सृष्टि की वर्षगांठ नवसंवत्सर

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चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि, 

शुक्ल पक्षे समग्रेतु तु सदा सूर्योदये सति। 

ब्रह्म पुराण में वर्णित इस श्लोक के अनुसार चैत्र मास के प्रथम सूर्योदय पर ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इसी दिन से विक्रमी संवत की शुरुआत होती है। आज भले ही ग्रेगेरियन कैलेंडर के अनुसार एक जनवरी को मनाया जाने वाला नववर्ष ज्यादा चर्चित हो, लेकिन इससे कहीं पहले से अस्तित्व में आर्या हिंदू विक्रमी संवत आज भी धार्मिक अनुष्ठानों और मांगलिक कार्यों में तिथि व काल की गणना का आधार बना हुआ है। अपनी सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासत को याद करते हुए नवसंवत्सर पर पेश है एक नजर :


विक्रमी संवत

ग्रेगेरियन कैलेंडर से अलग देश में कई संवत प्रचलित हैं। इनमें विक्रम संवत,शक संवत, बौद्ध एवं जैन संवत और तेलुगु संवत प्रमुख हैं। इन हर एक संवत का अपना एक नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत हैं।


राष्ट्रीय कैलेंडर

आजादी के बाद नवंबर, 1952 में वैज्ञानिक और औद्योगिक परिषद के द्वारा पंचांग सुधार समिति की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रिपोर्ट में विक्रमी संवत को भी स्वीकार करने की सिफारिश की, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही सरकारी कामकाज हेतु उपयुक्त मानकर 22 मार्च, 1957 को इसे राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया गया।


शुरूआत

विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने के उपलक्ष्य में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। भारतीय पंचांग और काल निर्धारण का आधार विक्रम संवत है।


खूबी

विक्रमी संवत का संबंध सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्मांड के ग्रहों एवं नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय काल गणना पंथ निरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना को दर्शाती है। ब्रह्मांड के सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नवसंवत यानी संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें एवं 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: 45 व 15 में दिया गया है। सौर मंडल के ग्रहों एवं नक्षत्रों के चाल, उनकी निरंतर बदलती स्थिति पर भी हमारे दिन, महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं।


नव प्रभात नव पल्लव 

इस समय शीतकाल की शीतलता एवं ग्रीष्म काल की आतपता का मध्यबिन्दु होता है। वसंत के आगमन के साथ ही पतझड़ की कटु स्मृति को भुलाकर नूतन किसलय एवं पुष्पों से युक्त पादप वृंद इस समय प्रकृति का अद्भुत श्रृंगार करते हुए दिखलाई देते हैं। पशु-पक्षी, कीट-पतंग, स्थावर- जंगम सभी प्राणी नई आशा के साथ उत्साहपूर्वक अपने-अपने कार्यों में लगे दिखाई देते है। ऐसे उत्साहयुक्त समय में वार्षिक काल गणना का श्रीगणेश करते हुए नूतनवर्ष का स्वागत सहज ही प्रतीत होता है।


पर्व एक नाम अनेक

उगादी: आंध्रप्रदेश में इसे उगादी (युग प्रारंभ) नाम से दीपावली की तरह मनाते है।

गुड़ी पड़वा: महाराष्ट्र के लोग इसे गुड़ी पड़वा के नाम से मनाते है।

चेती चांद: सिंधु प्रांत में नवसंवत को चेती चांद (चैत्र का चांद) नाम से पुकारा जाता है।

नवरेह: जम्मू कश्मीर में इस दिन को नवरेह के नाम से मनाया जाता है।


ऐतिहासिक महत्व

मान्यता है कि आज से एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 117 साल पहले इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का सृजन किया था।

 सम्राट विक्रमादित्य ने 2075 साल पहले इसी दिन राज्य स्थापित कर विक्रम संवत की शुरुआत की।

लंका में राक्षसों का संहार कर अयोध्या लौटे मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम का राज्याभिषेक इसी दिन किया गया।

शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की।

सिख परंपरा के द्वितीय गुरु अंगददेव का जन्मदिवस।

सिंध प्रांत के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरुणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए।


प्राकृतिक महत्व

वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों ओर पुष्पों की सुगंध से भरी होती है। फसल पकने का प्रारंभ यानी किसान की मेहनत का फल मिलने का समय भी यही होता है। नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं। यानी किसी भी कार्य प्रारंभ करने के लिए शुभ मुहूर्त होता है।



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