वसंत पंचमी : सारस्वत कल्प करें मां सरस्वती के साथ

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वेद में वर्णित देवियों से सबसे महत्वपूर्ण हैं माता सरस्वती। एक तरह से इन्हें वैदिक काल की भी प्रमुख देवी कह सकते हैं। इनकी साधना अत्यंत सुखद फल देने वाली होती है। ज्ञान के अभाव में इन दिनों सरस्वती पूजन की जिन विधियों का प्रयोग किया जा रहा है, उनमें शास्त्रीय तत्व कम और आडंबर ज्यादा है, इसलिए भक्तों को उचित फल नहीं मिल पाता है। इस लेख में माता सरस्वती के मंत्रों व पूजन विधि की संक्षिप्त जानकारी दी गई है। इनका उपयोग कर साधक मनवांछित फल प्राप्त कर सकते हैं। ध्यान रहे कि माता सरस्वती विद्या की देवी तो है लेकिन उनकी साधना से हर तरह का फल पाना संभव है। इस लेख में शुरुआत माता के पूजन की उस विधि से कर रहा हूं जिसे ब्रह्मा ने भगवान विष्णु से सुनकर नारद को बताया था। पेश है मुख्य अंश।


नारद ने ब्रह्मा से पूछा-किस उपाय से विद्या की उत्पत्ति होती है और वेदांत का प्रकाश होता है। ब्रह्मा जी ने कहा कि यही प्रश्न कल्पारंभ में मैंने भगवान विष्णु से पूछा था। उन्होंने बताया कि सारस्वत कल्प के जानने मात्र से जड़ता दूर होकर सब शास्त्रों का ज्ञान प्राप्त होता है। उसे आशु संर्वज्ञता मिलती है और विचित्र वाक्य रचना की शक्ति प्राप्त होती है। इसी सारस्वत कल्प के प्रभाव से देव गण सबके पूज्य, ब्रहस्पति, वागीश और दंपायन वेद व्यास हुए।


आकार एकार में संधि करने से जो वर्ण बनता है, उसमें विंदु देने से ऐं सारस्वत मंत्र होता है। इस मंत्र का 12 लाख जप करने से गूंगा व्यक्ति भी वाक्पति बनता है।

अपनी नाभि में दश दल कमल का ध्यान कर उसके मध्य में सुशोभित सूर्यमंडल, चंद्रमंडल और वह्नि मंडल की भावना करें। इन मंडलों के मध्य में ज्योत्सना मय रत्न सिंहासन का ध्यान कर उस पर वागीश्वरी देवी का ध्यान करें।


यथा-

मुक्ता कांति निभां देवीं, ज्योत्सना जाल विकासिनीम्।

मुक्ता हार युतां शुभ्रां, शशि खंड विमण्डिताम्।।

विभ्रतीं दक्ष हस्ताभ्यां, व्याह्यां वर्मस्य मालिकाम्।

अमृचेन तथा पूर्णं, घटं दिव्यं च पुस्तकम्।।

दघतीं वाम हस्ताभ्यां, पीन स्तन मरान्विताम्।

मध्ये क्षीणां तथा स्वच्छां, नाना रत्न विभूषिताम्।।

अर्थात–देवी का देह कांति मुक्ता की चमक के समान उज्ज्वल ज्योत्सना जैसा है। उससे प्रकाश निकल रहा है। वे मोतियों के हार से विभूषित हैं। वे शुभ्र वर्णा हैं और अर्द्धचंद्र से शोभायमान हैं। वागीश्वरी देवी चतुर्भुजा हैं। दायीं ओर के दोनों हाथों में से एक में व्याख्या मुद्रा और दूसरे में वर्णमाला है। बाएं दोनों हाथों में से एक में अमृतपूर्ण कुंभ और दूसरे में पुस्तक हैं। कमर क्षीण और दोनों स्तन स्थूल हैं जिसके भार से देवी विनम्र हैं। वे विविध रत्नाभूषणों से सुशोभित हैं। इस प्रकार आत्मा से अभिन्न भाव में वागीश्वरी देवी का ध्यान कर क्रम पूर्वक उनकी पूजा करें। आं अंगुष्टाभ्यां नमः, ईं तर्जनीभ्यां स्वाहाः इत्यादि क्रम से करन्यास और आं हृदयाय नमः आदि क्रम से षडंगन्यास करें। फिर भ्रू मध्य, नाभि, गुह्य, देश और वस्ति मेंबीज न्यास कर व्यापक न्यास करें। तब देवता भाव के सिद्ध्यर्थ अपने शरीर में पीठ न्यास कर पूर्वोक्त मातृकाओं की पीठ पूजा करें। फिर वर्ण पद्मासनाय नमः से आसन देकर मूल मंत्र में देवी की मूर्ति की भावना तर आवाहन पूर्वक वागीश्वरी देवी की पूजा करें।


आं हृदयाय नमः इत्यादि षडंग मंत्रों से प्रथम आवरण पूजा समाप्त कर शक्ति वर्ग द्वारा द्वितीय आवरण पूजा करें। पद्म दलों के अग्र भाग में यथा विधि ब्रह्माणी आदि शक्तियों की पूजा करें। फिर उनके बाहर लोकपालों की और उनके बाहर उनके अस्त्रों की पूजा करें। 12 लाख मंत्र जप करने से वक्तृता शक्ति और कवित्व शक्ति प्राप्त होती है। प्रातःकाल उक्त मंत्र का एक हजार जप कर ब्राह्मी रस और वच का पान करने से मेगा शक्ति बढ़ती है। कंठ में श्रुति, वेद, आगमादि विराजमान हो जाते हैं और कभी उनकी विस्मृति नहीं होती।


रात्रि समाप्त होने पर उठकर पवित्र भाव से एकाग्र होकर आत्मा को गुरु रूप में ध्यान कर यह भावना करें कि सारा संसार उनके तेज से व्याप्त है। फिर मूलाधार में स्थित पर देवता स्वरूपा सोई हुई कुंडलिनी देवी को जगाकर क्रमशः षट चक्र को भेदन कर परम शिव के पास लाकर उसे सहस्रार स्थित सुधा प्रदान करें। इसके बाद ऊर्ध्व ग्रंति का भेदन कर दीप स्वरूपा बीज रूपिणी अपनी शक्ति से देदीप्यमाना शब्द ब्रह्मा स्वरूपा कुल कुंडलिनी देवी को परम शिव के साथ निश्चल भाव से संलग्न ध्यान करें और यह भावना करें कि उस देवी की देह की प्रभा से अपनी शरीर व्याप्त है। इस अनुष्ठान कर एक वर्ष तक प्रतिदिन उक्त वागीश्वरी मंत्र का प्रतिदिन एक सहस्र जप करने से साधक दूसरे बृहस्पति के समान होकर छंद, अलंकार और तर्कादि विविध शास्त्रों की मीमांसा करने में दक्ष होता है। वह ज्ञान व शक्ति के साथ कवित्व और सब शास्त्रों का पांडित्य प्राप्त करता है।


अन्य प्रयोग यह है कि अपने नाभि चक्र में सौम्य मूर्ति वाली लोहित वर्णा पटवस्त्र धारिणी रक्तालंकार भूषिता पाशांकुश धारिणी दिव्य रूपा वराभय युक्ता अपनी दृष्टि से अमृत वर्षा करने वाली देवी साधक के मनोरथों को पूर्ण करती हैं।

नाभि चक्रे स्थितां सौम्यां, रक्ताकारां विचिन्तयेत्।

क्षौमाबद्ध नितम्बां च, रक्ताभरण भूषिताम्।।

पाशांकुश धरां दिव्यां, वराभय युतां पुनः ।

दृष्ट्या चामृत वर्षिण्या, पूरयन्तीं मनोरथाम्।।

उक्त प्रकार ध्यान कर मंत्र का एक लाख जप करें। फिर त्रि मधु मिश्रित रक्तोत्पल से एक लाख होम कर दुग्ध युक्त घृत से देवी का तर्पण कर मधु मिस्रित दही, पिष्टक और पायस की बलि प्रदान करें। इस प्रकार उपासना करने से साधक साक्षात कुबेर के समान होता है। उक्त मंत्र के अंत में त्रि मधु मिश्रित श्वेत सरसों से हवन करने से तीनों जगत वशीभूत होते हैं और पद्म से हवन करने से अपार संपत्ति की प्राप्ति होती है। इस विद्या की उपासना करने से साधक को त्रिलोक में कुछ भी दुष्प्राप्य नहीं रहता। इस मंत्र को सिद्ध करने वाला व्यक्ति यदि किसी मूर्ख व्यक्ति के सिर पर हाथ रखकर उक्त मंत्र का जप करे तो वह मूर्ख भी पंडित के समान गद्य-पद्य मय वाणी बोलने लगता है।


शुभ मुहूर्त और पूजन विधि

हर वर्ष माघ मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को सरस्वती पूजा के रूप में भी मनाया जाता है। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मांड की हर तरह की विद्या की देवी सरस्वती ने मनुष्य के जीवन में प्रवेश किया था। अत: इस दिन मां की पूजा करने से वह प्रसन्न होती हैं।


2019 में पूजा का शुभ मुहूर्त

सुबह 7.15 बजे से दोपहर 12.52 बजे तक.

पंचमी तिथि प्रारंभ : माघ शुक्ल पंचमी शनिवार 9 फरवरी की दोपहर 12.25 बजे से।

तिथि समाप्त : रविवार 10 फरवरी को दोपहर 2.08 बजे तक।


पूजा विधि-

पंचमी को सुबह स्नान करके पीले या सफेद वस्त्र धारण करें। फिर मां की प्रतिमा या फोटो उत्तर-पूर्व दिशा में स्थापित करें। उन्हें सफेद चंदन, पीले और सफेद फूल अर्पित करें। उसके बाद उनका ध्यान कर ऊं ऐं सरस्वत्यै नम: मंत्र का 108 बार जाप करें.


 

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