सरस्वती ने सुलझाया कालीदास व भवभूति का विवाद

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महान राजा विक्रमादित्य के दरबार में दो प्रसिद्ध विद्वान थे-कालीदास और भवभूति। दोनों प्रकांड विद्वान और प्रभावशाली। दोनों राजा के प्रिय भी थे। अतः जाहिर है कि उनमें अक्सर विद्वता की श्रेष्ठता और वर्चस्व को लेकर खींचतान होती रहती थी। उनकी विद्वता के समक्ष कोई अन्य टिक ही नहीं सकता था, अतः उनमें से कौन श्रेष्ठ है, इसका फैसला भी बेहद कठिन था।
इसी क्रम में  एक बार फिर दोनों के बीच इस बात को लेकर विवाद छिड़ गया कि बड़ा विद्वान कौन है। इस बार बात काफी बढ़ गई, पर फैसला करना आसान नहीं था। जब आपस में दोनों इस विवाद का निपटारा नहीं कर पाए तो उन्होंने विक्रमादित्य के सामने यह समस्या रखी और उनसे ही समाधान निकालने का आग्रह किया। विक्रमादित्य दोनों विद्वानों की क्षमता जानते थे और उनका बेहद सम्मान करते थे लेकिन अक्सर की इस नोकझोंक का वह भी स्थाई समाधान चाहते थे। आखिरकार काफी सोच-विचार कर उन्होंने उनसे कहा कि वे दोनों देवी सरस्वती से ही इस समस्या को हल करवा लें। दोनों विद्वानों ने मिलकर एक कलश में मां सरस्वती का आवाहन किया और उन्हें समस्या बताई।
इसके बाद  उन्होंने माता सरस्वती से पूछा कि दोनों में बड़ा विद्वान कौन है? कलश से आवाज आई-भवभूति। यह सुनकर अपमान की आग से कालीदास क्रोध से भर उठे। उन्होंने कलश उठाकर पटक दिया और पूछा, जब भवभूति बड़े विद्वान हैं तो मैं क्या हूं? कलश से शांत व निर्विकार आवाज आई, जो मैं हूं, वही तुम हो। यह थी, उस जमाने के विद्वानों की विद्वता। सच है कि संस्कृत साहित्य में भवभूति जैसी प्रतिभा का प्रदर्शन दुर्लभ है लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि कवि कालीदास आज भी संस्कृत साहित्य के सर्वाधिक चर्चित और लोकप्रिय साहित्यकार माने जाते हैं।

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