बेहद अपने लगने लगे राम (रामेश्वरम की यात्रा-एक)

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रामायण से सीखें कि किनसे कैसा व्यवहार उचित
रामायण से सीखें कि किनसे कैसा व्यवहार उचित।

an intense feel of affinity with Ram : बेहद अपने लगने लगे राम। मैं बात कर रहा हूं रामेश्वरम की। उसका नाम सुनते ही शिव, राम और रावण की एक अद्भुत व अकल्पनीय छवि मस्तिष्क में घूम जाती थी। ट्रेन से तड़के तीन बजे रामेश्वरम पहुंचे। उस समय स्टेशन से निकल कर होटल तलाशने के विषय में सोचना भी उचित नहीं था। वहीं कुर्सी पर बैठ गया। बैठे-बैठे ही मैं खयालों में डूब गया। यही रामेश्वरम है, जहाँ आने की न जाने कब की इच्छा फलीभूत हुई है। शायद प्रागैतिहासिक काल की बात होगी। तब मर्यादा पुरुषोत्तम राम हजारों मील की यात्रा करके यहां पहुंचे होंगे।

श्री राम ने उत्तर को दक्षिण से जोड़ दिया

कहाँ अयोध्या और कहां रामेश्वरम! अयोध्या का अस्तित्व तो तब बहुत ठोस था। रामेश्वरम का तो पता भी नहीं रहा होगा! न राम आते और न रामेश्वरम बनता। सागर का एक अज्ञात किनारा ही रह जाता! अयोध्या से चलकर भटकते-भटकते, पैदल ही यहां पहुंचे होंगे। तब लगा कि राम कितने अपने हैं। क्षेत्रीयता का पुट या अभिमान, जो भी कहें, मुझे महसूस होने लगा। आज कितनी सुविधाएँ हो गई हैं! एक कदम भी पैदल नहीं चलना है। मैं राम की अयोध्या से उन्हीं के इष्ट देव शिव और उनकी स्वयं की कर्मभूमि रामेश्वरम में बैठा उन्हीं के विषय में सोच रहा हूँ। सचमुच उन्होंने उत्तर को दक्षिण से जोड़ दिया। संस्कृति को एकाकार कर दिया। उस राम की असीम कृपा ही होगी कि उनके पौरुष, आस्था और सम्मान की भूमि का स्पर्श करने उसे प्रणाम करने का अवसर प्राप्त हो पाया है। बेहद अपने लगने लगे राम।

शिव सदा सत्य के साथ होते हैं

बैठे बैठे ही मेरा मन बहुत पीछे चला गया। कैसा समय रहा होगा राम का जब वे यहाँ आए होंगे? क्या मानसिकता रही होगी उनकी? अपने राज्य से परित्यक्त, पत्नी के वियोग में व्याकुल और स्वजनों से कितनी दूर? अपनी जाति और सामाजिक व्यवस्था से बिलकुल अलग, सर्वथा भिन्न बानरों की सेना लिए और मित्रता की डोर पकड़े। उस महाशक्तिशाली मायावी दशानन रावण से टक्कर लेने यहाँ तक आ पहुँचे! यहाँ आकर उसी शिव का संबल लिया जिसका वरदहस्त पाकर रावण अजेय बना हुआ था। किंतु शिव तो सदैव सत्य के साथ होते हैं। चाटुकारिता और उत्कोच के साथ नहीं। कितना सुंदर संगम हुआ सत्य और शिव का! यही है वह रामेश्वरम और धन्य है मेरे जीवन का यह क्षण जब मैं (एक अयोध्यावासी) अपने राम के पद चिह्नों की रज लेने का अवसर प्राप्त कर पाया हूं। सचमुच बेहद अपने लगने लगे राम।

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थोड़ा गंदा सा है सागर का पानी

सुबह पहले ठहरने के लिए कमरे की तलाश शुरू की। यहां तीन चार सौ में डबल बेड के कमरे बडे आराम से मिल जाते हैं। वैसे वहां ठहरने के लिए सर्वोत्तम स्थान गुजरात भवन है। मंदिर के मुख्य द्वार के बिलकुल पास है। कम किराए में व्यवस्था अच्छी है। होटल में सामान जमाने के बाद हम सागर में स्नान के लिए निकल पडे। यहां आने की योजना बनाते समय ही मैंने ये मालूम कर लिया था कि मंदिर के मुख्य गोपुरम के सम्मुख बंगाल की खाडी में और फिर उन्हीं गीले कपडों में मंदिर में स्थित 22 कुंडों में स्नान करने की परंपरा है। यहां के जल में थोड़ी गंदगी दिखी। पानी बिलकुल डबरीला और अनेक प्रकार के प्रवहमान एवं स्थिर पदार्थों से युक्त था। पर इतना गंदा भी नहीं था कि घिन हो जाए। अंतत: हमने हिम्मत बटोरी और बचते बचाते उस डबरीले सागर में घुस गए।

कुंड में नहाने की सरकारी व्यवस्था फेल

सागर के पानी में नहा कर निकले तो बारी 22 कुंडों में नहाने की थी। गीले कपड़े में हम मंदिर की ओर चले ही थे कि कई पंडे हाथों में बाल्टी और रस्सी पकड़े हमारी तरफ लपके। हमें नहला देने का प्रस्ताव करने लगे। उनका कहना था कि वे हर सदस्य को पूरी बाल्टी भर कर हर कुंड पर नहलाएंगे। 100 रुपये प्रति सदस्य लेंगे। 50 रुपये तो प्रवेश शुल्क और सरकारी फीस ही है। यह बात सच थी कि प्रवेश शुल्क 25 रुपये प्रति व्यक्ति था और नहलाने का भी उतना ही। 70 रुपये में बात तय होने वाली थी कि मित्र महोदय को चिढ़ आ गई। वे सरकारी नियम के तहत प्रवेश लेने चल पड़े। उन्हें नियम विरुद्ध कोई बात जल्दी अच्छी नहीं लगती और अपने देश की व्यवस्था में वे अकसर फेल हो जाते हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ।

कुंड में स्नान का रहा अच्छा अनुभव

टिकट लेकर प्रवेश किया तो पहले कुंड पर एक सेवक मिल गया। कुंड का मतलब यहां कुएं से है। आगे परेशानी शुरू होनी थी, हुई। सभी कुंड दूर-दूर हैं। दो-चार कुंडों के बाद नहलाने वाले सेवक भारतीय व्यवस्था के अनुसार नदारद! अधिकांश बाहर से यजमान पटा कर ले आते हैं। और उन्हें ही नहलाने में व्यस्त रहते हैं। हम तो जैसे जनरल वार्ड के मरीज हो रहे थे। मुझे मित्र पर मन ही मन गुस्सा आ रहा था। अंतत: एक ग्रुप के साथ हम भी लग गए। उससे हमारी सुविधा शुल्क की शर्त पर सेटिंग हो गई। अगर आपको कभी जाना हो और इस धार्मिक कर्मकांड का भागी बनना हो तो आप भी किसी पंडे से मोलभाव कर ठेका छोड़ दें। सुखी रहेंगे। वैसे यहाँ कुंडों में स्नान करना अच्छा लगता है। अंत में फिर मन आध्यात्मिक होने लगा और बेहद अपने लगने लगे राम।

साभार-हरिशंकर राढ़ी

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2 COMMENTS

  1. महोदय , अपना लेख / यात्रा संस्मरण यहाँ पाकर अच्छा भी लगा, आश्चर्य भी हुआ। यह यात्रा मैंने बहुत मन से की थी और आत्मिक जुड़ाव से यह लेख लिखा था। सुखद यह लगा कि आपने लेख के साथ ईमानदारी दिखाई है और मेरा नाम भी दिया है वरना लोग नाम नहीं देते। धन्यवाद ।
    भवदीय
    हरिशंकर राढ़ी

    • आप बहुत अच्छा लिखते हैं। मैं आपका प्रशंसक हूं। आपसे अनुरोध है कि यदि और लेख और यात्रा संस्मरण हों तो मुझे फोटो सहित भजें। उसे प्रकाशित कर मुझे बहुत खुशी होगी।
      सादर
      किशोर झा

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