उन्नति की पहली सीढ़ी है भूल स्वीकार करना

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उन्नति की पहली सीढ़ी है भूल स्वीकार करना (अंतिम भाग)
उन्नति की पहली सीढ़ी है भूल स्वीकार करना (अंतिम भाग)
The first step to progress is to accept mistakes : उन्नति की पहली सीढ़ी है भूल स्वीकार करना। आप अपने एक अपराध को स्वीकार करते हैं तो उन्नति पथ पर एक साथ कई कदम आगे बढ़ जाते हैं। साधनों को दोष देते रहना मूर्खता है। इसे इस तरह से समझें। किसी अपराधी को कैद का दंड देने वाला जज (व्यक्ति) नहीं होता है। दंड दिलाने वाला उसका कुकृत्य होता है। संसार में पाप नाना प्रकार के मनोहर रूप धारण कर मनुष्यों के चित्त को विकृत करने का प्रयत्न करते हैं। उन्हें अपने हृदय में स्थान देना या न देना मनुष्य के हाथ में है। जिस प्रकार भूतों का भय दृढ़ चित्त मनुष्यों के हृदय में फटक भी नहीं पाता, उसी प्रकार सच्चरित्र मनुष्यों के पास आने में पाप-वासनाओं को भी डर लगता है। लालच उसी के लिए है जो लालची है। निर्लोभी को वह फंसा नहीं सकता है।

वासनाओं को दोष न दें, चित्त को शुद्ध करें

वासनाओं को धिक्कारना और दोष देना निरर्थक है। उसकी निंदा करने और धिक्कारने से आप उसके अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। साथ ही यह भी अंतःकरण में मानते हैं कि वह आप पर हावी है। इस तरह से तो उससे छुटकारा पाना असंभव है। वह है इसमें कोई संदेह नहीं। वह रहेगा भी। मनुष्य को उसी के बीच में रहकर चित्त वृत्तियों को शुद्ध करना है। उससे अप्रभावित रहने का भाव जगाना है। यही उपयुक्त मार्ग है। विचार करें कि ब्रह्मांड में पाप-समूह का अस्तित्व क्यों बनाया गया है? उसकी संसार में क्या आवश्यकता थी? भोले-भाले शुद्ध-हृदय मनुष्य को ठगना और उसे चक्कर में फंसाना। उसे दंड का पात्र ठहराना दुष्टों का माया-पूर्ण षड्यंत्र लगता है। एक दृष्टि से देखें तो यह सत्य प्रतीत होता है। लेकिन आध्यात्मिक रूप से देखें तो इसका दूसरा पहलू भी है।

उन्नति की पहली सीढ़ी को जानें

उन्नति की पहली सीढ़ी है परीक्षा। बहुधा भय-पूर्ण स्थलों का उपयोग पदार्थों की परीक्षा करने के लिए किया जाता है। सोने की परीक्षा करने के लिए कसौटी की आवश्यकता होती है। इसी भांति मनुष्य के हृदय की परीक्षा करने के लिए ही पाप-वासनाएं संसार में विद्यमान हैं। जब तक किसी के सामने कोई रुपयों या जेवरात की थैली चुपचाप लाकर न रख दे तब तक वह लोभी है अथवा निर्लोभी, इसकी परीक्षा कैसे संभव है? यदि पाप न होते तो संसार में महात्मा और दुष्टों की पहचान कैसे होती? अतएव छल, अभिमान, माया, मोह इत्यादि से घेरे जाने पर अपने लिए असमर्थ मान कर उन्हें दोष देना मानो उन्नति के मार्ग से हटना है। हर व्यक्ति जानता है कि वासनाओं की तपस्या कितनी कठिन है। कई बड़े ऋषि-मुनि, संत-महात्मा, विद्वानों के भी काम और क्रोध की चपेट में आने की घटनाएं सुनने को मिल जाती हैं।

सच्चे ज्ञान से ही आत्मोन्नति संभव

सत्य यह है कि केवल आत्मज्ञान से आत्मोन्नति संभव है। जानना और काम को कर दिखाना ये दो बातें हैं। काम-वासना को ही लीजिए पुराणों की तिलोत्तमा द्वारा ब्रह्माजी के तपो-भ्रष्ट होने की बात सभी को विदित है। दिव्य तप करने वाला विश्वामित्र सरीखे ऋषि भी जिस काम-वासना को विजय न कर सके उसकी जलन का क्या ठिकाना है? वासनाओं के अवगुणों और बुरे फलों की विवेचना और मनन करने के लिए यदि मनुष्य नित्य कोई विशेष समय नियत कर ले तो उसकी नैतिक उन्नति शीघ्र हो सकती है। प्रत्येक धर्म में अपने दिन भर के कार्यों पर विचार करने के लिए सोने के ठीक पूर्व का समय निश्चित करने का उपदेश दिया गया है। उसका अभिप्राय यही है कि मनुष्य अपने नैतिक चरित्र की संभाल उसी भांति कर लिया करे जैसे कि वह अपने दैनिक आय-व्यय का किया करता है।

समाप्त।

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