शिवभक्ति की महिमा

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आध्यात्म के क्षेत्र में हमेशा से सबसे प्रभावी मार्ग भक्ति का कहा गया है। मान्यता है कि भक्त के वश में भगवान होते हैं। भक्त की चिंता खुद भगवान करते हैं। अन्य सभी मार्गों में साधक को अपनी चिंता करनी पड़ती है। उसे अपने लक्ष्य के प्रति सजग होकर आगे बढ़ना पड़ता है। निम्न प्रसंग में भक्ति की महिमा को एक कथा के माध्यम से बताया गया है।
सिंहकेतु पांचाल देश का एक राजा था। राजा बहुत बड़ा शिवभक्त था। शिव आराधना और शिकार उसको बहुत प्यारी थीं। वह शिकार खेलने रोज जंगल जाता था। एक दिन घने जंगल में सिंहकेतु को एक ध्वस्त मंदिर दिखा। राजा शिकार की धुन में आगे बढ गया पर सेवक भील ने ध्यान से देखा तो वह शिव मंदिर था जिसके भीतर लता, पत्रों में एक शिवलिंग था।
भील का नाम चंड था। सिंहकेतु के सान्निध्य और उसके राज्य में रहने से वह भी धार्मिक प्रवृत्ति का हो गया था। चबूतरे पर स्थापित शिवलिंग जो कि अपनी जलहरी से लगभग अलग ही हो गया था वह उसे उखाड़ लाया। चंड ने राजा से कहा- महाराज यह निर्जन में पड़ा था। आप आज्ञा दें तो इसे मैं रख लूं, पर कृपा कर पूजन विधि भी बता दें ताकि मैं रोज इसकी पूजा कर पुण्य कमा सकूं।
राजा ने कहा कि चंड भील इसे रोज नहला कर इसकी फूल-बेल पत्तियों से सजाना, अक्षत, फल मीठा चढ़ाना। जय भोले शंकर बोल कर पूजा करना और उसके बाद इसे धूप-दीप दिखाना। राजा ने कुछ मजाक में कहा कि इस शिवलिंग को चिता भस्म जरूर चढ़ाना और वो भस्म ताजी चिता राख की ही हो। फिर भोग लगाकर बाजा बजाकर खूब नाच-गाना किया करना।
शिकार से राजा तो लौट गया पर भील जो उसी जंगल में रहता था, उसने अपने घर जाकर अपनी बुद्धि के मुताबिक एक साफ सुथरे स्थान पर शिवलिंग की स्थापना की और रोज ही पूजा करने का अटूट नियम बनाया। भीलनी के लिए यह नई बात थी। उसने कभी पूजा-पाठ न देखी थी और न की थी। भील के रोज पूजा करने से ऐसे संस्कार जगे की कुछ दिन बाद वह भिलनी तो पूजा न करती पर भील की सहायता करने लगी।
कुछ दिन और बीते तो भीलनी पूजा में पर्याप्त रुचि लेने लग। एक दिन भील पूजा पर बैठा तो देखा कि सारी पूजन सामग्री तो मौजूद है पर लगता है वह चिता भस्म लाना तो भूल ही गया। वह भागता हुआ जंगल के बाहर स्थित श्मशान गया। आश्चर्य होकर देखा अपने आप से बोला – आज तो कोई चिता जल ही नहीं रही। पिछली रात जली चिता का भी कोई नामो निशान न था जबकि उसे लगता था कि रात को मैं यहां से भस्म ले गया हूं।
भील भागता हुआ उलटे पांव घर पहुंचा। भस्म की डिबिया उलटायी पलटाई पर चिता भस्म तनिक भी न थी। चिंता और निराशा में उसने अपनी भीलनी को पुकारा जिसने सारी तैयारी की थी। पत्नी ने कहा- आज बिना भस्म के ही पूजा कर लें, शेष तो सब तैयार है। पर भील ने कहा नहीं राजा ने कहा था कि चिता भस्म बहुत ज़रूरी है। वह मिली नहीं। क्या करूं ! भील चिंतित हो बैठ गया।
भील ने भीलनी से कहा- प्रिय यदि मैं आज पूजा न कर पाया तो मैं जिंदा न रहूंगा, मेरा मन बड़ा दुःखी है और चिन्तित है। भीलनी ने भील को इस तरह चिंतित देख एक उपाय सुझाया। भीलनी बोली, यह घर पुराना हो चुका है। मैं इसमें आग लगाकर इसमें घुस जाती हूं। आपकी पूजा के लिए मेरे जल जाने के बाद बहुत सारी भस्म बन जायेगी। मेरी भस्म का पूजा में इस्तेमाल कर लेंना।
भील न माना बहुत विवाद हुआ। भीलनी ने कहा मैं अपने पतिदेव और देवों के देव महादेव के काम आने के इस अवसर को न छोड़ूंगी। भीलनी की ज़िद पर भील मान गया। भीलनी ने स्नान किया। घर में आग लगाई। घर की तीन बार परिक्रमा की। भगवान का ध्यान किया और भोलेनाथ का नाम लेकर जलते घर में घुस गयी। ज्यादा समय न बीता कि शिव भक्ति में लीन वह भीलनी जलकर भस्म हो गई।
भील ने भस्म उठाई। भली भांति भगवान भूतनाथ का पूजन किया। शिवभक्ति में घर सहित घरवाली खो देने का दुःख तो भील के मन में था। लेकिन पूजा के बाद बड़े उत्साह से उसने भीलनी को प्रसाद लेने के लिये आवाज दी वो भूल गया था कि भीलनी तो मर गई है फिर क्षण भर के भीतर ही उसकी पत्नी समीप बने घर से आती दिखी। जब वह पास आई तो भील को उसको और अपने घर के जलने का ख्याल आया। उसने पूछा यह कैसे हुआ। तुम कैसे आई? यह घर कैसे वापस बन गया?
भीलनी ने सारी कथा कह सुनायी। जब धधकती आग में घुसी तो लगा जल में घुसती जा रही हूं और मुझे नींद आ रही है। जगने पर देखा कि मैं घर में ही हूं और आप प्रसाद के लिए आवाज लगा रहे हैं। वे यह सब बातें कर ही रही थी कि अचानक आकाश से एक विमान वहां उतरा, उसमें भगवान के चार गण थे। उन्होंने अपने हाथों से उठा कर दोनों को विमान में बैठा लिया। गणों का हाथ लगते ही दोनों के शरीर दिव्य हो गए। दोनों ने शिव-महिमा का गुणगान किया और फिर वे अत्यंत श्रद्धायुक्त भगवान की आराधना का फल भोगने शिव लोक चले गए।

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