मनुष्य को निखारती है आलोचना, स्वागत करें

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अध्यात्म के क्षेत्र में अहम से मुक्ति आवश्यक
अध्यात्म के क्षेत्र में अहम से मुक्ति आवश्यक।
Welcome criticism, improve your personality : मनुष्य को निखारती है आलोचना। इसका सदा स्वागत करें। कबीरदास ने बड़ी अच्छी बात कही थी- निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छबाय। बिन पानी साबुन बिना निरमल करै सुभाय। यह पढ़ने और सुनने में जितना आसान है, अर्थ उतना ही गूढ़। दूसरा कमी निकाले तो सभी को बुरा लगता है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपनी निंदा सुनना किसी को अच्छा नहीं लगता है। जिस व्यक्ति ने खुद पर नियंत्रण पा लिया है। जो प्रशंसा और निंदा को समान रूप में लेता है। वह भौतिक और आध्यात्मिक रूप से श्रेष्ठ होता है। क्योंकि आलोचना सही हो या गलत, व्यक्ति को निखारती है। यदि सही होती है तो उसे खुद की गलती को समझ आती है। उसे दूर करने का अवसर मिलता है। गलत होने पर धैर्य को बढ़ाकर व्यक्तित्व को ऊंचा उठाती है। यह व्यक्ति को सटीक निर्णय लेने में मदद करती है।

कुछ न कुछ सार अवश्य होता है आलोचना में

यदि कोई हर तरह से मजबूत हो तो सामान्य स्थिति में द्वेषवश लांछन लगाने का दुस्साहस कोई यदा-कदा ही कर पाता है। आमतौर से निंदात्मक आलोचना हमारे दोष-दुर्गुणों की ही होती है। नमक-मिर्च लगाने की तो लोगों को आदत है। पर जो कहा जाता है उसमें कुछ सार जरूर होता है। आलोचना का सबसे बड़ा लाभ यही है। वह व्यक्ति को स्वयं को समझने का अवसर प्रदान करता है। ताकि वह देखे कि उसके बारे में जो कहा जा रहा है, उसमें कितना तथ्य है। अपना चेहरा अपने को दिखाई नहीं पड़ता। उसे देखना के लिए दर्पण होना चाहिए। आलोचक हमारे लिए दर्पण की तरह होते हैं। जहां कुरूपता है वहां सुधार के लिए प्रयत्न करने की प्रेरणा दे सकते हैं। दर्पण का शीशा ठीक न हो तो चेहरा साफ नहीं दिखता है। उसी तरह द्वेषवश की गई आलोचना की स्थिति होती है। ऐसे में उसे टाल दें।

अस्थाई होता है मिथ्या निंदा का प्रभाव

मनुष्य को निखारती है आलोचना। उसका स्वागत करें। मिथ्या निंदा से कुछ समय के लिए भ्रम होता है। बाद में वस्तुस्थिति स्पष्ट हो जाती है। आप पर कीचड़ उछालने वाले की स्वतः कलई खुल जाती है। मिथ्या दोषारोपण से स्थाई अहित नहीं होता है। क्षणिक निंदा या स्तुति का कोई मोल नहीं है। पानी की लहरों की तरह वे उठती और विलीन होती हैं। प्रशंसा सुनने की इच्छा यदि मन में है तो अपने आपको ऐसा बनाने का प्रयत्न करें। ताकि दूसरे लोग विवश होकर प्रशंसा करने लगें। मुख से न कहें तो भी हर किसी के मन में आपके उच्च चरित्र के बारे में जो श्रद्धा अनायास हो जाएगी। ऐसा होने पर आपकी अंतरात्मा प्रसन्नता अनुभव करती है। यह सबसे अधिक मूल्यवान है। यह अनुभूति रोम-रोम को पुलकित कर देती है।

स्वयं करें अपनी कटु आलोचना

दूसरों से आलोचना सुनना यदि बुरा लगता हो तो बचने का एक तरीका है। अपनी आलोचना करना आरंभ करें। जिस प्रकार दूसरों के दोष देखने और समझने के लिए अपनी बुद्धि कुशाग्र रहती है। वैसा-ही छिद्रान्वेषण अपना करना चाहिए। अपनी निष्पक्ष समीक्षा करना मनुष्य का सबसे बड़ा साहस है। अपने दोषों को ढूंढना, गिनना और समझना चाहिए। साथ ही प्रयत्न करें कि वे दुर्गुण समाप्त हो जाएं। निर्दोष और निर्मल व्यक्तित्व विनिर्मित किया जाए। जिस प्रकार आप दूसरों के दोषों से चिढ़कर उनकी निंदा करते हैं, वैसी ही सख्ती अपने साथ भी करें। प्रयास हो कि निंदा करने का कोई आधार ही शेष न रहे। अप्रिय आलोचना के वास्तविक कारणों का ही उन्मूलन हो जाए। अपने आप से लड़ सकना शूरता का सबसे बड़ा प्रमाण है। दूसरों से लड़ने के लिए अस्त्र-शस्त्र भी समर्थ हैं। ध्यान रहे कि हर हाल में मनुष्य को निखारती है आलोचना।

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