आपकी हर चिंता को हरने वाली मां चिंतपूर्णी

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चिंता को हरने वाली मां चिंतपूर्णी मंदिर देश ही विदेशी श्रद्धालुओं की भी आस्था का बड़ा केंद्र है। देवभूमि हिमाचल प्रदेश के ऊना जिला स्थित चिंतपूर्णी मंदिर को कई लोग शक्तिपीठ मानते हैं। हालांकि इस पर मतभेद है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि यह मंदिर अत्यंत प्रभावी, भक्तों की मनोकामना पूरी करने वाला तथा शक्ति का बड़ा केंद्र है। जो भी श्रद्धालु माता चिंतपूर्णी के दरबार में सच्ची आस्था लेकर जाता है, उसकी मनोकामना अवश्य पूरी होती है।
यूं तो साल भर माता चिंतपूर्णी की पूजा की जा सकती है और इस दौरान हमेशा भक्तों की भीड़ भी लगी रहती है। पर आषाढ़ में गुप्त नवरात्र के दौरान का समय देवी पूजन के लिए विशेष माना जाता है। इस दौरान भारी भीड़ उमड़ती है। माता के दर्शन के लिए दो किलीमीटर से भी लंबी लाइनें लगी रहती है। इसके अलावा अन्य नवरात्र, सावन मास, संक्रांति, पूर्णिमा, अष्टमी आदि के दौरान भी यहां पर काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। इस कारण इन दिनों में यात्रियों को थोड़ी बहुत समस्या  का सामना करना पड़ता है। अत: माता के बेहतर दर्शन और निर्विघ्न उपासना के लिए इन दिनों का परहेज करें तो अच्छा रहेगा, हालांकि इस दौरान दर्शन करने का अलग महत्व होता है। यहां आने का सबसे उपयुक्त समय फरवरी के मध्य से अप्रैल के मध्य तक रहता है। इस दौरान भीड़ भी कम रहती है और मौसम सुहाना रहता है।
मान्यता है कि मानव मात्र के कल्याण के लिए महाशक्ति ने अपनी ही योग-अग्नि में स्वयं को जलाकर अपने अंग भारतीय उपमहाद्वीप में 51 अलग-अलग स्थानों पर गिराकर अपने शक्ति पीठों को उत्पन्न किया। उन्हीं में से एक है हिमाचल प्रदेश में हिमालय की चोटी पर स्थित छिन्नमस्तिका स्वरूपणी श्री माता चिंतपूर्णी धाम। मान्यता है कि यहां सती के चरण गिरे थे। देवी मां के इस स्थान का संबंध एक पौराणिक कथा से भी जोड़ा जाता हैं। वर्णित है कि जब देव-असुर संग्राम में राक्षसराज महाबली शुम्भ और निशुम्भ नामक अजेय असुरों ने आदि शक्ति मां के चंडिका व काली रूपों का सामना करते समय अपने सेनापतियों चण्ड और मुण्ड के मां के हाथों मारे जाने पर  ‘रक्तबीज’ नाम से प्रसिद्ध राक्षसों का दल अपनी सेना में सम्मिलित कर लिया।
इन राक्षसों को उनकी तपस्या से यह विचित्र वरदान प्राप्त था कि युद्ध में उनके रक्त के जितने भी कतरे बहकर नीचे गिरते थे उनमें से उन्हीं की क्षमता वाले उतने ही असुर और पैदा हो जाते थे। युद्ध क्षेत्र में इस विचित्र स्थिति से निपटने के लिए मां जगदम्बा ने अपनी दो योगिनियों ‘जया’ और ‘विजया’ को यह आदेश दिया कि वे इन असुरों का रक्त जमीन पर गिरने से पहले ही पी कर सोख जाएं ताकि इन असुरों की छलमाया का नाश संभव हो सके। तत्पश्चात् आदिशक्ति मां ने अपने नवशक्ति रूपों में अदम्य, जोरदार संग्राम किया और ‘जया’ तथा ‘विजया’ को उन राक्षसों का रक्त तेजी से सोखना पड़ा। कालांतर वे अपनी सुध और बुध इस हद तक खो बैठी कि रक्तबीज राक्षसों के पूरी तरह मिट जाने के बाद भी वे अपनी रक्त पिपासा को काबू न कर सकी, मां से और रक्त मांगने लगीं।
रक्त न मिलने पर विचलित ‘जया’ और ‘विजया’ ने अपनी इस बैचेनी के बारे में मां से दोहराकर कहा तो ममतामयी मां भगवती अपनी दुलारियों के त्रास को न सह सकी और चामुण्डा रूपी महाशक्ति ने त्याग की वह मिसाल कायम कर दी जो शायद ही और कहीं ढूंढ़ी जा सके। भगवती चंडिका ने स्वयं अपनी गर्दन धड़ से काट डाली और उनमें से दो रक्त धाराएं बह निकली जोकि दोनों योगिनियों के मुख में जा गिरी।  साथ ही प्रभुमाया द्वारा बीच में से एक तीसरी अमृतधारा प्रकट होकर मां के कांतिमय मुखमंडल में प्रवाहित होने लगी।
‘यह दिव्य त्याग साक्षी है कि मां ने अपने भक्तों की परेशानी दूर करने के लिए स्वयं अपना बलिदान तक दे दिया परन्तु किसी अन्य की तर्कहीन बलि नहीं दी।Ó प्राचीन धार्मिक ग्रंथों की यह मान्यता हैं कि मां का यह शक्तिमय स्थान भगवान भोलेनाथ जी के चार महारूद्रों के बीच होगा तथा माता चिंतपूर्णी शक्तिपीठ पर यह बात सही लागू होती है जिनके पूर्व में व्यास तट पर भगवान शिव का महाकलेश्वर स्थान, पश्चिम में  नरहाणा महादेव, उत्तर में मुच्कुन्द महादेव तथा दक्षिण में पीपल तथा बड़ के प्राचीन जंगल में स्थित गुरु द्रोणाचार्य की आदि तपस्थली भगवान शिव का बगीचा शिवबाड़ी है। अपने भक्तों की मानसिक पीड़ाओं, चिंताओं, दु:खों और परेशानियों को दूर कर उन्हें कल्याणकारी बुद्धिमत्ता प्रदान कर धन-वैभव-समृद्धिदायक यह स्थान चिंतपूर्णी महाशक्तिपीठ के नाम से प्रसिद्ध है।
तकरीबन 920 मीटर की चोटी पर यही वह शक्ति स्थल है जहां मां ने माइदास नामक अपने भक्त को स्वप्न में दर्शन देकर उन्हें इस शक्तिपीठ की सेवा करने की प्रेरणा दी। जहां बाद में अकबर जैसे चक्रवर्ती मुस्लिम सम्राट ने सिजदा किया। यहीं महाराजा रणजीत सिंह की प्रेरणा से अमृतकुण्डत्र के साथ शिव मंदिर व तालाब का निर्माण लगभग सन् 1812 के आसपास करवाया गया। रोचक तथ्य यह है कि तंत्र से जुड़ी इस देवी का यहां विशुद्ध वैष्णव तरीके से पूजा होती है। कहा जाता है कि संत माईदास शकाहारी थे और उन्होंने माता से अनुरोध किया था कि वह या उनके वंशज यहां बलिप्रदान नहीं करेंगे। उनकी पूजा पूर्ण सात्विक तरीके से होगी। माता ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया और तब से उसी तरह पूजा होती है।
एक अन्य दंत कथा है कि लगभग साढ़े 400 वर्ष पूर्व पट्टी के रजवाड़े दूनी चंद ने अपनी प्रभुभक्त बेटी रजनी का विवाह, अभिमान आक्रोश में आकर एक कुष्ठ रोग से पीडि़त पिंगले से कर दिया था। राजकुमारी अपने लाचार पति को साथ लिये जगह-जगह घूमती कई तीर्थयात्राएं करती चिंतपूर्णी में पहुंची। मां भगवती की स्वप्न प्रेरणा से ही वह गुरुओं की प्रियस्थली पहुंची जहां बाद में (गुरु का चक) अमृतसर के स्थान पर अमृत सरोवर में पति के स्नान करने के बाद चौथे गुरु रामदास जी का आशीष प्राप्त कर धन्य हुई और उस कुष्ठ जैसे असाध्य रोग से मुक्ति प्राप्त कर सकी। श्री माता चिंतपूर्णी शक्तिपीठ का वर्तमान मंदिर एक सुंदर भवन के रूप में स्वर्ण कलशों से सुसज्जित अति तेजस्वी शक्तिपीठ है। यह श्री माता वैष्णों देवी जी के कटड़ा शक्तिपीठ के बाद उत्तर भारत का दूसरा सबसे लोकप्रिय शक्ति मां का मंदिर है।
गर्मी के समय में मंदिर के खुलने का समय सुबह 4 बजे से रात 11 बजे तक है और सर्दियों में सुबह 5 बजे से रात्रि 10 बजे तक का है। दोपहर 12 बजे से 12.30 तक भोग लगाया जाता है और 7.30 से 8.30 तक सांय आरती होती है। दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु माता के लिए भोग के रूप में सूजी का हलवा, लड्डू बर्फी, खीर, बतासा, नारियल आदि लाते है। कुछ श्रद्धालु अपनी मन्नत पूरी हो जाने पर ध्वज और लाल चूनरी माता को भेट स्वरूप प्रदान करते है। चढाई के रास्ते में काफी सारी दूकाने है जहां से ही श्रद्धालु माता को चढाने का समान खरीदते है। दर्शनो से पहले प्रत्येक पर्यटक को हाथ साफ करने पड़ते है और उन्हें अपने सर पर रूमाल या कपड़ा ढकना पड़ता है। मंदिर के मुख्य द्वार पर प्रवेश करते ही सीधे हाथ पर आपको एक पत्थर दिखाई देगा। यह पत्थर माईदास का है।
यही वह स्थान है जहां पर माता ने भक्त माईदास को दर्शन दिये थे। भवन के मध्य में माता की गोल आकार की पिण्डी है। जिसके दर्शन भक्त कतारबद्ध होकर करते है। श्रद्धालु मंदिर की परिक्रमा करते है। माता के भक्त मंदिर के अंदर निरंतर भजन कीर्तन करते रहते है। इन भजनो को सुनकर मंदिर में आने वाले भक्तो को दिव्य आंनद की प्राप्ति होती है और कुछ पलो के लिए वह सब कुछ भूल कर अपने को देवी को समर्पित कर देते है। मंदिर के साथ ही में वट का वृक्ष है जहां पर श्रद्धालु कच्ची मोली अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बांधते है। आगे पश्चिम की और बढने पर बड़ का वृक्ष है जिसके अंदर भैरों और गणेश के दर्शन होते है। मंदिर का मुख्य द्वार पर सोने की परत चढी हुई है। इस मुख्य द्वार का प्रयोग नवरात्रि के समय में किया जाता है। यदि मौसम साफ हो तो आप यहां से धौलाधर पर्वत श्रेणी को देख सकते है। मंदिर की सीढियों से उतरते वक्त उत्तर दिशा में पानी का तालाब है। पंडि़त माईदास की समाधि भी तालाब के पश्चिम दिशा की ओर है। पंडि़त माईदास द्वारा ही माता के इस पावन धाम की खोज की गई थी।
यात्रा मार्ग : चिंतपूर्णी तक जाने के लिए यदि आप वायु मार्ग से आते हैं तो नजदीकि हवाई अड्डा चंडीगढ़ और अमृतसर है। यहा तक पहुंने के बाद आप सड़क मार्ग से चिंतपूर्णी तक आसानी से जा सकते हैं। ट्रेन के आने वाले चंडीगढ़, जालंधर, लुधियाना एवं नंगल तक विभिन्न स्थानों से ट्रेन से पहुंच कर वहां से निजी या सार्वजनिक वाहन से ढाई से चार घंटे तक का सफर कर भव्य प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर चिंतपूर्णी पहुंच सकते हैं।
वैसे चिंतपूर्णी से मात्र 20 कीलोमीटर दूरी (अम्ब) तक भी ट्रेन चलती है लेकिन इसकी सेवा काफी कम है। इसके साथ ही दिल्ली, चंडीगढ़, रोपड़, जालंधर, अमृतसर, अंबाला, हरिद्वार आदि से भी सीधी बस सेवा उपलब्ध है। दिल्ली से चंडीगढ़ तक के लिए काफी सारी ट्रेन सुविधा उपलब्ध है।

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