जो बोओगे वही काटना पड़ेगा, कर्म फल से बचना संभव नहीं

205
जो बोओगे वही काटना पड़ेगा, कर्म फल से बचना संभव नहीं
जो बोओगे वही काटना पड़ेगा, कर्म फल से बचना संभव नहीं।

You have to reap what you sow, it is not possible to avoid the fruit of karma : जो बोओगे वही काटना पड़ेगा, कर्म फल से बचना संभव नहीं है। सृष्टि का यह नियम सब पर समान रूप से लागू होता है। यहां तक कि ईश्वर भी इसमें हस्तक्षेप नहीं करते हैं। इस विषय पर मैं पहले भी लिख चुका हूं। उसमें संकटमोचक गणेश के मस्तक कटने, सती का आत्मदाह आदि उदाहरण दिए थे। वर्तमान में महाभारत के एक प्रसंग से इसे पुनः स्पष्ट कर रहा हूं। यह प्रसंग युद्ध के तत्काल बाद का है। भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी के बीच संवाद का है। इसमें विनाशकारी महाभारत युद्ध, उसके कारण और उसके दुष्परिणाम पर चर्चा है। साथ ही भगवान का यह संदेश भी कर्म के फल से न कोई बचा है और न कोई बच नहीं सकेगा। जो बोओगे वही काटना पड़ेगा।

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद

18 दिन का महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था। चारों ओर शव बिखरे पड़े थे। उन्हें चील, गिद्ध और कौवे नोच रहे थे। सन्नाटे को बीच-बीच में युद्ध क कारण विधवा युवतियों, संतान खोने वाले वृद्ध माताओं और अनाथ हो चुके छोटे बच्चों की चीत्कार तोड़ देती थी। दुशासन के सीने के रक्त से अट्टहास कर बाल धोने वाली महारानी द्रौपदी भी अपने पांचों पुत्रों को खो चुकी थीं। चंद दिनों में सौंदर्य की प्रतिमूर्ति द्रौपदी वृद्धा लगने लगी थी। चेहरे पर झुर्रियां सी दिखने लगी थीं। आंखों के नीचे कालिमा, गालों की लाली के स्थान पर पीला व कालापन चेहरे को पूरी तरह से निस्तेज कर चुका था। सूनी आंखों से खिड़की के बाहर आसमान को एकटक देखे जा रही थी। लगता था कि शारीरिक और मानसिक रूप से टूट चुकी है। सही कहा है कि जो बोओगे वही काटना पड़ेगा। तभी अचानक श्रीकृष्ण कक्ष में दाखिल हुए।

श्रीकृष्ण को देखते ही द्रौपदी के धैर्य का बांध टूटा

पदचाप की आवाज से द्रौपदी का ध्यान टूटा। देखा तो सामने माधव खड़े हैं। ऐसा लगा कि धैर्य का बांध टूट गया है। दौड़ती हुई भगवान के पास आई। फिर उनसे लिपट कर फूट-फूट कर रोने लगी। कृष्ण कुछ देर तक चुप खड़े सिर्फ द्रौपदी के सिर को सहलाते रहे। फिर उसे स्वयं से अलग कर कमरे में ही पलंग पर बैठा दिया। तब तक द्रौपदी का रोना थोड़ा कम हो गया था। हिचकियां लेते हुए बोली। हे सखा, यह क्या हो गया? ऐसा तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था। भगवान बोले- क्या हो गया? तुम प्रतिशोध ही तो लेना चाहती थी। उसमें तुम सफल हुई। तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिए। तुम्हें तुम्हारा लक्ष्य प्राप्त हो गया। देखो- दुर्योधन और दुशासन ही नहीं, कौरव कुल ही समाप्त हो गया। अब भविष्य में भी कोई तुम्हारा विरोध कर सकने वाला नहीं बचा है।

यह भी पढ़ें- छोटी सिद्धियां पाना सरल लेकिन उससे मोक्ष संभव नहीं

द्रौपदी ने कहा-घावों को सहलाने आए हो या नमक छिड़कने

कृष्ण की बातों से द्रौपदी आहत हो गई। उन्होंने शिकायती लहजे में कहा- तुम मेरे घावों को सहलाने आए हो या उस पर नमक छिड़कने? माधव ने कहा- सखा, मैं तो तुम्हें मात्र सत्य से अवगत कर रहा हूं। नियति बहुत क्रूर होती है पांचाली। वह हमारे अनुरूप नहीं चलती है। उसका अपना नियम है। वह कर्मों को फल के रूप में बदल कर सामने रख देती है। कर्म करते समय मनुष्य उसके परिणाम को समझ नहीं पाता है। जब कर्मों के फल मिलने लगते हैं तो उसे भोगने के अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं बचता है। तुम भी अपने कर्मों से मुंह नहीं मोड़ सकती हो। इस बात से क्षुब्ध द्रौपदी ने कहा कि क्या इस युद्ध के लिए मात्र मैं ही उत्तरदायी हूं? कृष्ण बोले-नहीं द्रौपदी, लेकिन तुम भी एक कारक हो। अपने हिस्से का फल भोगना ही होगा न? जो बोओगे वही काटना पड़ता है।

महाभारत के लिए कई लोग उत्तरदायी

भगवान बोले, महाभारत के लिए कई लोगों के कर्म उत्तरदायी हैं। सबको उनके हिस्से का फल भोगना पड़ा। तुम भी बच नहीं सकती हो। यदि कर्म करते समय तुमने थोड़ा विचार किया होता तो जो पीड़ा तुम भोग रही हो, उसमें काफी कमी आती। महारानी ने कहा कि मैं क्या कर सकती थी? श्रीकृष्ण बोले कि नियति ने तुम्हें महत्वपूर्ण बनाया था। तुम अहम भूमिका निभा सकती थी। तुम्हारे कर्म से स्थिति में काफी अंतर आ सकता था। विचार करो सखी। यदि स्वयंवर के समय तुमने कर्ण को सूत पुत्र कहकर अपमानित नहीं किया होता। उसे उसमें भाग लेने से रोका नहीं होता तो स्थिति अलग हो सकती थी। संभव है कि वह दुर्योधन के इतना निकट नहीं जाता। जब कुंती बुआ ने तुम्हें पांच भाइयों में बांटने की बात कही, तब तुमने विरोध किया होता, तो भी तुम्हारा जीवन अलग तरह का होता।

दुर्योधन के अपमान ने आग में घी डाला

इस पूरे प्रकरण में तुम्हारा दुर्योधन को अपमानित करने की घटना ने आग में घी डालने का काम किया। यदि तुमने उससे यह नहीं कहा होता कि अंधे का पुत्र अंधा होता है तो तुम्हारा चीरहरण नहीं होता। तब संभवतः पूरी स्थिति ही अलग होती। तुमने अपने वचन रूपी कर्म से पहले से चल रही दुश्मनी को एकदम से बढ़ा दिया। सखी, मनुष्य के मुंह से निकले हर वचन भी एक तरह के कर्म हैं। उनका प्रभाव निश्चित है। अतः उसके फल से भी नहीं बचा जा सकता है। इसलिए शब्दों के प्रयोग से पहले उसके चयन के बारे में ठीक से विचार कर लेना चाहिए। कभी भी ऐसे शब्द का प्रयोग नहीं करें जो किसी को आहत करता हो। यह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। जो बोओगे वही काटना पड़ेगा। इससे कोई बच नहीं सकता है।

यह भी पढ़ें- बिना जन्मकुंडली व पंडित के जानें ग्रहों की स्थिति और उनके उपाय

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here