सृष्टि का विज्ञान है वेद-17

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विज्ञान की तरक्की के साथ भौतिक सुख के पीछे भागता इंसान खुद से दूर हो रहा है। यह सही है कि भौतिक सुख-सुविधा के साधन लगातार बढ़ते जा रहे हैं। पूरी दुनिया मुठ्ठी में सिमटती जा रही है। ऐसे में वैज्ञानिकों और उनके आविष्कारों के माध्यम से भौतिक सुख-सुविधा में डूबे आम लोगों में आत्मा से दूर होना, अंतरात्मा की आवाज न सुन पाना और दूसरे के तर्क को बिना विचारे एवं कसौटी पर कसे, खारिज कर देना स्वाभाविक है। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि सुविधा-संपन्न भागदौड़ से भरी इस दुनिया में इंसान किस तरह से वैज्ञानिक आविष्कारों का गुलाम होता जा रहा है। कैसे उसकी शारीरिक व मानसिक क्षमता लगातार कम होती जा रही है। वह लगातार खुद से ही दूर होता जा रहा है। मानसिक शांति, स्वास्थ्य और निरोग शरीर बड़ी चुनौती बनता जा रही है। डिप्रेशन, मधुमेह. रक्तचाप एवं हृदय रोग जैसी बीमारियां महामारी का रूप लेती जा रही है।
अंदर के बदले बाहर की यात्रा वाले युग ने लोगों की मानसिक व शारीरिक रूप से बीमार कर दिया है। पहले हमारे दिनचर्या में ही स्वस्थ रहने के गुर छिपे हुए थे। स्वस्थ रहने के लिए तब मार्निंग वॉक, जिम, योगा (आजकल की भाषा में) आदि की जरूरत ही नहीं थी। ऋषियों ने किसी पाखंड का निर्माण नहीं किया था, उन्होंने तो सिर्फ प्रकृति की पूजा और उससे जुड़ी क्रियाओं- संध्यावंदन, पूजा के दौरान मुद्रा, ध्यान, बैठने का आसन आदि के माध्यम से हमें स्वस्थ्य निरोग और हमेशा सकारात्मक बने रहने का मूल मंत्र दिया था। बाद के मनीषियों ने जब महसूस किया कि तत्कालीन शासन-व्यवस्था आर्य संस्कृति और जीवन के प्रचार-प्रसार के लिए अनुकूल माहौल नहीं बन पा रहा है। इसमें ज्ञान-विज्ञान का लोप हो सकता है तो उन्होंने इस विद्या को परंपरा का रूप देकर आम जन के दैनिक जीवन में शामिल कर दिया था जिससे हम अनजाने में ही शरीर के लिए सारी जरूरतें पूरी कर लेते थे। सुख-सुविधा ने आज की पीढ़ी को उससे दूर कर अंधकारपूर्ण युग में धकेल दिया है। निम्न मंत्रों सूक्त-32 का अवलोकन करें तो इंद्र और उनकी सारी क्रियाएं, उपलब्धियां आदि प्रकृति से ही संबंधित है। उसी के लिए उनका आभार जताया जा रहा है और अनुकूल रहने की प्रार्थना की जा रही है।


सूक्त-32

(ऋषि-हिरण्यस्तूप, अंगिरस। देवता-इंद्र। छंद-त्रिष्टुप।)

इंद्रस्य नु वीर्याणि प्र वोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री। अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम्।।1
अहन्नहि पर्वते शिश्रियाणं  त्वष्टास्मै  वज्रं  स्वर्यं  ततक्ष। वाश्रा इव धेनव: स्यन्दमाना अंज: समुद्रमव जग्मुराप:।।2
वृषयामाणो स्वृणीत सोमंत्रिकद्रुकेष्व पिबत् सुतस्य। आ सायकं मधवादत्त वज्रमहन्नेनं प्रथमजामहीनाम्।।3
यदिन्द्राहन् प्रथमजामहीनामान्मायिनाममिना: प्रोत  माया:। आत् सूर्यं जनयन् द्यामुषासं तादीत्ना शत्रुं न किला विवित्से।।4
अहन् वत्रं वृत्रतरं व्यंसमिन्द्रो वज्रेण महता वधेन। स्कंधांसीव कुलिशेना विवृक्णास्हि: शयत उपपृक् पृथिव्या:।।5।।36

अर्थ–पूर्वकाल में वज्रधारी इंद्र ने जो पराक्रम किए, उन्हें मैं कहता हूं। पहले उन्होंने मेघ को मारा, फिर वर्षा की। प्रवाहित नदियों के लिए मार्ग बनाया। इस इंद्र के लिए त्वष्टा ने शब्दकारी वज्र को पैदा किया जिससे पर्वत में टिके हुए मेघ को मारकर जल निकाला। वे जब रंभाती हुई गायों के समान सीधे समुद्र में चले गए। तब बैल के समान बल से इंद्र ने सोम का वरण किया। त्रिकद्रु (तीन प्रकार) के यज्ञ में सींचे हुए सोम को पीया। धनेश इंद्र ने वज्र को ग्रहण कर मेघों में उत्पन्न जल को वेधा। हे इंद्र! आपने मेघों में उत्पन्न प्रथम मेघ (वृत्र) का वध किया और प्रपंचियों का नाश किया। फिर सूर्य, ऊषा और आकाश को प्रकट किया। तब कोई शत्रु शेष नहीं रहा। इंद्र ने घोर अंधकार करने वाले वृत्रासुर को भीषण वज्र से वृक्षों के तने के समान काट डाला। तब वह पृथिवी पर गिर पड़ा।


अयोद्धेव  दुर्गद  आ  हि  जुह्वे महावीरं तुविबाधमृजीषम्। नातारीदस्य  समृतिं  वधानां सं रुजाना: पिपिष इंद्रशत्रु:।।6
अपादहस्तो  अपृतन्यदिन्द्रमास्य  वज्रमधि  सानौ जघान। वृष्णो वध्रि: प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्त:।।7
नदं  न भिन्नममुया  शयानं मनो रुहाणा अति यन्त्याप:। याश्चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहि: पत्सुत:शीर्बभूव।।8
नीचावया   अभवद्   वृत्रपुत्रेन्द्रो  अस्या  अव  वधर्जभार। उत्तरा  सूरधर: पुत्र आसीद् दानु: शये सहवत्सा न धेनु:।।9
अतिष्ठन्तीनामनिवेशनानां काष्ठानां मध्ये निहितं शरीरम्। वृत्रस्य  निण्यं  वि चरन्त्यापो दीर्घं तम आशयदिन्द्रशत्रु:।।10।।37

अर्थ–मिथ्याभिमानी वृत्र ने महाबली, शत्रुनाशक, अत्यंत वेग वाले इंद्र को और बहते हुए वृत्र ने नदियों को पीस डाला। पांव और हाथों से हीन वृत्र ने इंद्र से युद्ध की इच्छा व्यक्त की। इंद्र ने उसके शरीर पर वज्र से प्रहार किया तो वह क्षतविक्षत होकर धराशायी हो गया। जैसे नदी तटों को लांघ जाती है, वैसे ही मन को प्रसन्न करने वाले जल वृत्र को लांघ जाते हैं। जो वृत्र अपने बल से जल को रोक रहा था, वही अब उसके नीचे पड़ा हुआ है। वृत्र की माता उसकी रक्षा के लिए उसके देह पर टेढ़ी होकर छा गई परंतु इंद्र के प्रहार करने पर वह बछड़े के साथ गौ के समान सो गई। स्थितिहीन अविश्रांत जलों के मध्य गिरे हुए वृत्रासुर के देह को जल जानते हैं। वह अनंत निद्रा में लीन पड़ा हुआ है।


दासपत्नीरहिगोपा अतिष्ठन् निरुद्धा आप: पणिनेव गाव:। अपां बिलमपिहितं यदासीद् वृत्रं जघन्वाँ अप तद्ववार।।11
अश्वयो वारो अभवस्तदिन्द्र सृके यत् त्वा प्रत्यहन् देव एक:। अजयो गा अजय: शूर सोममवासृज: सर्तवे सप्त सिंधून्।।12
नास्मै विद्युन्न तन्यतु: सिषेध न यां मिहमकिरद् ध्रादुनिं च। इंद्रश्च यद् युयुधाते अहिश्चोतापरीभ्यो मधवा वि जिग्ये।।13
अहेर्यातारं कमपश्य इंद्र हृदि यत् ते जघ्नुषो भीरगच्छत्। नव च यन् नवतिं च स्रवन्ती: श्येनो न भीतो अतरो राजांसि।।14
इंद्रो यातो स्वसितस्य राजा शमस्य च शृंगिणो वज्रबाहु:। सेदु राजा क्षयति चर्षणीनामरान न नेमि: परि ता बभूव।।15।।38

अर्थ–जैसे गायें छिपी हुई थीं, वैसे ही जल भी रुके हुए थे। इंद्र ने वृत्र को मारकर उसके द्वार खोल दिए। हे इंद्र! जब आप पर वृत्र ने प्रहार किया तब घोड़े के बाल के समान हो गए। हे वीर! आपने गायों और सोमों को जीतकर सातों समुद्रों को प्रवाहित किया। वृत्र द्वारा छोड़ी हुई बिजली, मेघ की गर्जना, जल वर्षा एवं भीषण वज्र भी इंद्र को स्पर्श न कर सके। उस युद्ध में इंद्र ने उसे हर प्रकार से जीत लिया। हे इंद्र! आपने वृत्र पर आक्रमण करते हुए क्या किसी अन्य आक्रमणकारी को देखा, जिसके कारण आप बाज पक्षी के समान निन्यानवे नदियों के पार चले गए। वज्रधारी इंद्र सभी स्थावर एवं जंगम प्राणियों के स्वामी हैं। वह मनुष्यों पर शासन करते हैं। जैसे पहियों की लीक रथ को धारण करते हैं, वैसे ही इंद्र ने हम सबको व्यवस्थित किया है।



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