भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा है राधा-कृष्ण का निश्च्छल प्रेम

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भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा है राधाृ-कृष्ण का निश्च्छल प्रेम
राधा-कृष्ण के निश्च्छल प्रेम की पराकाष्ठा बताती तस्वीर।

Culmination of devotion and spirituality : भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा है राधा-कृष्ण का निश्च्छल प्रेम। विद्वानों के बीच हमेशा से मंथन का विषय रहा है। इसे अलग-अलग रूप में प्रस्तुत किया गया। सच्चाई जो हो लेकिन उसमें भाव व विचार दिखते हैं। ऐसी ही कथा राधा-कृष्ण के गोलोक में मुलाकात की है। उसमें भाव और संदेश की प्रधानता है। यह बताती है कि राधा-कृष्ण का निश्च्छल प्रेम ही भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा है।

राधा-कृष्ण की कथा

पृथ्वी की लीला समाप्त करने के बाद श्रीकृष्ण गोलोक पहुंचे। वहां राधा पहले से थीं। दोनों एक-दूसरे के सामने आए। कृष्ण विचलित से और थोड़े खोए से थे। राधा शांत और प्रसन्नचित थीं। राधा को देख भगवान थोड़े सकपकाए लेकिन राधा मुस्कराई। कृष्ण कुछ कहने वाले ही थे कि राधा बोल पड़ीं। द्वारकाधीश, कैसी हो? राधा के मुंह से कान्हा सुनने वाले श्रीकृष्ण को द्वारकाधीश का संबोधन कहीं गहरे भेद गया।

कान्हा से द्वारकाधीश बने

श्रीकृष्ण ने खुद को किसी तरह से संभाला। वे बोले-मैं आज भी तुम्हारे लिए सिर्फ कान्हा हूं। मैं हमेशा कान्हा ही रहूंगा। मुझे द्वारकाधीश मत बोले। फिर बात का रुख मोड़ा। उन्होंने कहा-आओ बैठते हैं। कुछ मैं अपनी बताता हूं, कुछ तुम अपनी सुनाओ। जानती हो राधा-मुझे अक्सर तुम्हारी याद आती थी। तब आंखों से आंसू निकल पड़ते थे।

निश्च्छल प्रेम में अलगाव का भाव नहीं होता

राधा रानी बोलीं-मैंने तुम्हारी याद में आंसू नहीं बहाए। सच कहूं तो मुझे तुम याद ही नहीं आए। याद आते भी कैसे? याद आने के लिए ध्यान से बाहर होना होता है। मैं तो तुम्हें कभी भूली ही नहीं। तुम सदा मेरे दिल-दिमाग और आत्मा में थे। मैं तुम्हारी याद या वियोग में कभी नहीं रोई। मुझे कभी लगा ही नहीं कि तुम मुझसे अलग हो। कई बार दूरी महसूस होती थी। लेकिन डर से कभी आंसू नहीं निकाले। लगा कि आंसुओं के संग तुम बाहर न निकल जाओ।

प्रेम में व्यक्ति मिटकर जीतता है

कान्हा, निश्च्छल प्रेम में व्यक्ति मिटकर जीतता है। वह प्रेम करने वाले की खुशी के लिए त्याग करता है। प्रेम में डूबा व्यक्ति खुद दुखी रहता है। वह दूसरे को दुखी नहीं कर सकता। प्रेम से दूर हुआ व्यक्ति सांसारिक दौड़ में शामिल हो जाता है। वह अपने सुख के लिए दूसरों को दुखी करता है। अंततः सब पा लेने के बाद भी खाली रहता है। फिर खुद भी दुखी हो जाता है। दूसरे शब्दों में कहो तो सब पाकर भी हार जाता है।

कान्हा से द्वारकाधीश बन कर सिर्फ खोया

द्वारकाधीश, प्रेम से दूर होकर तुमने बहुत कुछ खोया। क्या खोया, उसकी झलक दिखलाऊं? कुछ कड़वे सच, कुछ तीखे सवाल और कुछ कड़वी बातें सुनाऊं? कभी तुमने अपनी सफलता की कीमत पर विचार किया? तुमने कभी सोचा तरक्की में तुमने क्या पाया और क्या खोया? यमुना तट से चला कान्हा समुद्र तट पर द्वारकाधीश बन गया। उसे मीठे पानी की जगह खारे पानी को अपनाना पड़ा। तुमने भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा खो दी।

बांसुरी की तान छूटी, सुदर्शन चक्र बना साथी

वृंदावन में बांसुरी बजाने वाला कान्हा जगत को मोह रहा था। तरक्की के सफर में बांसुरी छूट गई। अब सुदर्शन चक्र साथी बना। बांसुरी की धुन पर पागल बनने वाले पीछे छूट गए। सुदर्शन चक्र से भयभीत लोग सिर झुकाने लगे। प्रेम में एक ऊंगली से गोवर्धन पर्वत उठा लोगों की रक्षा की थी। अब वही उंगली सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश करने लगी।

प्रेमी और राजा में फर्क

राधा बोलीं-कान्हा और द्वारकाधीश का फर्क समझ में आया? कान्हा होते तो सुदामा की खुद सुध लेते। उसके घर जाते और उसकी समस्याएं सुनते व दूर करते। द्वारकाधीश थे तो सुदामा को वहां जाना पड़ा। प्रेमी और राजा में यही तो फर्क होता है। प्रेमी खुद को मिटाकर भी दूसरे को खुश करता है। प्रेमविहीन व्यक्ति सिर्फ पाना जानता है। वह क्या जाने- भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा?

सर्वशक्तिमान होने के बाद भी अपनों के ही नाश को देखते रहे

अब कृष्ण व्याकुल होने लगे थे। वह उत्तर देना चाहते थे लेकिन राधा बोलती रहीं। उन्होंने कहा-तुम सर्वशक्तिमान हो। कई कलाओं के स्वामी, स्वप्नद्रष्टा और भविष्यद्रष्टा हो। गीता जैसे ग्रंथ के दाता हो। जब बांसुरी हाथ में थी, दूसरों का दुख देख नहीं पाते थे। फिर ऐसा कैसे हो गया कि अपनी सेना कौरवों को दे दी। खुद पांडवों के युद्ध की कमान थाम ली। उस रथ के चालक बने जिस पर बैठा अर्जुन तुम्हारी सेना को मार रहा था।

प्रेम शून्य व्यक्ति को कोई नहीं पूजता

अपने लोगों को मरते देखकर भी तुममें करुणा नहीं जगी। क्योंकि तुम प्रेम से शून्य हो गए थे। यही कारण है कि लोग द्वारकाधीश से ज्यादा कान्हा की पूजा करते हैं। द्वारकाधीश की छवि ढूंढनी पड़ती है। दूसरी ओर राधा-कान्हा हर घर में पूजे जाते हैं। गीता की बात सब करते हैं। खूब चर्चा करते हैं और अंत में राधे-राधे ही कहते हैं। यही कारण है कि राधा-कृष्ण के प्रेम को भक्ति-अध्यात्म की पराकाष्ठा माना जाता है।

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