मेरे मनो-मस्तिष्क में जैसी छवि रामघाट की बसी थी, उसके उलट वहां हमारा पहला मुकाबला नाव वालों से हुआ। घाट के पास पहुंचते ही नाव वाले कुछ इस तरह हम पर टूटे जैसे मधुमक्खियों, ततैया या बर्र का झुण्ड टूटता है। केवल उनकी खींचतान और शोर-शराबा। मुझे ऐसे मुकाबलों से सख्त नफरत है। एक-दो बार मना करने के बावजूद जब उनकी दुकानदारी बंद नहीं हुई तो गुस्सा फूट पड़ा। यार चैन से जीने दोगे या नहीं ? कोई यात्री तुम्हें ग्राहक के अलावा भी कुछ नजर आता है कि नहीं? कौन किस मूड और किस परिस्थिति में आया है, तुम्हें इससे फर्क पड़ता है या नहीं? और न जाने क्या-क्या? थोड़ी सी भीड़ जमा हुई और फिर कोई खास मनोरंजन न पाकर धीरे-धीरे छंट गई। सन्नाटा सा हुआ तो मन को थोड़ी शांति मिली। अकेला पाकर रामघाट की सीढ़ियों पर बैठ गया। शांत होने का प्रयास करने लगा और सोचने भी लगा। आखिर ऐसा हुआ? लोग तीर्थों पर इसलिए जाते रहे होंगे कि कुछ शांति मिल सके; थोड़ा सा स्वयं को भी देखने का अवसर मिल सके। भौतिकवाद और मौज-मस्ती से अलग अपनी आत्मा के नजदीक जाने का अवसर मिल सके। लेकिन कहां से कहां पहुंच गई हमारी सभ्यता और मानसिकता? तीर्थस्थल पिकनिक और मौजमस्ती के स्पॉट बन गए। क्या वाकई धार्मिक आस्था बढ़ी है या धर्म भी मनोरंजन का माध्यम बन गया है। अभी केदारनाथ की त्रासदी भूली नहीं है और प्रकृति का इतना बड़ा और आसान सा पाठ हमारी समझ में नहीं आया है। धार्मिक स्थल सैर-सपाटे के पर्याय बनते जा रहे हैं। सैर सपाटे में कोई बुराई नहीं है, तीर्थयात्रा के पीछे भी यह सोच रही होगी; लेकिन क्या कहीं भी हम अपनी भौतिक समृद्धि और कामना को छोड़कर कुछ गंभीर चिंतन और यात्रा नहीं कर सकते? मैं मानता हूँ कि आबादी के साथ रोजगार की समस्या बढ़ी है और पर्यटन स्थल, चाहे वे तीर्थ ही क्यों न हों, जीविका चलाने में सहायक सिद्ध हो रहे हैं। लेकिन उसका भी एक तरीका होना चाहिए। एक व्यवस्था हो जिसमें इच्छुक व्यक्ति खुद ही इन सुविधाओं का लाभ लेने जाए और बिना किसी मोल-भाव को निश्चित दर पर ईमानदारी से इन सुविधाओं को भोग सके। लेकिन अपने यहां ऐसा नहीं होता। मंदिर के बाहर फूल-माला-प्रसाद वाले भी कुछ ऐसा ही दृश्य उपस्थित करते हैं और रास्ता तक रोक लेते हैं। मुझे कई बार ऐसे आग्रहों से चिढ़ हुई है और बस चिढ़ मैंने मन होते हुए भी फूल-माला नहीं लिया। रामघाट वह जगह है जहां राम अपने वनवास के दिनों में मंदाकिनी में नहाया करते और बैठा करते। इसी लिए इस घाट का नाम रामघाट पड़ा। राम से जुड़ी कई नदियों के घाटों का नाम ‘रामघाट’ है। नासिक में भी गोदावरी के किनारे प्रसिद्ध रामघाट है, जहां बारहवें वर्ष कुंभ का मेला लगता है और आज भी हिंदू पितरों को पिंडदान करते हैं। तब मंदाकिनी और उसका तट बहुत सुन्दर रहा होगा। आज मंदाकिनी गंदा नाला बन चुकी है। अंधेरा हो चुका था। रामघाट बहुत सुन्दर लग रहा था। अधिकांश लोग बोटिंग और दूसरे प्रकार की मस्ती कर रहे थे। मैं राम के वनवास की कल्पना और तत्कालीन परिस्थितियों का अवलोकन कर रहा था। बच्चे अपने में मस्त थे। पत्नी को लगा कि ये कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगे (वे मेरे इस दुर्गुण से परिचित हैं)। मैंने उन्हें भी रामायण काल की चर्चा में शामिल किया और उस अतीत को उन्होंने भी महसूस किया। पर उनका मन भी मंदाकिनी में सजी-सजाई नौकाओं में लगा हुआ था। मैं बचपन से किशोरावस्था तक अपने गांव के पास की बरसाती नदी में नौकायन (उसे मजबूरी या नदी पार करने का एकमात्र साधन कह सकते हैं) का खूब आनंद लिया था। स्कूली बच्चे कभी-कभी नाव को डुबाने की भी कोशिश करते। एक बार हमारी नाव डूब भी गई थी, लेकिन वहां पर गहराई अधिक नहीं थी। मुझे याद है कि जब मैं दसवीं का छात्र था तो अपनी साइकिल समेत नदी में उलट गया था। कई बार विशाल सरयू (घाघरा नदी जो चैड़ाई और वेग में गंगा को भी मात करती है) को नाव से पार किया था। सो, मुझे नौकायन का कोई शौक नहीं है। हाँ, बच्चे ललचा रहे थे। मित्र ज्ञान जी का परिवार इस आनंद को उठाना चाहता था। अकेला पाकर एक नाविक आया और सभ्यता से बात करने लगा और फिर हम नौकायन के लिए मंदाकिनी में उतर गए। नौकायन के बाद हम रामघाट पर उस ओर चले जहाँ गोस्वामी तुलसी दास का एक छोटा सा मंदिर है। तुलसीदास ने रामघाट पर लंबा समय बिताया था। जिस जगह राम ने 12 वर्ष काटे हों, वहां लंबे प्रवास के बिना रामायण पूरी भी कैसे हो सकती थी। छोटे से बुर्जनुमा मंदिर में तुलसीदास की प्रतिमा बड़ी जीवंत लगती है और दीवार पर वह प्रसिद्ध दोहा लिखा है जिससे चित्रकूट की पहचान को अतिरिक्त महत्त्व मिलता है: चित्रकूट के घाट पर भइ संतन की भीर।
तुलसिदास चंदन घिसें, तिलक देत रघुबीर।।
गुप्त गोदावरी के लिए : अगली सुबह हमारा गंतव्य गुप्त गोदावरी की गुफा थी। रामघाट से इसकी दूरी लगभग बीस किमी है और यह मध्य प्रदेश में है। वहाँ जाने के लिए बड़े वाले तिपहिया और टैक्सियाँ मिलती हैं जिसकी जानकारी हमने एक दिन पहले ही ले ली थी। इसी रास्ते में सती अनसूया का मंदिर, स्फटिक शिला और जानकी कुंड है। तिपहिया वाले अक्टूबर 2014 में छह सौ रुपये लेते थे। सुबह हम होटल से निकले तो तिपहिया वालों ने घेरा और हमने एक नई सी गाड़ी देखकर बात तय कर ली। उसने बिठाया और जिधर से (रामघाट गंदे नाले के पुल से जिसके उस पार मध्यप्रदेश है) जाना था, उसके बजाय उल्टा मोड़ा तो हमें मामला खटका। उसका जवाब यह था कि उसका ऑटो यूपी के नंबर का था और पुल पर जो एमपी के ऑटो खड़े रहते हैं, वे नहीं जाने देंगे। अत: वह दूसरे रास्ते से जाएगा। इस बीच उसे दूसरा ऑटो आता दिख गया जो उसी मालिक का था, सो उसने हमें नए वाले में से उतार कर पुराने वाले में बिठा दिया और लंबा रास्ता लेकर न जाने किस सड़क पर आया। वहाँ उसने ड्राइवर को ताकीद की कि आगे जाकर फलाँ पंचर वाले से टायर ले ले नहीं तो रास्ता खराब है और पंचर हो जाने पर दिक्कत होगी। हमें लगा कि वह सवारियों के सुख-दुख का ध्यान रख रहा है। पंचर वाले ने पंचर लगाया नहीं था, सो उसमें लगभग आधा घंटा खराब हुआ। और जनाब हम शहर से बाहर निकले ही थे कि उस अति खराब, अधिकांषत: गड्ढे वाली संकरी सड़क को उसका टायर झेल नहीं पाया और लीजिए साहब फिस्स। जिसका डर वही हुआ। वहां भी आधा घंटा लगा और इन ड्राइवरों के महालालची स्वभाव से उत्पन्न बाधाओं को सहते हुए हम डरे मन से गुप्त गोदावरी की ओर। भगवान न करें कि ऐसी सड़कों पर यात्रा करनी पड़े। महान जीवट के वे टैक्सी ऑटो चालक हैं जो इन सड़कों पर अपने शरीर का भुरता बनवाते हैं। खैर, लगभग बीस किमी की दूरी हम दो घंटे में तय करके गुप्त गोदावरी जा पहुँचे। यह स्थल दर्शनीय है। यहाँ कुल दो गुफाएं हैं जिनमें प्रवेश रोमांचित करता है। गुफा में प्रवेश हेतु दस रुपये शुल्क था जिसका भुगतान करके हम अंदर गए। गुफा नंबर एक को राम दरबार के नाम से भी जाना जाता है। इसमें श्रीराम प्रमुख ऋषियों – मुनियों से मिलते और गंभीर चर्चा किया करते थे। इस गुफा में कई शाखाएं हैं और प्राकृतिक नक्काशी मन को बांध लेती है। इसी गुफा के एक हिस्से में वह स्थल है जहाँ सीता जी का वस्त्र चुराने वाले राक्षस को लक्ष्मण ने मारकर उल्टा लटका दिया था। वह वस्त्र सती अनुसूया ने सीता जी को भेंट में दिया था। कहा जाता है कि श्रीराम से मिलने दक्षिण की गंगा कही जाने वाली गोदावरी उनसे मिलने हेतु यहां प्रकट हुई थी। गुफा संख्या दो में घुटनों से ऊपर तक बहता हुआ जल भरा रहता था। यह जल गुफा अंदर पत्थरों में से स्वत: उत्स्रुत कूप की भांति निकलता रहता है। जनश्रुति के अनुसार गोदावरी की एक धारा नाशिक से अंदर ही अंदर प्रवाहित होती हुई यहाँ पत्थरों को तोड़कर बाहर निकलती है और तब से लगातार प्रवाहित हो रही है। नाशिक में गोदावरी का उद्गम स्थल देखने का मुझे अवसर मिला था। जब मैं दूसरी बार त्रयम्बकेश्वर दर्शन करने गया था तो गोदावरी के उद्गम स्थल तक की लंबी चढ़ाई चढ़कर हम वहाँ गए थे और गोदावरी को कई जगहों से प्रकट होते हुए देखा था। इस स्थल पर गोदावरी को भगवान राम ने वचन दिया था कि वे उससे मिलने अवश्य आएंगे और सीता हरण से पूर्व वनवास के अंतिम दो वर्ष वे गोदावरी और कपिला नदी के संगम पर ही पर्णकुटी बनाकर रहे थे। नाशिक शहर में भी रामघाट एक पवित्र स्थल है जहां कुंभ का मेला लगता है और लोग अपने पितरों का तर्पण करते हैं। इस जल से भरी गुफा में चलना काफी अच्छा लग रहा था। गुफा में जब-तब भीड़ अधिक हो जाती है क्योंकि बाहर से कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है कि दर्शनर्थियों को क्षमतानुसार रोककर भेजा जाए। एक बार लगा कि इसमें कभी कोई हादसा हो सकता है। लेकिन जब तक हादसा हो न जाए, हम एहतियात बरतते कहाँ हैं? चित्रकूट में आकर यह पहली जगह मिली थी जहाँ हमें एक सुंदर प्रकृति के दर्शन हुए थे। यहाँ का वातावरण मनोहारी था और पहली बार पर्यटन का आनंद मिलता हुआ महसूस हुआ था। दोपहर हो आई थी और हमें भूख लगने लगी थी। यहाँ के अधिकांश ढाबों में लकड़ी पर खाना बनता है और यह देखकर हमारी लालच कुछ और बढ़ गई। सो, निश्चित हुआ कि भोजन कर लिया जाए। सती अनुसूया का आश्रम देखकर चित्रकूट पहुंचते-पहुंचते तीन बज जाएगा और भोजन का समय निकल जाएगा। लेकिन जितना देखने में लग रहा था, भोजन उतना अच्छा नहीं निकला और न ढाबे वाले की सेवा ही सराहनीय रही। कुल मिलाकर भोजन हो गया। हमारा ऑटो वाला बेचैन हो रहा था। हम ऑटो में सवार हुए और सती अनुसूया आश्रम के लिए चल पड़े। उस बिगड़ैल रास्ते पर भी ऑटो वाले रेलम-पेल मचाए हुए थे। एक जगह सामने गलत तरीके से आ रहे ऑटो से टक्कर होते-होते बची और हम सती अनसूया के आश्रम पहुंच गए। बीच का रास्ता घने जंगल से होकर जाता है और प्रकृति का सानिध्य मिल जाता है।
सती अनसूया का आश्रम: यह आश्रम प्राकृतिक रूप से समृद्ध है। यह आज की स्थिति है। त्रेताकाल में यह स्थान और भी सुंदर रहा होगा। हमारे ऋषि -मुनि अपनी ज्ञान साधना में किसी प्रकार की टोका-टाकी नहीं चाहते थे और प्रकृति के साहचर्य में रहकर ऊर्जा प्राप्त करते रहना चाहते थे, सो उन्होंने ऐसे स्थलों को चुना और उसे अपने तप से पावन और रमणीय बनाया। इस स्थल पर बने परमहंस आश्रम की पृष्ठभूमि में ऊँचा पर्वत और सम्मुख मंदाकिनी की मंद और निर्मल धारा के उस पार सघन वन वातावरण को आध्यात्मिक बना रहे थे। परमहंस आश्रम की भव्यता और उसके अंदर की झांकियाँ हमारी पहुँच को सार्थक कर रहे थे। इसमें अनसूया का त्रिदेवों को अबोध बालक बनाना और सीता को सतीत्व का उपदेश देना प्रमुुख है जिसे लोग बड़ी श्रद्धा से देखते हैं। सती अनसूया अपने पति अत्रि मुनि के साथ यहाँ चिरकाल तक निवास करती रहीं और सीता को उपदेश, आशीष और उपहार स्वरूप वस्त्राभूषण दिया था। रामचरित मानस के अनुसार चित्रकूट में मंदाकिनी का अवतरण सती अनसूया के तप से हुआ था। ऋषियों-मुनियों की सुविधा तथा वन्य पशुओं की प्यार बुझाने हेतु एक जलस्रोत की आवश्यकता थी और उस आवश्यकता को सती अनसूया ने अपनी कठिन साधना से पूरा किया। गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं – नदी पुनीत पुरान बखानी। अत्रि प्रिया निज तपबल आनी।
सुरसरि धार नाम मंदाकिनि। जो सब पातक पोतक डाकिनि। वाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड के उनसठवें सर्ग में मंदाकिनी का अप्रतिम वर्णन मिलता है। श्रीराम मंदाकिनी को सरयू के समान पवित्र और पापहारी मानते हैं तथा सीता से आग्रह करते हैं कि वे भी उनके (राम के) साथ मंदाकिनी में स्नान करें- विधूतकल्मशै: सिद्धैस्तपोदमष्मान्वितै: ।
नित्यविक्षोभितजलां विगाहस्व मया सह।। आज यह मंदाकिनी शायद अपने जन्म को रो रही होगी। नदी तो दूर, आश्रम की पवित्रता का ध्यान किए बिना भी लोग मल-मूत्र से लेकर हर प्रकार की गंदगी इसके आँचल में डालते रहते हैं। पता नहीं क्या होगा ऐसी सोच वाले लोंगो का और देश का। कहने के लिए धर्म हमारा प्राण है। हम सबसे बड़े धार्मिक देश के निवासी हैं जहाँ ईश्वर ने एक नहीं, दस अवतार लिए हैं। इसका उद्गम आश्रम से कुछ ही दूर घने जंगल में है और हमें समयाभाव और खतरा मोल न ले पाने की स्थिति के कारण इसका उद्गम देखे बिना ही चलना पड़ा। हाँ, आश्रम के ठीक ऊपर सती अनसूया का प्राचीन मंदिर और कुछ अन्य अवशेष देखना हम नहीं भूले। पूरी तरह आश्रम देख और महसूस कर लेने के बाद हम पुन: ऑटो में सवार हुए और चित्रकूट की ओर वापस।