परंपरा का अंधा अनुकरण करना धर्म नहीं

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परंपरा का अंधा अनुकरण करना धर्म नहीं
परंपरा का अंधा अनुकरण करना धर्म नहीं।

Bilnd imitation of tradition is not religion : परंपरा का अंधा अनुकरण करना धर्म नहीं है। धर्म और सामाजिक मान्यता के नाम पर गलत परंपरा को ढोना और उसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाना सरासर गलत है। वास्तव में धर्म और संस्कृति की रक्षा का दावा करने वाले ही परंपरा का अंधानुकरण का धर्म-संस्कृति को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं। उनका अपना जीवन तो अंधेरे में गुजरता ही है, आने वाली पीढ़ी को भी अंधेरे में ढकेल देते हैं। ऐसी गलत परंपरा को आधार बनाकर हिंदू धर्म व संस्कृति विरोधियों को कुप्रचार करने का मौका मिल जाता है। सच यह है कि हिंदू धर्म न सिर्फ सबसे प्राचीन बल्कि सबसे ज्यादा वैज्ञानिक भी है। एक तरह से इसे विज्ञान का जनक भी कह सकते हैं। इसके बावजूद हिंदुओं में ही धर्म-संस्कृति के नाम पर सबसे ज्यादा गलत परंपरा पनपी। इसका सुंदर उदाहरण निम्न लघु कथा है।

अंधे दंपति की कथा

एक गांव में अंधे पति-पत्नी रहते थे । इनके यहां एक सुंदर बेटा पैदा हुआ, पर वो अंधा नहीं था। बच्चा छोटा था एक दिन पत्नी रोटी बना रही थी। उस समय बिल्ली रसोई में घुस कर बनाई रोटियां खा गई और पति-पत्नी को भूखे रहना पड़ा। एक दिन रोटी मिलने के बाद बिल्ली की रसोई में आने की रोज की आदत बन गई इस कारण दोनों को कई दिनों तक भूखा सोना पड़ा। एक दिन किसी प्रकार से उन्हें मालूम पड़ गया कि बिल्ली बनाने के दौरान ही रोटियां  खा जाती हैं। अब पत्नी जब रोटी बनाती उस समय पति दरवाजे के पास बांस का फटका लेकर जमीन पर पटकता। इससे बिल्ली का आना बंद हो गया। यही देख-देख कर लड़का बड़ा हुआ और उसकी शादी हो गई। बहू जब पहली बार रोटी बना रही थी तो उसका पति बांस का फटका लेकर बैठ गया औऱ फट-फट करने लगा।

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अगली पीढ़ी ने किया अंधानुकरण

परंपरा का अंधा अनुकरण करते कई दिन बीतने पर पत्नी ने पूछा कि तुम रोज रसोई के दरवाजे पर बैठ कर बांस का फटका क्यों पीटते हो? पति ने जवाब दिया कि ये हमारे घर की परंपरा है। इसलिए मैं ऐसा कर रहा हूं। पत्नी चुप हो गई। कालांतर में उनका भी पुत्र हुआ। उसने भी पिता को बांस फटकारते हुए देखा। कारण पूछा, उसे भी पिता ने परंपरा का हवाला दिया। बेटे ने भी उस परंपरा का पूरी ईमानदारी से पालन किया। कालांतर में परिवार में एक पढ़ी-लिखी बहू आई। उसने इस परंपरा पर आपत्ति जताते हुए इसकी तह तक जाने का प्रयास किया। तब तक अंधे दंपति की मृत्यु हो चुकी थी। अतः सही जवाब किसी के पास नहीं था। सभी ने परंपरा का हवाला दिया। बहू ने परंपरा पर प्रहार किया। लेकिन परिवार के वरिष्ठ लोगों ने उसे दबाव देकर चुप करा दिया।

कथा का सार

मां-बाप अंधे थे। वे बिल्ली को देख नहीं पाते थे। उनकी मजबूरी थी। रोटी को बिल्ली से बचाने के लिए उन्हें फटका लगाना पड़ता था। इससे उन्हें फायदा भी हुआ। पर बेटा आंख से अंधा नहीं था। वह अक्ल का अंधा था। इसलिए उसने फटका लगाने का कारण नहीं समझा। बिना सोचे-समझे उसे परंपरा मानकर अंधा अनुकरण करने लगा। उसने कभी पिता से भी फटका लगाने का कारण समझने की कोशिश नहीं की। सिर्फ मां-बाप करते हैं, उसे देखकर करने लगा। ऐसी ही दशा आज समाज की है। पहले शिक्षा का अभाव था। विदेशी हमलावरों ने सनातन धर्म-संस्कृति पर कई हमले किए। मुस्लिम, ईसाई आदि कई धर्मों से चुनौती मिली। प्रतिकूल स्थिति में अपने धर्म व संस्कृति को बचाने के लिए तत्कालीन लोगों ने कई वैध व अवैध तरीके अपनाए। वे धर्मानुकूल न होने के बावजूद परिस्थिति के हिसाब से आवश्यक थे।

अपना दीपक स्वयं बनो

बाद में परिस्थितियां बदली लेकिन परंपरा का अंधा अनुकरण जारी रहा। धर्म ग्रंथों के संस्कृत भाषा में होने और उससे आम लोगों के अनजान होने का पाखंडी धर्मगुरुओं ने भरपूर फायदा उठाया। उन्होंने धर्म की अपने हिसाब से अलग-अलग व्याख्या की। कई अनावश्यक परंपरा को अनिवार्य बनाकर लोगों को बेवकूफ बनाना शुरू किया। अधिकतर लोगों ने पाखंडी मूल्यों को अपनाया और फैलाया। इस पर सवाल उठाने वाले जागरूक लोगों को आस्था का हवाला देकर चुप करा दिया गया। इस पाखंड से ही धर्म को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचा है। पढ़ा-लिखा शिक्षित वर्ग भी पाखंडपूर्ण परंपरा की चपेट में है। आवश्यकता है कि किसी भी नियम और परंपरा को स्वीकार करने से पहले समझें, जानें और परखें। सही प्रतीत हो तभी मानें। नहीं तो वही..ढाक के तीन पात। धर्मग्रंथों में भी कहा गया है “अत्त दीपो भव” अर्थात् अपना दीपक स्वयं बनो।

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