श्लोक-“कर्मणये वाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन । मां कर्मफलहेतुर्भू: मांते संङगोस्त्वकर्मणि”।।
भावार्थ :- मनुष्य का धर्म केवल कर्म करना है, फल पाना नहीं परंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं की मनुष्य फल की अपेक्षा न करे, अवश्य करे पर कर्म के प्रति आसक्ति न हो। फल तो ईश्वर के हाथ में है। इसलिए न कर्म से भागना उचित है और न ही कर्म के फल की आशा रखना उचित है इसलिए फल की अपेक्षा को छोड़कर अपने कर्तव्य पर ध्यान दो क्योंकि जब किसी कार्य को किसी लाभ की आशा से किया जायें तो उसे सताम कर्म योग कहते हैं और जब किसी कार्य को बिना किसी उम्मीद से किया जाये तो उसे निष्काम कर्म कहते हैं… निष्काम कर्मयोग से मनुष्य को ईश्वर की प्राप्ति होती है।
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