पक्षी गति
वानर गति
साधना के सरल मार्ग को जानना जरूरी है। कुछ साधक आंशिक सफलता से ही इतराने लगते हैं। परिणामस्वरूप उनका ध्यान भटक जाता है। लक्ष्य अभी मिला नहीं है। जो उन्हें प्राप्त हुआ, वह भी हाथ से निकल जाता है। ऐसे साधक को वानर गति वाला कहा गया है। स्वामी जी ने इसका सुंदर उदाहरण दिया। उन्होंने बताया कि बंदर वृक्ष से फल तोड़कर मुंह में पकड़ता है। फिर एक से दूसरी शाखा पर कूदने लगता है। इसमें कई बार फल मुंह से छूट कर गिर जाता है। थोड़ी सफलता से इतराने वाला इसी श्रेणी का होता है। वह लक्ष्य को दृढ़ता के साथ पकड़े नहीं रखता है। उसकी साधना प्रभावित होती है। इस परिवर्तंशील जीवन में विभिन्न घटनाचक्र में पड़ कर कई बार जो हासिल करता है, उसे भी खोना पड़ता है।
पिपीलिका (चींटी ) गति
सच्चा साधक सिद्धांत पर अडिग रहता है। वह हुए धीमी गति से साधना के पथ पर आगे बढ़ता है। उसकी नजर हमेशा लक्ष्य पर रहती है। इसमें विचलित होने का कोई खतरा नहीं है। स्वामी जी ने ऐसे साधक को ही सच्चा बताया है। उन्होंने इसकी तुलना पिपीलिका गति से की है। कहा- चींटी धीरे-धीरे बढ़ती हुई खाद्य वस्तु के पास जाती है। फिर उसे मुंह में लेती है। उसी गति से अपनी जगह पर लौट आती है। वह परिणाम का मजा चखती है। वैसे ही साधक को भी करना चाहिए। यह पिपीलिका गति की साधना ही श्रेष्ठ साधना है। इसमें फल की प्राप्ति बिलकुल निश्चित है।
साधना विधि का भी रखें ध्यान
ऊपर साधना के लिए जरूरी बातें बताई गई हैं। इससे साधना में मदद मिलती है। इसके साथ हर साधना की अलग विधि भी है। उसका पालन करना अनिवार्य है। इसके साथ ही साधना से पूर्व साधक को अपने लिए कुछ नियम और सिद्धांत निर्धारित करने पड़ते हैं। उसका साधनाकाल में पालन करना चाहिए। उसके भंग होने का मतलब साधना में विघ्न होता है। साधना के सरल मार्ग के प्रति सतर्क रहें। साधक लक्ष्य के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त हो। साधना की प्रक्रिया धीमी गति से आगे बढ़नी चाहिए। उसमें स्थिरता और गंभीरता हो। जल्दबाजी या विचलित होना अनुचित होता है। यह नुकसानदायक साबित होता है।
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