प्रकृति की पूजा का पर्व है छठ। इस बहाने श्रद्धालु भगवान सूर्य को अर्घ्य देकर सुख-समृद्धि, स्वास्थ्य और संतान सुख समेत विभिन्न मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना करते हैं। भगवान सूर्य उन्हें निराश भी नहीं करते। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश का महापर्व माना जाने वाला छठ और देश भर में फैलने लगा है। मनोकामना पूरी होने से दिनो-दिन इन व्रत को करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। पौराणिक काल में भी इस व्रत के मनाए जाने के साक्ष्य मिलते हैं। शानदार फल मिलने के कारण ही बेहद कठिन होने के बावजूद इसे करने वालों का उत्साह देखते ही बनता है। चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में व्रती को लगभग तीन दिन का व्रत रखना होता है, जिसमें से दो दिन तो निर्जला व्रत रखा जाता है। चूंकि आज भी छठ का ही माहौल है तो आइए, छठ व्रत की कथा और इस पर्व की महिमा की सामान्य जानकारी लें।
छठ पर्व षष्ठी का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली और शुक्ल पक्ष की दूज को भैया दूज मनाने के तुरन्त बाद मनाया जाने वाला चार दिवसीय छठ व्रत सबसे कठिन है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की महत्वपूर्ण रात्रि छठ की होती है। इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया।
छठ पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र मास में और दूसरी बार कार्तिक मास में। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैत्री छठ व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। ज्यादा महिमा और प्रचलन में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष का छठ पर्व है।
छठ व्रत की कथा
छठ व्रत की परंपरा कैसे शुरू हुई? इस संदर्भ में एक और कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। इसके अनुसार . . .प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी । संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उन्हे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया । यज्ञ के फलस्वरूप महारानी ने एक पुत्र को जन्म तो दिया, किन्तु वह शिशु मृत पैदा हुआ । इस समाचार से पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी । आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा और उसमें बैठी देवी ने कहा – ‘मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ ।’ इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा । इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी ।
दूसरी छठ व्रत की कथा : पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था । प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया है । बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शान्त हो जाएं और जिन्दगी में विशेष कोई कष्ट ना आए । इसलिए इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा ।
तीसरी छठ व्रत की कथा : जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत किया । इससे उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापिस मिल गया। इसके अलावा छठ महापर्व का उल्लेख रामायण काल में भी मिलता है। आज छठ न सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश बल्कि संपूर्ण भारत में समान हर्षोल्लास के साथ मनाया है।
मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया है और इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ शक्ति के रूप में जाना जाता है, जो ब्रह्मा जी की मानस पुत्री और बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इन्हीं देवी की पूजा की जाती है। शिशु के जन्म के छह दिनों के बाद भी इन्हीं देवी की पूजा करके बच्चे के स्वस्थ, सफल और दीर्घ आयु की प्रार्थना की जाती है, फिर उसकी छठी निकली जाती है। पुराणों में इन्हीं देवी का नाम कात्यायनी मिलता है, जिनकी नवरात्रों की षष्ठी तिथि को पूजा की जाती है। माता सीता ने भी छठ का व्रत रखा था।
छठ पर्व षष्ठी का अपभ्रंश है। कार्तिक मास की अमावस्या को दीवाली और शुक्ल पक्ष की दूज को भैया दूज मनाने के तुरन्त बाद मनाया जाने वाला चार दिवसीय छठ व्रत सबसे कठिन है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की महत्वपूर्ण रात्रि छठ की होती है। इसी कारण इस व्रत का नामकरण छठ व्रत हो गया।
छठ पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है। पहली बार चैत्र मास में और दूसरी बार कार्तिक मास में। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले छठ पर्व को चैत्री छठ व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाए जाने वाले पर्व को कार्तिकी छठ कहा जाता है। ज्यादा महिमा और प्रचलन में कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष का छठ पर्व है।
छठ व्रत की कथा
छठ व्रत की परंपरा कैसे शुरू हुई? इस संदर्भ में एक और कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। इसके अनुसार . . .प्रियव्रत नामक एक राजा की कोई संतान नहीं थी । संतान प्राप्ति के लिए महर्षि कश्यप ने उन्हे पुत्रयेष्टि यज्ञ करने का परामर्श दिया । यज्ञ के फलस्वरूप महारानी ने एक पुत्र को जन्म तो दिया, किन्तु वह शिशु मृत पैदा हुआ । इस समाचार से पूरे नगर में शोक व्याप्त हो गया। तभी एक आश्चर्यजनक घटना घटी । आकाश से एक ज्योतिर्मय विमान धरती पर उतरा और उसमें बैठी देवी ने कहा – ‘मैं षष्ठी देवी और विश्व के समस्त बालकों की रक्षिका हूँ ।’ इतना कहकर देवी ने शिशु के मृत शरीर का स्पर्श किया, जिससे वह बालक जीवित हो उठा । इसके बाद से ही राजा ने अपने राज्य में यह त्योहार मनाने की घोषणा कर दी ।
दूसरी छठ व्रत की कथा : पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था । प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया है । बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शान्त हो जाएं और जिन्दगी में विशेष कोई कष्ट ना आए । इसलिए इस तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा ।
तीसरी छठ व्रत की कथा : जब पांडव अपना सारा राजपाट जुए में हार गए, तब द्रौपदी ने छठ व्रत किया । इससे उसकी मनोकामनाएं पूरी हुई तथा पांडवों को राजपाट वापिस मिल गया। इसके अलावा छठ महापर्व का उल्लेख रामायण काल में भी मिलता है। आज छठ न सिर्फ बिहार और उत्तर प्रदेश बल्कि संपूर्ण भारत में समान हर्षोल्लास के साथ मनाया है।
मार्कण्डेय पुराण में इस बात का उल्लेख मिलता है कि सृष्टि की अधिष्ठात्री प्रकृति देवी ने अपने आप को छह भागों में विभाजित किया है और इनके छठे अंश को सर्वश्रेष्ठ मातृ शक्ति के रूप में जाना जाता है, जो ब्रह्मा जी की मानस पुत्री और बच्चों की रक्षा करने वाली देवी हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को इन्हीं देवी की पूजा की जाती है। शिशु के जन्म के छह दिनों के बाद भी इन्हीं देवी की पूजा करके बच्चे के स्वस्थ, सफल और दीर्घ आयु की प्रार्थना की जाती है, फिर उसकी छठी निकली जाती है। पुराणों में इन्हीं देवी का नाम कात्यायनी मिलता है, जिनकी नवरात्रों की षष्ठी तिथि को पूजा की जाती है। माता सीता ने भी छठ का व्रत रखा था।