No well being without fulfilling worldly liability : लोक ऋण उतारे बिना कल्याण नहीं हो सकता है। इसका हिसाब अगले जन्म में भी देना ही पड़ता है। जानें कैसे उतारें अपना अंतिम ऋण। यह प्रसंग सनातन धर्म-संस्कृति पूर्णतः वैज्ञानिक सोच और प्रकृति पोषक होने की भी पुष्टि करता है। शास्त्रों में साफ लिखा है कि वृक्षों को नष्ट करना पाप है। गरुड़ पुराण में तो इसका संकेत लोक ऋण के रूप में दिया गया है। लिखा है कि लोक ऋण को चुकाए बिना मनुष्य का कल्याण संभव नहीं है। इसे अंतिम ऋण भी कहा जाता है। इस पर विचार करें तो अर्थ स्पष्ट हो जाएगा। मनुष्य के अंतिम संस्कार में लकड़ी का उपयोग होता है। मृत्यु के बाद किसी इंसान के लिए उससे उऋण होने का मार्ग नहीं बचता है। जीवन काल में भी वह सांस, फल, अन्न आदि के द्वारा हरियाली का दोहन करता है। यह प्रकृति का ऋण है।
सनातन संस्कृति में है पर्यावरण संरक्षण
अब पूरे विश्व में पर्यावरण संरक्षण की बात होने लगी है। सनातन धर्म-संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण का स्पष्ट संदेश है। मनुष्य के लिए उपयोगी हर चीज के संरक्षण पर जोर दिया गया है। वृक्ष, जल (कुआं, सरोवर, नदी आदि सभी), वायु आदि सभी के संरक्षण की बात है। इन्हें नुकसान पहुंचाने को बहुत बड़ा पाप करार दिया गया है। इसके विपरीत कुएं व सरोवर खुदवाने, पेड़ लगाने व उसकी रक्षा, गायों की रक्षा आदि को पुण्य कहा गया है। फिलहाल वृक्ष की अधिक बात। शास्त्रों के अनुसार इस ऋण को चुकाए बिना यदि मनुष्य का दूसरा जन्म हो जाए तो उसे उसमें भी हिसाब चुकाना पड़ता है। स्पष्ट है कि कुंडली में प्रतिकूल ग्रह के रूप में इस तरह के संकेत दिख जाते हैं।
कैसे मुक्त हों लोक ऋण से
लोक ऋण उतारे बिना से मुक्ति सिर्फ ग्रह शांति से नहीं हो सकती है। यहां पूजा-पाठ, मंत्र जप व रत्न धारण करने से है। पूर्व के लेखों में मैंने स्पष्ट किया है कि ग्रहों को अनुकूल करने के लिए आदतें भी सुधारें। इसमें भी कुछ ऐसा ही है। लोक ऋण से मुक्ति के लिए जीवन काल में ही कम से कम दस पेड़ अवश्य लगाने चाहिए। उसका संरक्षण भी करना चाहिए। ऐसा ही जल, वायु आदि में समझना चाहिए। अन्यथा इसका हिसाब तो चुकाना ही पड़ेगा। इस तरह के दोषी प्राकृतिक आपदा के शिकार होते हैं। साथ ही प्रकृतिजनित रोगों से ग्रस्त होकर अत्यंत कष्ट पाते हैं। ध्यान दें कि इन दिनों कई बीमारियां प्रकृतिजनित हैं। प्राकृतिक संसाधन के अंधाधुंध दोहन से स्थिति दिन-ब-दिन विकराल होती जा रही है। बचने के जो उपाय वैज्ञानिक अब सुझा रहे हैं, शास्त्रों में हजारों साल पहले कहा गया है।
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के पांच ऋण
शास्त्रों के अनुसार मनुष्य के पांच ऋण बताए गए हैं। इन्हें चुकाया नहीं गया तो मृत्यु के बाद भी पीछा करते हैं। ये हैं-देव ऋण, पितृ ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और लोक ऋण। इनमें से पहले चार ऋण को हर सजग व्यक्ति जीवनकाल में ही चुका देता है। पांचवां लोक ऋण ही अंतिम ऋण है। इसका कुछ हिस्सा जीवनकाल में तो कुछ मृत्यु के बाद चढ़ता है। इसलिए इसे चुकाना संभव नहीं है। इससे बचने का एकमात्र रास्ता यह है कि समय रहते व्यक्ति ऐसे कर्म करे कि वह उसके लिए मृत्यु के बाद भी संचित रहे। इसके लिए प्रकृति के संरक्षण के प्रति सतत जागरूक रहना अनिवार्य है। कलियुग में मनुष्य की औसत सौ वर्ष की आयु का दशांश अर्थात दस बड़े छायादार और फलदार वृक्ष लगाने चाहिए। आशा करता हूं कि लोक ऋण उतारे बिना मुक्ति नहीं का संदेश आपने समझ लिया होगा।
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