मुक्ति के लिए व्यग्र राजा की कथा
एक यशस्वी व धर्मज्ञ राजा थे। उन्होंने कई लड़ाइयां जीतीं और राज्य का काफी विस्तार किया। प्रजा को संतान की तरह मानकर हर तरह से संतुष्ट और प्रसन्न रखा। उम्र बढ़ने के साथ उनमें अध्यात्म की तड़प बढ़ती गई। अब वह जन्म-जन्मांतर के चक्र से मुक्ति चाहते थे। दूसरे शब्दों में कहें तो वे परमात्मा को खोजना और पाना चाहते थे। इस उद्देश्य से एक ऋषि के आश्रम में गये। उन्होंने ऋषि से मन की बात बताई। ऋषि ने कहा कि परमात्मा के पाने के लिए अपना सर्वस्व छोड़ना पड़ता है। क्या आप अपना सब कुछ छोड़ सकते हैं? राजा ने कहा कि मैं तत्काल सब छोड़ने के लिए तैयार हूं। फिर उन्होंने राजपाट पुत्र को सौंप दिया। सारी निजी संपत्ति गरीबों में बांट दी। इसके बाद अध्यात्म के क्षेत्र में कदम बढ़ाने के लिए ऋषि के पास पहुंचे।
ऋषि को दिखा राजा का अहम
ऋषि ने देखते ही समझ लिया कि राजा ने सत्ता और ऐश्वर्य तो छोड़ दिया लेकिन उनमें अहम बचा हुआ है। उन्होंने कहा, ‘अरे, तुम तो सभी कुछ साथ ले आये हो!’ परमात्मा के पाने के लिए तुम्हें काफी मेहनत करनी होगी। स्वयं को बदलना होगा। राजा की समझ में कुछ नहीं आया, पर वह शांत रहे। ऋषि ने कहा कि अब से तुम्हारे जिम्मे आश्रम के सारे कूड़े-करकट फेंकने का काम रहेगा। ऋषि के शिष्यों को राजा के प्रति उनका यह बर्ताव बड़ा कठोर लगा। किंतु ऋषि ने कहा, सत्य को पाने के लिए राजा अभी पात्र नहीं हैं। उन्हें इसके लिए पहले तैयार करना होगा। राजा कूड़ा फेंकने का काम ईमानदारी से करने लगे। कुछ दिन बाद शिष्यों ने कहा कि अब तो उन्हें इस काम से मुक्ति दे दीजिए। ऋषि ने कहा कि परीक्षा होगी कि वह अभी पात्र बने हैं कि नहीं।
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ली अहम की परीक्षा
अगले दिन राजा कचरे की टोकरी सिर पर रखकर बाहर फेंकने जाने लगे तो उन्होंने चुपचाप अपने शिष्य को पीछे लगा दिया। शिष्य ने देखा कि एक आदमी मार्ग में राजा से टकरा गया। इससे कूड़ा बिखर गया। राजा थोड़े नाराज हुए। बोले, ‘अंधे तो नहीं लगते, फिर कैसे टकरा गए? इसके बाद उन्होंने कूड़ा समेटा और आगे बढ़ गए। शिष्य ने ऋषि को सारी बात बताई। ऋषि ने कहा कि अभी राजा का मैं खत्म नहीं हुआ है। उन्हें यह काम करना होगा। कुछ दिन बाद फिर शिष्य को भेजा। उसने देखा कि राजा से कोई राहगीर टकरा गया। इस बार राजा ने आंखें उठाकर उसे देखा, कहा कुछ नहीं। फिर भी आंखों ने जो कहना था, कह दिया। ऋषि को जानकारी मिली तो कहा, संपत्ति को छोड़ना कितना आसान है, पर मैं को छोड़ना कितना कठिन? जबकि अध्यात्म के क्षेत्र में उतरने के लिए यह आवश्यक है।
राजा को कड़ा प्रशिक्षण दिया
तीसरी बार फिर यही घटना हुई। इस बार राजा ने रास्ते में चुपचाप सिर नीचे किए बिखरे कूड़े को बटोरा और आगे बढ़ गए, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उस दिन ऋषि बोले, अब यह तैयार है। जो खुद को छोड़ देता है, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है। परमात्मा को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो। जब तक मनुष्य में मैं का भाव अर्थात असत्य का भाव रहता है, वह सत्य को कैसे देख सकेगा? यदि अध्यात्म में आगे बढ़ना हो तो मैं के त्याग का निरंतर अभ्यास करें। श्रीकृष्ण एवं आदि शंकराचार्य ने इसके लिए सरल अभ्यास बताया है कि किसी भी काम को करते समय कर्ता भाव का त्याग करें। कर्ता भाव का त्याग कर देंगे तो न फल की इच्छा शेष रहेगी और न उसे भोगना पड़ेगा। इसी से कर्मफल से मुक्ति होगी। यही मुक्ति का द्वार है।
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