सबने दिया प्रेम और भाईचारे का संदेश (विचार प्रवाह)

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The message of love and brotherhood given to everyo

धर्म को लेकर सबसे ज्यादा भ्रम

धर्म को लेकर अक्सर भ्रम की स्थिति बनी रहती है। सभी धर्मों का मूल मंत्र है- प्राणि मात्र के प्रति करुणा, दया, प्रेम, अहिंसा और भाईचारा लेकिन हैरत की बात है कि दुनिया भर में होने वाली हिंसा के पीछे सबसे बड़ा कारण भी धर्म है। आज धार्मिक आधार पर ही सबसे ज्यादा आतंकवादी संगठन काम कर रहे हैं। संगठित रूप से किए जाने वाले सबसे ज्यादा अपराध के पीछे उन्हीं संगठनों का हाथ है। उनकी क्रूरता के समक्ष बड़े-बड़े अपराधियों की भी रूह कांप उठती है। दुखद बात यह है कि इसके बाद भी वे लोग ही खुद को धर्म के ठेकेदार कहते हैं। उनका प्रचार-प्रसार और प्रभाव क्षेत्र भी लगातार बढ़ता जा रहा है। कई बुद्धिजीवी भी उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन देते हैं। वास्तव में ऐसा करने वाले किसी भी रूप में धार्मिक नहीं हो सकते। वे भटके हुए लोग हैं और नहीं जानते कि क्या अनर्थ कर रहे हैं।


सबने दिया प्रेम व भाईचारे का संदेश

राम, कृष्ण, महावीर. बुद्ध, ईसा मसीह, पैगंबर साहब, गुरुनानक आदि सभी ने प्रेम, भाईचारा, सह अस्तित्व एवं मानव मात्र के कल्याण की ही बात कही है। ईश्वर, अल्लाह, गॉड या प्रकृति ने भी मानव में जन्म के समय धर्म-जाति के आधार पर कोई भेद नहीं किया है। सभी इंसान एक ही तरह से पैदा होते हैं, जीवन जीने के लिए भोजन-पानी-सांस समान तरीके से लेते हैं और अंत में सांस थमने से समान रूप से मौत होती है। यदि परमेश्वर उन्हें बांटना चाहते तो जैसे कुत्ते, बिल्ली, पक्षी और इंसान के जन्म व जीवन जीने के तरीके में भेद होता है, उसी तरह का भेद कर देते। लेकिन ऐसा नहीं किया। मतलब साफ है कि कोई धर्म और परमात्मा मानव में कोई भेद नहीं मानता है। यह सारा भेद धर्म के ठेकेदारों का है। दरअसल इसके नाम पर बड़ी संख्या में लोगों की धर्म की दुकानें चलती हैं और इससे उनकी रोजी-रोटी चलती है, इसलिए भ्रम मिटाने के बदले और बढ़ाते हैं।


क्षमता घटी पाखंड बढ़ा

भ्रम का यह क्रम सिर्फ दूसरे धर्मों के प्रति ही नहीं है बल्कि धर्मों के अंदर भी है। हिंदू धर्म की ही बात करें तो वेद को सभी सर्वमान्य और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं लेकिन धर्मगुरुओं की ही पूछें की हमारी दैनिक धार्मिक क्रियाओं में वेद को कितना महत्व मिलता है। वेद में सत्यनारायण भगवान, संतोषी माता, वैभव लक्ष्मी माता आदि की कथा कहां है? श्राद्ध, विवाह आदि का मौजूदा स्वरूप जरा दिखा दें। याद करें कि त्रेतायुग में महाराज दशरथ के निधन के बाद राम-लक्ष्मण ने कब उनका श्राद्ध किया। बाद में माता सीता ने गया में राम के रहते हुए (सिर्फ मौके पर मौजूद न रहने के कारण) खुद अपने ससुर दशरथ का बालू के पिंड से ही बिना किसी ताम-झाम व खर्च के तर्पण कर दिया और दशरथ ने उसे खुद ग्रहण भी किया। वेद को पढ़ें तो पाएंगे कि ऋषियों ने धर्म में आडंबर व जाति प्रथा को कोई स्थान नहीं दिया था। बारिश के देवता इंद्र, जल के देवता वरुण, प्रकाश और गर्मी देने वाले सूर्य आदि ही प्रमुख देवता थे। वास्तव में ऋषियों ने हमें प्रकृति के प्रति प्रेम और श्रद्धा का संदेश दिया था। उन्होंने यह कहा था कि हमें जिससे जीवन में मदद मिलती है, हम उनके प्रति कृतज्ञ हों और उन्हें आहूतियां देकर मजबूत करें, उनका संरक्षण करें तथा उन्हें बढ़ाने का प्रयास करें। जाति का नाम कर्म के आधार पर दिया गया था। एक ही परिवार में ज्ञानी होने पर ब्राह्मण, रक्षा करने वाले को क्षत्रिय, धन का उपार्जन करने वाले को वैश्य एवं सबकी सेवा करने वाले को शूद्र कहा गया था। इसमें घृणा या ऊंच-नीच का भेदभाव नहीं था। सबमें प्रेम, सामंजस्य, कृतज्ञता व परस्पर सहयोग की भावना थी। पौराणिक ग्रंथों में यह भी साफ है कि एक ही ऋषि की एक संतान देवता और दूसरा असुर बने। जाहिर है कि यह भेद जन्म के आधार पर नहीं बल्कि कर्म के आधार पर था। बाद के धर्म गुरु भटक गए। उनसे व्याख्या में चूक हुई और बाद वालों ने तो अनर्थ ही कर दिया।


देवता से क्यों बढ़ी हमारी दूरी

विचार करें कि पहले देवता और मानव के बीच सीधा संवाद होता था। अब वह क्यों नहीं हो पाता है। अब क्यों नहीं पहले की तरह त्रिकालदर्शी पहुंचे हुए ऋषि होते हैं। आज भी गांवों में कुछ बुजुर्ग ऐसे मिल जाते हैं जो तीन से चार पीढ़ी पहले तक आध्यात्मिक क्षमता से युक्त किसी ग्रामीण की कथा सुनाते हैं जो उन्होंने अपने दादा-परदादा से सुनी है। अब ऐसे लोगों की कमी लगातार क्यों हो रही है, यह विचार का विषय है। यह भी विचारणीय है कि क्यों हम मंत्र से अग्नि प्रज्ज्वलित नहीं कर पाते और देवताएं यज्ञ में आहूतियां लेने नहीं आते है। मतलब साफ है कि हमारे धार्मिक कृत्य में भारी खामी है। हम धर्म के नाम पर पाखंड और दिखावे का शिकार हो रहे हैं। ऐसे पाखंडी धर्म गुरुओं के बढ़ते प्रभाव के कारण ही लोग भारी भ्रम के शिकार होकर भटक रहे हैं और मूल मंत्र, उसके उपयोग और खुद की आध्यातमिक क्षमता बढ़ाने से दूर हो रहे हैं।


मंत्र आज भी पहले की तरह प्रभावी

हमारे मंत्रों में आज भी उतनी ही ताकत है। शिव, शक्ति, विष्णु, गायत्री के मंत्रों को सिर्फ थोड़ी देर ध्यान से सुन भर लें तो मन कुछ देर के लिए तनावमुक्त हो जाता है। योग, ध्यान, आसन, मंत्र जाप न सिर्फ स्वस्थ शरीर बल्कि स्वस्थ मन की गारंटी है। जरूरत है तो सिर्फ पाखंडियों के चंगुल से निकल कर किसी जानकार से जुड़कर या स्वतंत्र रूप से भी योग, ध्यान, मंत्र आदि के लिए प्रतिदिन थोड़ी देर समय निकालना। यह प्रयोग वैज्ञानिक रूप से भी सही साबित हो चुका है। महानगरों में कई डॉक्टर भी अब रोग मुक्ति में इसकी सहायता लेने की सिफारिश करने लगे हैं। ओंकार की ताकत अब वैज्ञानिक शोध से भी साबित हो गई है। शांतिकुंज हरिद्वार में वातावरण पर यज्ञ के सकारात्मक प्रभाव पर लगातार सफल शोध हो रहा है। उसे कोई भी जाकर देख सकता है।



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