आत्मा की सात अवस्थाओं पर जानें धर्म ग्रंथों की व्याख्या

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ब्रह्म तत्व और शरीर रचना का रहस्य जानें
ब्रह्म तत्व और शरीर रचना का रहस्य जानें।

Learn the interpretation of religious texts on the seven states of the soul : आत्मा की सात अवस्थाओं पर जानें धर्म ग्रंथों की व्याख्या। विज्ञान ने इसे मात्र छूने की कोशिश भर की है। धर्म ग्रंथों में सटीक व्याख्या है। विज्ञान की पहुंच अभी वास्तविकता से कोसों दूर है। धर्म ग्रंथों में इन्हें विस्तार से समझाया गया है। इससे निकलने अर्थात मोक्ष की विधि भी बताई गई है। दूसरे शब्दों में कहें कि तो उसी विधि का नाम हिंदू धर्म है। आत्मा की इन सात अवस्थाओं में तीन अधिक स्पष्टता से महसूस करने वाली हैं। ये हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्त। यह स्थिति हर आम आदमी की होती है। जब वह साधना के मार्ग पर चलता है तो शेष चार अवस्थाओं में जाता है। इसमें वह ब्रह्मांड में अपनी स्वतंत्र स्थिति बनाने लगता है। वे हैं- तुरीय, तुरीयातीत, भगवत और ब्राह्मी।

पहली अवस्था जाग्रत

यह चेतना की प्रारंभिक अवस्था है। जब कोई व्यक्ति अपना सामान्य काम करता है तो उसे जाग्रत अवस्था कहते हैं। इसमें उसे अपने अस्तित्व और वर्तमान का पूरी तरह भान रहता है। वह भूतकाल की याद रखता है और भविष्य की योजनाएं बनाता है। सही तरीके से कहें तो वर्तमान को पूरी तरह से जीना ही जाग्रत अवस्था है। हालांकि अधिकतर लोग पूरी तरह से वर्तमान में जी नहीं पाते। वे इस अवस्था का लाभ नहीं उठा पाते हैं। उनके जीवन का बड़ा हिस्सा भविष्य की आशंकाओं में डरे रहने या भूतकाल के बुरे अनुभवों को पकड़े रहने में बीतता है। भूतकाल को बदलना संभव नहीं है। भविष्य की नींव वर्तमान में पड़ती है। अतः जो लोग उनमें उलझे रहते हैं, वे समय बेकार करते हैं। एक तरह से कल्पना लोक में रहते हैं। इसे जाग्रत अवस्था की सही स्थिति नहीं कही जा सकती है।

दूसरी और तीसरी अवस्था है क्रमशः स्वप्न और सुषुप्ति

आत्मा की सात अवस्था में दूसरी अवस्था है स्वप्न। यह अवस्था सोने के क्रम में गहरी निद्रा में जाने से पहले की है। इसमें व्यक्ति नींद की स्थिति में दिखता तो है लेकिन उस समय तक उसकी चेतना और प्रत्यक्ष अनुभव करने की क्षमता भी थोड़ी-थोड़ी सजग रहती है। इस दौरान कई बार अनर्गल स्वप्न भी देखता है। वे स्वप्न उसके अनुभव, सुख-दुख, भाव, विचार आदि का घालमेल हो सकता है। उस स्वप्न का कोई खास अर्थ नहीं होता है। यही अवस्था जब गहरी हो जाए तो उसे सुषुप्त कहते हैं। इस दौरान हमारी चेतना सहित शरीर के पांचों ज्ञानेंद्रियां और कर्मेंद्रियां विश्राम करते हैं। उस दौरान व्यक्ति दैनिक सुख-दुख के अनुभव से मुक्त रहता है। इसमें न क्रिया होती है और न उसकी संभावना। इससे थोड़ी आगे की अवस्था को मृत्यु कहा सकते हैं। उसमें आत्मा और गहरी अवस्था में चली जाती है।

चौथी अवस्था तुरीय और पांचवीं तुरीयातीत

साधना के मार्ग पर चलने वाला इसका अनुभव कर पाता है। इसमें न कोई गुण है, न रूप, न विचार और न भूत-भविष्य की सोच। इसका अर्थ और गहरी निद्रा से नहीं, अपितु पूर्ण जाग्रति से है। यह शांत और स्वच्छ जल की तरह है। पहले की तीन अवस्था में घटनाएं या दृश्य व्यक्ति की चेतना को प्रभावित करती हुई दिखती हैं। इसमें वह उन्हें यथावत प्रेक्षिपत कर देती है। इसमें कर्ता और कर्म भाव का लोप होने लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो यह दुख से मुक्ति का द्वार है। आध्यात्मिक यात्रा का प्रारंभ है। जब तुरीय के अनुभव स्थाई होने लगें तो उसे तुरीयातीत अवस्था कहते हैं। इसे सहज समाधि भी कहते हैं। इसमें व्यक्ति कितना भी कर्म कर ले, थकता नहीं है। काम और आराम तथा दुख और सुख सामान हो जाते हैं। इसमें शरीर और इंद्रियों का महत्व समाप्त हो जाता है।

भागवत चेतना छठी और ब्राह्मी सांतवीं अवस्था

भागवत चेतना आत्मा की सात अवस्था में छठी है। सहज समाधि में पहुंचे व्यक्ति को इसे पाने के लिए कोई प्रयास नहीं करना पड़ता है। यह सहज और स्वाभाविक प्रक्रिया है। जो साधक तुरीयातीत अवस्था में रहने लगता है, वह स्वयं धीरे-धीरे इस अवस्था में पहुंच जाता है। वह ब्रह्मांड के कण-कण में ईश्वर को प्रत्यक्ष अनुभव करने लगता है। इसमें पहुंचे व्यक्ति को सिद्ध योगी माना जाता है। ब्राह्मी चेतना शिखर है। इसमें व्यक्ति की चेतना का ईश्वर से मिलन हो जाता है। दोनों के बीच के भेद मिट जाते हैं। इसके बाद ही- अहम ब्रह्मास्मि अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं का भाव जगता है। यह समाधि है। इसे ही मोक्ष भी कहते हैं।

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