने वाले, उसे हर प्रकार का ऐश्वर्य दीजिए। हे अग्ने! आप कृपा करने वाले मेरे पिता के समान हैं। हम आप पर आश्रित हैं। आप सहस्रों धनों के कर्ता और सर्वश्रेष्ठ वीर हैं।


त्वामग्ने प्रथममायुमायवे देवा अकृण्वन् नहुषस्य विश्वपतिम् इलामकृण्वन् मनुषस्य शासनीं पितुर्यत् पुत्रो ममकस्य जायते।।11
त्वं  नो  अग्ने  तव   देव  पायुभिर्मघोनो  रक्ष  तन्वश्च  वन्द्य। त्राता तोकस्य तनये गवामस्यनिमेषं रक्षमाणस्तव   व्रते।।12
त्वमग्ने यज्यवे पायुरन्तरो स्निषंगाय चतुरक्ष इध्यसे। यो रातहव्यो स्वृकाय धायसे कीरेश्चिन् मंत्रं मनसा वनोषि तम्।।13
त्वमग्न  उरुशंसाय  वाघते  स्पार्हं  यद्  रेक्ण:  परमं वनोषि तत्। आध्रस्य चित् प्रमतिरुच्यसे पिता प्र पाकं शस्सि प्र  दिशो विदुष्टर:।।14
त्वमग्ने   प्रयतदक्षिणं  नरं  वर्मेव  स्यूतं  परि   पासि   विश्वत:। स्वादुक्षद्या  यो  वसतौ  स्योनकृज्  जीवयाजं यजते सोपमा दिव: ।।15।।34

अर्थ–हे अग्ने। आपको देवताओं ने मनुष्यों का हित करने के लिए उनका राजा (स्वामी) बनाया है। मेरे पिता (अंगिरा ऋषि) के पुत्र के रूप में जब आप उत्पन्न हुए, तब देवताओं ने इड़ा को मनु की उपदेशिका बनाया। हे अग्ने। अपनी कृपा से धनी हुए हमारे शरीरों का पोषण और रक्षण कीजिए। अविलंब हमारी संतान और पशुओं की रक्षा कीजिए। हे अग्ने। आप पूजन के पालनकर्ता हैं। जिसने आपको अहिंसित हवि दी है और जो निरस्त्र है, उसे आप हर ओर से देखते हैं। आप साधक की कामना पर ध्यान देते हैं। हे अग्ने। उत्तम अभीष्ट धन को ऋत्विज के लिए साध्य करते हैं। आप निर्बल के पिता और मूर्ख को ज्ञान देने वाले हैं। हे अग्ने। आप दक्षिणा वाले यजमान के लिए कवच के समान रक्षक हैं। जो अपने घर में मधुर अग्नि हवि से सुख देने वाला यज्ञ करता है, वह स्वर्गीय उपमा का अधिकारी होता है।


इमामग्ने शरणिं मीमृषो न इममध्वानं यमगाम् दूरात। अपि: पिता प्रमति: सोम्यानां भृमिरस्यृषिकृन्म र्त्यनाम्।।16
मनुष्वदग्ने अंगिरस्वदंगिरो ययातिवत् सदने पूर्ववच्छुचे। अच्छ याह्या वहा दैव्यं जनमा सादय बर्हिषि यक्षि च प्रियम्।।17
एतेनाग्ने ब्रह्मणा वावृधस्व शक्ती वा यत् ते चकृमा विदा वा। उत प्रणेष्यभि वस्यो अस्मान् त्सं न: सृज सुमत्या वाजवत्या।।18।।35

अर्थ–हे अग्ने। आप हमारे यज्ञ में हुई भूलों को क्षमा करें। जो कुमार्ग में बहुत बढ़ गया है, उसे क्षमा करें। आप सोम वाले यजमान के बंधु, पिता और उस पर कृपा करने वाले हैं। हे अग्ने। हे अंगिरा। आप हमारे अत्यंत पवित्र यज्ञ को प्राप्त होइए। पूर्वकाल में मनु, अंगिरा, ययाति के यज्ञ में आने वाले देवताओं को बुलाकर कुश पर प्रतिष्ठित करते हुए उनका पूजन करें। हे अग्ने। इन मंत्र रूप स्तुतियों से वृद्धि को प्राप्त कीजिए। यह स्तुति-शक्ति ज्ञान से आपके निमित्त ही हमने प्राप्त की है। आप हमें ऐश्वर्य प्रदान कीजिए और बल देने वाली बुद्धि दीजिए।



LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here