आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में सोच से मिलती है सफलता

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सुखद जीवन चाहिए तो इन बातों का रखें ध्यान
सुखद जीवन चाहिए तो इन बातों का रखें ध्यान।

Thinking of successful in attaining spiritual goals : आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में सोच से मिलती है सफलता। इसी कमी के कारण कई लोगों को काफी प्रयास के बाद भी सफलता नहीं मिल पाती है। जबकि कुछ लोग कम साधना में ही सफलता पा लेते हैं। ऐसे में असफल लोग भाग्य को या ईश्वर को दोष देते हैं। सच यह है कि मनुष्य भाग्य खुद बनाते हैं। ईश्वर की इसमें भूमिका नहीं होती है। वे तो अत्यंत दयालु और कृपानिधान हैं। समस्या यही है कि जीव उनके प्रवेश के लिए द्वार ही नहीं खोलता है। दरअसल असफल लोग भी मेहनत करते हैं। कमी मेहनत में निरंतरता की होती है। ऐसे लोगों में न ईश्वर के प्रति समर्पण और न अपने कर्म पर विश्वास होता है। जाहिर है कि फिर सफलता भी नहीं मिल पाती है। वेद समेत प्रमुख धर्म ग्रंथों में कही बातों का मूल सार यही है।

अध्यात्म में भक्ति योग सर्वश्रेष्ठ

सकारात्मक सोच और भाव की प्रधानता ही अध्यात्म में सफलता की गारंटी है। वेद समेत सभी प्रमुख धर्म ग्रंथों में इसी पर जोर दिया गया है। मंत्र जप हो या ध्यान भाव और विश्वास आवश्यक है। दुर्भाग्य से यह सिद्धांत बाद में गौण सा हो गया है। हालांकि हर युग में एक बात कही गई है कि भगवान सामग्री या क्रिया के नहीं बल्कि भाव के भूखे होते हैं। जिस भक्त से उन्हें भाव मिलता है, उसे वे मजबूती से थाम लेते हैं। ईश्वर की आराधना के मूल सिद्धांतों में भक्तियोग को सर्वोपरि माना गया है। ऋषियों ने भी इसकी प्रशंसा की है। उन्होंने कहा है कि भक्तियोग में भगवान ही कर्ता होते हैं। उन्हें ही भक्त की चिंता करनी पड़ती है। भक्त को अपनी कोई चिंता नहीं होती है। उसे तो भगवान पर अटूट विश्वास होता है। उनके प्रति भाव से भरा होता है।

ज्ञान व क्रिया योग में साधक को करनी होती है चिंता

ज्ञान एवं क्रिया योग में साधक कर्ता होता है। उसे अपनी और साधना की चिंता करनी होती है। इसमें यदि वह भटका या पथ से विचलित हुआ तो सब बेकार हो जाता है। भगवान के लिए गुंजाइश नहीं होती कि वह उसे आगे बढ़कर थाम लें। जैसे द्रौपदी के चीरहरण के समय कृष्ण पास ही खड़े थे। इंतजार कर रहे थे कि द्रौपदी बुलाए। वह जब तक कर्ता भाव में रही भगवान देखते रहे। जब कातर भाव में उन्हें पुकारा तो तत्क्षण उपस्थित हो गए। मनुष्य जब कर्ता भाव में अपनी डोर अपने हाथ में थाम रखता है तो भगवान कैसे मदद करेंगे। आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भाव आवश्यक है। विज्ञान के हिसाब से भी देखें तो मनुष्य में इच्छाशक्ति एवं विचार सर्वोपरि है। उसके बाद बाकी प्रक्रिया शुरू होती है। विचार सकारात्मक हो और उसमें तीव्रता हो तो सफलता की संभावना बढ़ जाती है।

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सोच और संस्कार का भी महत्व

आपने देखा होगा कि कई लोग एक ही मंत्र व एक ही पूजा विधान से लंबे समय तक उपासना करते हैं। इसके बाद भी उन्हें सफलता नहीं मिल पाती है। इसके विपरीत कुछ को शीघ्र परिणाम दिखाई पड़ता है। स्वयं विचार करें कि इसका क्या कारण है? इसका सबसे बड़ा कारण है- सोच और हमारे संस्कार। आध्यात्मिक प्रगति में सबसे बड़ा व्यवधान कुसंस्कारों के कारण होता है। जैसे- आकाश में बादल छाये हों तो दोपहर का सूर्य भी पूरी रोशनी नहीं देता है। इसी तरह सोच व संस्कार सही न हो तो जप-तप करते हुए भी सफलता नहीं मिल पाती है। साधना का थोड़ा-सा गंगाजल गंदे नाले में गिरकर महत्ता खो बैठता है। उसके लिए नाले को शुद्ध करना संभव नहीं है। बेशक गंगा के तीव्र प्रवाह में गंदगी बह जाती है। पर सड़ांध भरी गटर को गंगा जल शुद्ध नहीं कर सकता है।

शारीरिक व मानसिक पवित्रता का रखें ध्यान

आध्यात्मिक लक्ष्य की प्राप्ति में भी ऐसा ही होता है। सफलता की अपनी महिमा और महत्ता है। उसे गंगा जल से कम महत्व नहीं दिया जा सकता है। साथ ही यह भी समझना आवश्यक है कि वह सर्व समर्थ नहीं है। जैसे गंगा जल से बनी मदिरा या उसमें पकाया हुआ मांस पवित्र नहीं माने जाएंगे। शौचालय में प्रयुक्त होने के उपरांत का गंगाजल का भरा पात्र देव प्रतिमा पर चढ़ाने योग्य नहीं रहता है। उसकी महत्ता के लिए आवश्यक है कि उसके संग्रह उपकरण एवं स्थान की पवित्रता भी अक्षुण्ण बनी रहे। ऐसा ही साधना में होता है। यदि साधना करने वाले का शरीर और अंतःकरण अपवित्र होगा तो साधना निरर्थक होगी। सादना की सफलता के लिए शारीरिक व मानसिक पवित्रता आवश्यक है। साथ ही भाव व सोच भी सकारात्मक हो। फिर सफलता अवश्य प्राप्त होगी।

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