Vastu Shastra is based on scientific principles : वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है वास्तु शास्त्र। विज्ञान कहता है कि हर वस्तु का भार होता है। उसका केंद्र होता है। उसकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति होती है। उसका पृथ्वी और वायुमंडल पर तदनुसार प्रभाव पड़ता है। स्पष्ट है कि इन सारे तथ्यों के साथ भवन में दरवाजे, खिड़कियां, खुला स्थान, रोशनी, अंधेरा क्षेत्र, तापमान, नमी, जलीय क्षेत्र आदि का भी उस पर प्रभाव पड़ेगा ही। भारतीय वास्तु शास्त्र उन सभी का सम्मिलित रूप है। वह तर्कपूर्ण तरीके से इनका जीवन पर पड़ने वाले सकारात्मक और नकारात्मक प्रभाव का अध्ययन करता है। तत्पश्चात उन्हें व्यक्ति विशेष के पक्ष में मोड़ने का सुझाव देता है। इसमें दूसरी पद्धति से अधिक एक और विशिष्टता है। यह ग्रह, नक्षत्र और भवन में रहने वाले की कुंडली को भी अध्ययन में शामिल करता है। फिर उनका विश्लेषण कर संयुक्त सटीक समाधान देता है।
वास्तु शास्त्र और पंचतत्व
सनातन धर्म के अनुसार मनुष्य की रचना पंच तत्व- क्षिति (पृथ्वी), जल, पावक (अग्नि), गगन और समीर (हवा) से हुई है। भवन भी इन्हीं तत्वों से बनता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ग्रह विभिन्न तत्वों का कारक है। उन्हें प्रभावित करता है। सामान्य रूप से देखें तो सूर्य और उसकी रोशनी पृथ्वी के हर जीव-जंतु और वस्तुओं को सीधे प्रभावित करते हैं। इसी तरह पूर्णिमा, अमावस्या और ग्रहण काल में समुद्र में अधिक उठने वाले ज्वार-भाटा तथा लोगों के मन पर असर से चंद्रमा का जल पर प्रभाव स्पष्ट होता है। अब चूंकि मनुष्य, भूमि और भवन बिना जल के नहीं हो सकते तो इन पर चंद्रमा का असर पड़ना भी स्वाभाविक है। यही स्थिति हवा के आवागमन की है। पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति और उत्तर-दक्षिण के बीच चलने वाली तरंगों की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। इससे घर की दिशा के महत्व समझा जा सकता है।
शरीर, भवन और ब्रह्मांड का समन्वय
वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित वास्तु और ज्योतिष शास्त्र से शरीर, भवन और ब्रह्मांड का समन्वय किया जाता है। विभिन्न धर्म ग्रंथों में लिखा है कि जो ब्रह्मांड का मूल स्वरूप (तत्व) है, वही इसमें मौजूद हर जीव-जंतु और पदार्थ में है। विज्ञान ने भी पहले परमाणु और अब गॉड पार्टिकल के रूप में इसे स्वीकार कर लिया है। वास्तु शास्त्र के अनुसार भवन और भूमि वास्तु पुरुष के प्रतीक हैं। अतः उसमें रहने वाले उस मूल तत्व से सामंजस्य होना ही चाहिए। इसकी मूलभूत जानकारी के लिए पहले बारी-बारी से पंचतत्वों और उसके प्रभाव को जानना आवश्यक है। अतः नीचे पढ़ें पांचों पंचतत्व और उसके प्रभाव। सबसे पहले क्षिति अर्थात आकाश की बात।
मनुष्य और भवन का आधार है पृथ्वी तत्व
पृथ्वी किसी भी भवन और मनुष्य का आधार है। उसके बिना इन दोनों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पृथ्वी में सभी दिशाओं का विशेष महत्व है। इसके गुरुत्वाकर्षण शक्ति, तापमान, चुंबकीय ऊर्जा का प्रवाह, वायुमंडल का दबाव, मौसम आदि के प्रभाव को सहज समझा जा सकता है। इन्हें देखते हुए वास्तु शास्त्र में संबंधित सुझाव दिया जाता है। उदाहरण के लिए पृथ्वी के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव में चुंबकीय शक्ति है। वह प्रवाहित होती रहती है। विरोधी ध्रुवों में आकर्षण और विघटन भी होता है। मनुष्य इसी का संक्षिप्त रूप है। अतः उसमें भी सिर और पैर में विशिष्ट ऊर्जा प्रवाहित होती रहती है। ऐसे में दक्षिण की ओर सिर करके सोने से विरोधी ऊर्जा में आकर्षण होता है। इससे शरीर निरोग रहता है। नींद अच्छी आती है। इसी तरह के संतुलन के लिए दक्षिण दिशा को ऊंचा और भारी रखने का प्रावधान है।
यह भी पढ़ें- वास्तु और ग्रहों के संतुलन से एक-दूसरे की कमी दूर करें
जल की मात्रा सबसे अधिक
पृथ्वी और मानव शरीर में सबसे अधिक अंश जल का होता है। उसका कारक ग्रह चंद्रमा है। वह जल में उथल-पुथल से लेकर शांति तक के लिए जिम्मेदार है। उसका असर मस्तिष्क पर भी स्पष्ट रूप से पड़ता है। अर्थात जल तत्व मस्तिष्क को सीधा प्रभावित करता है। साथ ही यह कई बीमारियों या स्वास्थ्य का भी कारक बनता है। वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित इस नियम के तहत भूमि या मकान के ईशान कोण (पूर्व-उत्तर भाग) को जलीय भाग माना जाता है। अतः गुरुत्वाकर्षण शक्ति और चुंबकीय प्रवाह के संतुलन के लिए जल स्रोत को उसी दिशा में रखना श्रेष्ठ माना जाता है। जन्मकुंडली में अन्य ग्रहों के भाव स्थिति को देखकर इसकी घर से दूरी निर्धारित की जाती है। इसे संतुलित किए बिना अच्छे घर और उसमें लोगों के सुखी रहने की कल्पना भी कठिन है।
अग्नि तत्व का सबसे बड़ा स्रोत सूर्य
सूर्य का अग्नि तत्व का सबसे बड़ा स्रोत माना जाता है। पृथ्वी पर यह तेज, ऊर्जा और ऊष्मा का मुख्य स्रोत है। विज्ञान भी अब इसके और इसकी किरणों के महत्व को खुलकर स्वीकार करने लगा है। विटामिन डी का यह सबसे अच्छा प्राकृतिक स्रोत है। भारतीय वास्तु शास्त्र और ज्योतिष में इसका महत्व प्राचीनकाल से ही है। इसके लिए उत्तर-पूर्व में कम ऊंचाई वाली खुली भूमि रखने का प्रावधान है। ताकि निर्बाध रूप से सूर्य की रोशनी घर तक पहुंच सके। चूंकि प्रातः की किरणों का ही महत्व है। अतः पूर्व दिशा में ही खुला स्थान रखना चाहिए। संध्याकाल की किरणें सकारात्मक नहीं मानी जातीं। अतः दक्षिण-पश्चिम दिशा को ऊंचा रखने एवं उसमें पेड़ लगाने और रखने की व्यवस्था दी गई है।
मकान का खुला भाग आकाश का प्रतीक
आकाश का अर्थ पृथ्वी से अंतरिक्ष तक का शून्य है। शास्त्रों के अनुसार पृथ्वी इसी शून्य पर टिकी है। इसी से सृष्टि उत्पन्न होकर इसी में समा जाती है। वैज्ञानिक भी ब्रह्मांड में चारों ओर शून्य का साम्राज्य मानते हैं। शोध से भी स्पष्ट हो चुका है कि किसी वस्तु पर आकस्मिक रूप से बहुत अधिक दबाव पड़े तो वह शून्य हो जाएगा। अर्थात हर तत्व शून्य से सीधे प्रभावित है। अर्थात यह वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित है। यही कारण है कि प्राचीनकाल से ही भवन में खाली स्थान रखना अनिवार्य माना जाता रहा है। पुराने एवं परंपरागत घरों में आंगन इसी का परिचायक है। फ्लैट में भी बालकोनी रखकर इसकी कमी पूरी की जाती है। हालांकि इससे पूरा भाव नहीं मिल पाता है।
जीवन के लिए आवश्यक है वायु
वायु जीवन के लिए आवश्यक है। इसका बहाव सबसे अधिक पूर्व-पश्चिम दिशा में होता है। हिमालय के कारण भारत में यह कई बार उत्तर-पूर्व कोण से बहता है। यह हवा शीतलता लिये होती है। साथ ही सुबह के समय यह सूर्य की ऊर्जायुक्त किरणों से होकर घर को स्वच्छ बनाती है। इसी कारण वायु के लिए पूर्व और उत्तर दिशा को अधिक महत्व दिया जाता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार इस दिशा में दरवाजे और खिड़कियां अधिक होने चाहिए। दक्षिण की ओर इनकी संख्या नगण्य सी रखने का प्रावधान है। दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशा को इसके लिए अच्छा नहीं माना जाता है। आशा करता हूं कि वैज्ञानिक सिद्धांत पर आधारित वास्तु शास्त्र की मूल भावना स्पष्ट हो गई होगी।
यह भी पढ़ें- ग्रह और वास्तु दोष को मामूली उपायों से सुधारें