प्रकृति भेदभाव नहीं करती है, अध्यात्म में सबके लिए अवसर

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अक्षय तृतीया तीन मई को
अक्षय तृतीया तीन मई को।

Nature does not discriminate equal opportunities for all : प्रकृति भेदभाव नहीं करती है। अध्यात्म में सबके लिए समान अवसर है। साथ ही प्रकृति को आप जो देते हैं, उसे वैसा ही लौटा देती है। ऋषियों को इसका ज्ञान था। इसी कारण वे इस शक्ति का भरपूर दोहन करते थे। वेद मंत्रों में स्पष्ट है कि ऋषि मरुतों से त्रस्त थे लेकिन उनमें आस्था और विश्वास व्यक्त करते थे। उनकी स्तुति करते थे। ऐसा करना निरर्थक नहीं जाता था। इसीलिए ऋषियों ने वसुधैव कुटुंबकम का संदेश दिया। जब पूरी दुनिया कुटुंब है तो खुद जाति, धर्म, वर्ग की लिंग की दीवार कैसे मान सकते थे? वे सबसे प्रेम करते थे और वही पाते भी थे। भेदभाव की विकृति विदेशी आक्रांताओं की देन है। उन्होंने प्राचीन ताने-बाने को नष्ट किया। शिक्षा-व्यवस्था ध्वस्त कर दी। परिणामस्वरूप ढेर सारी कुरीतियां फैलीं।

अध्यात्म में जाति-वर्ग का अंतर नहीं, सबके लिए समान अवसर

मंत्रों का विज्ञान लेखों में वर्ग एवं लिंग के आधार पर मंत्रों व्यवस्था पर कुछ लोगों ने आपत्ति की है। उनका सवाल है कि ईश्वर निर्मित इस ब्रह्मांड में भी भेदभाव है? वे जान लें कि जब शारीरिक बनावट, क्षमता, मानसिक स्थितियों में अंतर है तो उपासना के तरीके अलग क्यों नहीं हो सकते? किसी नवजात या बीमार को भारी भोजन देना उसके स्वास्थ्य से खिलवाड़ होगा। एक मजदूर अनाज से भरा बोरा आसानी से अपनी पीठ पर लादकर चलता है। बाबू टाइप लोग आधी बोरी अनाज भी उठा नहीं पाते। दोनों महत्वपूर्ण हैं। दोनों के काम अलग हैं। अध्यात्म विकसित क्षेत्र है। इसमें सबके लिए समान अवसर हैं। हमारी क्षमता, रूचि और सोच के अनुसार सिर्फ रास्ते अलग हैं। मंत्रों का चयन पात्र की  क्षमता पर होता है। लेकिन हर रास्ते से लक्ष्य पाना संभव है। क्योंकि प्रकृति भेदभाव नहीं करती है।

कई महिलाएं बनीं देवी

शुरुआत मातृशक्ति से करें। शारीरिक संरचना के कारण महिलाओं के लिए सामान्य स्थिति में अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाले मंत्रों का निरंतर जप उचित नहीं है। इसका मतलब उनका कमतर होना नहीं है। प्रकृति ने मातृ शक्ति को उर्वर मानसिक क्षमता होने के कारण शक्ति जगाने और शीर्ष पर पहुंचने के लिए कुछ अधिक ही मौके दिए हैं। पौराणिक कथाओं को देखें। माता पार्वती पर्वतराज की पुत्री (मानव) थीं। असाधारण तप के बल पर शक्ति का स्रोत बन गईं। उनके बिना शिव को भी शव कहा जाता है। माता पार्वती अपने पूर्व जन्म में भी दक्षराज की पुत्री (मानव) थीं। तप से उस बार भी शक्ति का स्रोत बन शिव की अर्द्धांगिनी बनीं थीं। राजस्थान में राणी सती, पूर्व बिहार की सती बिहुला, हिमाचल प्रदेश में माता हिडंबा एवं माता रेणुका भी इसकी मिसाल हैं। इनके अलावा भी बड़ी संख्या में महिलाएं तप के बल पर देवी बन गईं।

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मातृ शक्ति की अवहेलना करना घातक

प्रकृति भेदभाव नहीं करती है। उसका स्पष्ट संदेश है कि मातृ शक्ति का निरादर करने वाले का कल्याण नहीं हो सकता।  तंत्र मार्ग में तो यह शर्त है। बच्ची से लेकर वृद्धा तक में मातृभाव रखना ही होगा। तभी साधक को महाविद्याओं की कृपा मिलती है। कन्या भोजन एवं पूजन के दौरान न सिर्फ मातृ शक्ति के प्रति भक्तिभाव आवश्यक है बल्कि जाति प्रथा को भी दरकिनार करना जरूरी है। कई देवी की साधना में कथित रूप से पिछड़ी जाति में जन्म ली हुई कन्या को ही मातृ रूप में पूजन एवं भोजन कर प्रसन्न करना आवश्यक होता है। जो ऐसा नहीं कर सकता है, उसके लिए इस मार्ग में कोई संभावना नहीं है। वामाक्षेपा से लेकर रामकृष्ण परमहंस जैसे महान साधकों ने इस परंपरा को ही अपना कर बाकी साधकों को राह दिखाई है।

विश्वामित्र व वाल्मीकि ने तोड़ी जाति भेद की दीवार

विश्वामित्र एवं वाल्मीकि जैसे महान ऋषि जाति भेद के खिलाफ शानदार उदाहरण हैं। ब्राह्मणों के लिए अनिवार्य गायत्री मंत्र के जनक ही क्षत्रिय कुल में उत्पन्न विश्वामित्र हैं। उन्होंने साबित किया कि क्षत्रिय कुल में जन्म लेने वाला व्यक्ति न सिर्फ महर्षि बन सकता है बल्कि गायत्री जैसे महान मंत्र की रचना कर सकता है। गायत्री मंत्र में जबरदस्त ऊर्जा है। इसका जप करने पर साधक के शरीर में तीव्र ऊर्जा उत्पन्न होती है। उसे झेलने के लिए शुद्ध और सात्विक जीवन आवश्यक है। ब्राह्मणों की तत्कालीन जीवनशैली वैसी ही थी। इसलिए उन्हें पात्र माना गया। इसी तरह कथित रूप में अत्यंत पिछड़ी जाति में जन्म लेने वाले वाल्मीकि को तो माता सीता और उनके पुत्रों का पालन-पोषण करने का गौरव हासिल हुआ। उनकी रचना रामायण हर हिंदुओं का पवित्र धर्मग्रंथ है। इसीलिए कहा गया कि प्रकृति भेदभाव नहीं करती और अध्यात्म में सबके लिए समान अवसर है।

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