एक ही पिता की संतान हैं सभी जातियों के लोग

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एक ही पिता की संतान हैं सभी जातियों के लोग
एक ही पिता की संतान हैं सभी जातियों के लोग।

सांस्कृतिक-वैचारिक भिन्नता से बने देव, दानव, यक्ष व गंधर्व

People of all castes are the children of same father : एक ही पिता की संतान हैं पृथ्वी के सभी लोग। यह बात कपोल कल्पना नहीं है। इसके ठोस पौराणिक साक्ष्य हैं। जाति, धर्म व क्षेत्र विवाद अज्ञानता और जानकारी के अभाव में है। इसी कारण से भारी भ्रम है। भ्रम को दूर करने के लिए मैं कुछ तथ्य व पौराणिक साक्ष्य दे रहा हूं। यदि किसी के पास इससे अलग या अधिक जानकारी हो तो उनका स्वागत है। ताकि सच को सामने लाने का कार्य और बेहतर तरीके से हो सके। पुराणों के अनुसार पहले सभी लोग समान थे। सभी की उत्पत्ति एक ही जगह से और एक ही तरह से हुई। साथ ही पले-बढ़े। बाद में अपने-अपने कर्मों और सोच की वजह से अलग-अलग नामों से पुकारे जाने लगे। इसी कारण कालांतर में उनके बारे में अलग-अलग धारणा बनी।

ऋषि कश्यप की संतान हैं देव और दानव

पौराणिक काल के ग्रंथों एवं धर्मग्रंथों में साफ लिखा है। अनेक ग्रंथों के रचयिता ऋषि कश्यप (मनुष्य) की विभिन्न पत्नियों से ही देव, दानव, राक्षस, यक्ष, गंधर्व आदि की उत्पत्ति हुई। अदिति से देवताओं की, दिति से दैत्यों की, दनु से दानवों की, सुरसा से राक्षसों की तथा अरिष्टा से गंधर्वों की उत्पत्ति हुई। उनकी अन्य पत्नियों से यक्ष, किन्नर, नाग आदि जन्मे। इस तरह ऋषि कश्यप ही उन सभी के आदि पिता हुए।  ब्रह्मा के मानस पुत्र मरीची थे ऋषि कश्यप के पिता। उनकी माता का नाम ‘कला’ था। वे कर्दम ऋषि की पुत्री और कपिल ऋषि की बहन थीं। कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था। वहां वे परमात्मा कि तपस्या में लीन रहते थे।

सात द्वीपों में बंटी थी धरती

पौराणिक मान्यता के अनुसार प्रारंभ में सभी महाद्वीप आपस में जुड़े थे। समुद्र तब भी था लेकिन भूभाग इतने अलग नहीं थे। तब धरती सात द्वीपों में बंटी थी। वे थे – जंबू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर द्वीप। इसमें से जंबू मध्य में थे। इसके नौ खंड थे। वे थे- इलावृत, भद्राश्व, किंपुरुष, भारत, हरिवर्ष, केतुमाल, रम्यक, कुरु और हिरण्यमय। इसी में एक ही पिता की संतान सुर और असुरों का साम्राज्य था। सौतेले भाइयों में आज भी विवाद होता है। उसी तरह असुर देवताओं के प्रबल शत्रू थे। असुरों और देवों में सदा युद्ध होता रहा। श्रेष्ठता सिद्ध करने की होड़ में पहले तो दानवों व असुरों ने कई वीरतापूर्ण किए। तत्पश्चात भौतिक उन्नति व सुख लिप्तता के लिए हर तरह के कर्म करने लगे। फिर आई गुरु बनाने की बारी। देवताओं ने बृहस्पति को गुरु बनाया। दानवों के गुरु शुक्राचार्य बन गए।

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बृहस्पति देवताओं के व शुक्राचार्य दानवों के गुरु बने

ऋषि भृगु के अत्यंत प्रतिभाशाली पुत्र शुक्राचार्य के गुरु बनने से दानवों की शक्ति और बढ़ गई। चूंकि शुक्राचार्य देवताओं से बेहद नाराज थे। वे उन्हें और उनके गुरु बृहस्पति को नीचा दिखाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपने नेतृत्व में दानवों को और शक्तिशाली बनाना प्रारंभ किया। फिर उन्हें देवताओं के विरुद्ध खुलकर मैदान में उतार दिया। चूंकि दैत्यों का आचरण सुर विरोधी कहलाया। इसी कारण उनका एक नाम असुर भी पड़ गया। इसे दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि वैचारिकता एवं संस्कृति-भिन्नता के कारण स्व-संस्कृति स्थापना एवं वर्चस्व के लिए संघर्ष  होने लगे। इससे उनमें संघर्ष इतना बढ़ गया कि दो धुरों के लगने लगे। बाद में तो यह कल्पना करना भी कठिन लगने लगा कि दोनों एक ही पिता की संतान हैं।

संघर्ष की गाथा

देवता और असुरों का यह संघर्ष हजारों साल तक चलता रहा। इससे इन दोनों के बारे में काफी जानकारी भी मिल जाती है। जंबू द्वीप के इलावर्त क्षेत्र (रूस) में 12 बार देवासुर संग्राम हुआ। एक ही पिता की संतान असुरों ने वर्चस्व के लिए लगातार देवों के साथ युद्ध किया। इनमें से कई युद्धों में वे विजयी भी होते रहे। असुरों में भी बड़े प्रसिद्ध राजा, बलवान-शक्तिशाली, वीर, भक्त, धार्मिक एवं विद्वान् हुए। उनमें से कुछ ने तो पूरे विश्व पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। जब तक कि उनका संहार विष्णु, शिव आदि देवों ने नहीं किया। देवताओं (मूलत: इंद्र व विष्णु) के शत्रु होने के कारण ही उन्हें असुर, दुष्ट, दैत्य कहा गया है। किंतु सामान्य रूप से वे दुष्ट नहीं थे। उनके गुरु शुक्राचार्य देवगुरु बृहस्पति के समान ही ज्ञानी थे।

शिव का देव-दानवों के प्रति समभाव

शिव सुर–असुर दोनों के प्रति समभाव रखते थे। वे दैत्यों के अति-भौतिकतावादी संस्कृति से कई बार असहमत होते थे। देवों की सुख लिप्ततापूर्ण जीवनचर्या भी उन्हें भाती नहीं थी। वे वस्तुतः प्राकृतिक जीवन शैली के समर्थक थे। असुर भी प्राय: प्रकृति-पूजक थे। देव गुरु बृहस्पति के भाई दैत्य गुरु शुक्राचार्य स्वयं शिव के शिष्य, भक्त व उपासक थे। वे उशना नाम से प्रसिद्द कवि-विद्वान् एवं मृतक को पुन: जीवित कर देने वाली मृत संजीवनी विद्या के ज्ञाता थे जो भगवान शिव ने उन्हें देवों को अमृत द्वारा अमरता प्राप्त होने पर दोनों वर्गों के समानुपातिक समन्वय व शक्तिसंतुलन के स्वरूप प्रदान की थी। इस प्रकार बृहस्पति के शिष्य व समर्थक देव, सुर तथा शुक्राचार्य के शिष्य व समर्थक दैत्य आदि असुर कहे जाने लगे।

भारी अंर्विरोध के बाद भी बनते रहे संबंध

कटुता और सांस्कृतिक भिन्नता के बावजूद एक ही पिता की संतान देव-दानवों में प्रेम, विवाह, संबंध आदि प्रतिबंधित नहीं थे। यथा- शुक्राचार्य ने इंद्र के लिए वज्र बनाया। भक्त प्रहलाद व  शंखचूर्ण असुर की पत्नी विष्णु भक्त थे। कालांतर में असुरों में भी देवताओं के समर्थक होने लगे। वर्चस्व के युद्धों में अंतिम प्रसिद्ध युद्ध राजा बलि के साथ इंद्र का हुआ। देवता हार गए। तब संपूर्ण जंबूद्वीप पर असुरों का राज हो गया। इसके बीच के स्थान में था इलावर्त राज्य। वह आज का समस्त एशिया व यूरोप है। देव केवल स्वर्ग, देवलोक, भरत-खंड (मध्य एशिया, उत्तरापथ, उत्तराखंड, भारतवर्ष, ब्रह्मावर्त ) तक सिमट गए। यक्ष, गंधर्व, नाग एवं किन्नरों का कोई बड़ा और लंबा संघर्ष नहीं हुआ। इसलिए उनके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिल सकी है। प्रयास करता रहूंगा। जैसे ही जानकारी मिलेगी, साझा करूंगा।

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