सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं

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सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं
सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं।

Nothing is more powerful than positivity : सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं है। नकारात्मक सोच इंसान को बर्बाद कर देती है। वहीं सकारात्मक सोच और तदनुसार क्रिया कर स्थिति को अपने पक्ष में कर सकते हैं। इस बारे में मैंने पहले भी काफी लिखा है। यह क्रम जारी है। इसी दौरान इस तथ्य की सटीक व्याख्या करने वाली एक कहानी किसी ने भेजी है। यह प्रेरक और उपयोगी है। इसलिए आप सबसे साझा कर रहा हूं।

पढ़ी-लिखी युवती की कहानी

गीता सुशिक्षित, संवेदनशील और महत्वाकांक्षी युवती थी। उसके पिता ने बड़े लाड़-प्यार से उसका लालन-पालन किया। तय समय पर योग्य युवक से उसका विवाह करा दिया। सतरंगी सपने लेकर गीता ससुराल पहुंची। वहां पति और सास थे। कुछ दिन तो हंसते-खेलते बीत गए। धीरे-धीरे गीता को महसूस होने लगा कि उसकी सास उसकी अक्सर खिंचाई करती है। कई बार बाहर वाले के सामने भी नहीं चूकतीं। सास पुराने विचारों की थी और बहू नए विचारों वाली। बाद में गीता और उसकी सास में झगड़ा होने लगा। ऐसे मौके पर पति या तो चुप रहता या गीता को ही समझा-बुझाकर चुप करने का प्रयास करता। इसे लेकर उसकी पति से भी नोक-झोंक होने लगी। नकारात्मकता से हालत बिगड़ने लगी। जबकि सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं है।

सास-बहू में होने लगे झगड़े, हालात बिगड़ते गए

दिन बीते। महीने बीते। साल भी बीत गया। न तो सास टीका-टिप्पणी करना छोड़ती और न गीता जवाब देना। हालात बद से बदतर होने लगे। गीता को अब अपनी सास से पूरी तरह घृणा हो चुकी थी। गीता के लिए तब स्थिति और बदतर हो जाती जब उसे परंपराओं के अनुसार दूसरों के सामने अपनी सास को सम्मान देना पड़ता। अब वह किसी भी तरह सास से छुटकारा पाने की सोचने लगी। ऐसे ही एक दिन जब गीता का अपनी सास से जोरदार झगड़ा हुआ। पति भी अपनी मां का पक्ष लेने लगा। तब गीता नाराज होकर मायके चली आई।

युवती ने वैद्य पिता से सास के लिए मांगा जहर

गीता के पिता आयुर्वेद के डॉक्टर थे। उसने रो-रो कर पिता को अपनी व्यथा पिता सुनाई। फिर बोली– उस घर में मेरा रहना संभव नहीं है। पिता ने ऊंच-नीच समझा कर तालमेल बिठाने का सुझाव दिया। गीता भड़क उठी। उसने कहा कि मैं एक ही शर्त पर उस घर में लौट सकती हूं कि आप मुझे कोई जहरीली दवा दे दीजिए। मैं जाकर बुढ़िया को पिलाकर उससे छुटकारा पा लूंगी। नहीं तो मैं अब ससुराल नहीं जाऊँगी। पिता ने स्थिति की गंभीरता को समझा। बेटी को प्यार से समझाया। कहा कि सास को जहर देने पर पुलिस दोनों को गिरफ्तार कर लेगी। इसलिए यह रास्ता ठीक नहीं है। गीता पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। वह सास के साथ किसी भी हालत में रहने के लिए तैयार नहीं थी। सास से घृणा के कारण वह अपनी मांग पर अड़ी रही। उसे जेल जाने का भी भय नहीं था।

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अनुभवी पिता ने निकाली युक्ति

बेटी के रुख को देखकर अनुभवी पिता ने थोड़ा सोचा। फिर बोले– ठीक है जैसी तुम्हारी मर्जी। लेकिन मैं तुम्हें जेल जाते हुए नहीं देख सकता। इसलिए थोड़ी चालाकी से काम करना होगा। जैसा मैं कहूँ, तुम्हें वैसा ही करना होगा। यदि मंजूर हो तो बोलो? गीता ने पूछा कि क्या करना होगा? पिता ने एक पुड़िया में जहर का पाउडर लपेट कर गीता के हाथ में दिया। फिर कहा– तुम्हें इस पुड़िया में से सिर्फ एक चुटकी जहर रोज अपनी सास के भोजन में मिलाना है। जहर की कम मात्रा होने से वह एकदम नहीं मरेगी। वह धीरे-धीरे कमजोर होकर करीब छह महीने में मरेगी। लोग समझेंगे कि स्वाभाविक मौत मर गई। किसी को शक न हो इसलिए तुम्हें इस दौरान सास से संबंध सुधारना होगा। जैसा वह चाहे वैसा रहना। उसकी पसंद से का करना। सास से छुटकारे की चाह में बेटी ने तत्काल मान गई।

बहू ने सास से संबंध सुधारे, रोज जहर देना भी शुरू किया

ससुराल आते ही गीता ने सास की भरपूर सेवा शुरू की। उसके अनुसार रहने और सारा काम करने लगी। सात ही अगले ही दिन से उसने सास के भोजन में एक चुटकी जहर मिलाना शुरू कर दिया। अब वह सास के किसी भी ताने का जवाब नहीं देती। क्रोध पीकर मुस्कराते हुए सुन लेती। रोज उसके पैर दबाती और उसकी हर बात का खयाल रखती। सास से पूछ-पूछ कर उसकी पसंद का खाना बनाती, उसकी हर आज्ञा का पालन करती। उसके बदले रुख से सास खुश हो गई। सकारात्मकता की ताकत से परिवार में बदलाव की बयार बहने लगी।

सास के भी स्वभाव और व्यवहार में आया बदलाव

कुछ हफ्ते बीतते-बीतते सास के स्वभाव और व्यवहार में भी परिवर्तन आना शुरू हो गया। बहू की ओर से अपने तानों का जवाब न पाकर उसके ताने अब कम हो चले थे। बल्कि वह कभी-कभी बहू की सेवा के बदले आशीष भी देने लगी थी। धीरे-धीरे चार महीने बीत गए। गीता नियमित रूप से सास को रोज एक चुटकी ज़हर देती आ रही थी। किंतु इस दौरान उस घर का माहौल एकदम से बदल चुका था। सास-बहू का झगड़ा पुरानी बात हो चुकी थी। पहले सास गीता को कोसते नहीं थकती थी। अब वही आस-पड़ोस वाले के आगे गीता की तारीफों के पुल बांधने लगी थी। बहू को साथ बिठाकर खाना खिलाती और सोने से पहले भी जब तक बहू से चार प्यार भरी बातें न कर ले, उसे नींद नहीं आती थी।

सास-बहू में बन गया मां-बेटी सा संबंध

छठा महीना आते-आते गीता को लगने लगा कि उसकी सास उसे बिलकुल अपनी बेटी की तरह मानने लगी हैं। उसे भी सास में अपनी मां की छवि नज़र आने लगी। जब वह सोचती कि उसके दिए जहर से उसकी सास कुछ ही दिनों में मर जाएगी तो वह परेशान हो जाती थी। इसी ऊहापोह में वह एक दिन फिर अपने पिता के पास जा पहुंची। वह बोली– पिताजी, मुझे उस जहर के असर को खत्म करने की दवा दीजिए। अब मैं अपनी सास को मारना नहीं चाहती। वह बहुत अच्छी हैं। अब मैं उन्हें अपनी माँ की तरह चाहने लगी हूँ। इस कहानी से साबित होता है कि सकारात्मकता की ताकत से बढ़कर कुछ भी नहीं। यह सिर्फ कहानी नहीं, परखा हुआ मनोवैज्ञानिक तथ्य भी है।

युक्ति काम आई, सकारात्मकता की ताकत से घर बना स्वर्ग

पिता ठठाकर हँस पड़े। वह बोले– जहर? कैसा जहर? मैंने तो तुम्हें जहर के नाम पर हाजमे का चूर्ण दिया था। मैं जानता था कि समस्या का मूल कारण तुम दोनों की सोच है। दोनों नकारात्मकता से भरी हो। कोई अपने में बदलाव लाने के लिए तैयार नहीं था। ऐसे में सुधार भी संभव नहीं था। जब तुमने जहर वाली बात की तो मैंने उसी बहाने तुम्हारे आचरण और कार्यकलाप में सकारात्मकता का पुट भरने की योजना बनाई। मैं जानता था कि एक की सकारात्मक गतिविधि दूसरे को प्रभावित किए बिना नहीं रहेगी। फिर तुम्हारा घर स्वर्ग बन जाएगा। यही हुआ भी।

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