Wealth and knowledge increase by sharing, if not used, it is useless : बांटने से बढ़ता है धन और ज्ञान, उपयोग न हो तो बेकार। इस पर एक कंजूस सेठ और पहुंचे हुए महात्मा की प्रेरक कथा है। इसमें धन और वस्तु के उपयोग की अच्छी व्याख्या की गई है। बताया गया है कि बिना उपयोग के ये बेकार हैं। महात्मा कंजूसरने बहुत सरल और अच्छे उदाहरण से कंजूस सेठ को सच्चाई से अवगत करा दिया। इसके बाद उसका जीवन बदल गया। ज्ञान के साथ भी यही होता है। इसे जितना बांटे, मेहंदी की तरह आपके हाथों को रंगीन और सुंदर बना देता है। अब पढ़ें कंजूस सेठ धर्मदास की कथा और स्वयं अनुभव करें कि धर्म और ज्ञान का मर्म क्या है।
कंजूस सेठ और महात्मा की कथा
एक राज्य में धर्मदास नाम का बहुत बड़ा सेठ रहता था। वह बातें तो बड़ी और अच्छी-अच्छी करता था पर था एकदम कंजूस। द्वार पर आए भिखारियों को भोजन या पैसे देना दूर पानी तक के लिए नहीं पूछता था। साधु-संतों और भिखारियों को देखकर मानो उसके प्राण ही सूख जाते थे। कि कहीं कोई कुछ मांग न बैठे। इतना कंजूस होने के बाद भी चिकनी-चुपड़ी व लच्छेदार बातों से उसने अपनी छवि राज्य में अच्छी बना रखी थी। यह बात एक पहुंचे हुए महात्मा को पता लगी तो वे उसे सुधारने के लिए आ गए। वे उसके दरवाजे पर पहुंचे और एक रोटी मांगी। पहले तो धर्मदास ने महात्मा को कुछ भी देने से मना कर दिया, लेकिन जब वह चुपचाप वहीं खड़ा रहा तो उसे आधी रोटी देने लगा। आधी रोटी देखकर महात्मा ने कहा कि अब तो मैं आधी रोटी नहीं पेट भरकर खाना खाऊंगा।
सेठ और महात्मा में ठन गई
इस पर धर्मदास ने कहा कि अब वह कुछ नहीं देगा। महात्मा ने उसे समझाया कि बांटने से बढ़ता है धन। इसलिए देने में संकोच नहीं करे। लेकिन धर्मदास अड़ गया। तब महात्मा भी रात भर चुपचाप भूखे-प्यासे उसके दरवाजे पर खड़े रहे। सुबह धर्मदास ने महात्मा को अपने दरवाजे पर खड़ा देखा तो सोचा कि अगर मैंने इसे भरपेट खाना नहीं खिलाया और यह भूख-प्यास से यहीं पर मर गया तो मेरी बड़ी बदनामी होगी। ऊपर से बिना कारण साधु की हत्या का दोष लगेगा। उसने महात्मा से कहा कि बाबा तुम भी क्या याद करोगे, आओ पेट भरकर खाना खा लो। महात्मा भी ऐसे-वैसे नहीं थे। उन्होंने कहा कि अब मुझे खाना नहीं खाना। मुझे तो एक कुआं खुदवा दो। ‘लो अब कुआं बीच में कहां से आ गया’ धर्मदास भड़क कर बोला। उसने कुआं खुदवाने से साफ मना कर दिया।
धर्मदास ने घुटने टेके, मांग मानी
अगले दिन और रात भी भूखे-प्यासे धर्मदास के दरवाजे पर महात्मा खड़े रहे। सुबह जब धर्मदास ने उन्हें दरवाजे पर खड़ा पाया तो सोचा कि यदि मैंने कुआं नहीं खुदवाया तो यह भूखा-प्यास मर जाएगा। तब मेरी बदनामी होगी। संभव है कि राजा दंड भी दे। उसने सोच-विचार कर महात्मा से कहा कि बाबा मैं एक कुआं खुदवा देता हूं। अब इससे आगे कुछ नहीं बोलना। महात्मा ने फिर पलटी मारी। कहा- ‘अब तो दो कुएं खुदवाने पड़ेंगे’। महात्मा की फरमाइशें बढ़ती ही जा रही थीं। धर्मदास कंजूस था लेकिन बेवकूफ नहीं। उसने सोचा कि मैंने अभी दो कुएं खुदवाने से मना कर दिया तो यह चार की बात करने लगेगा। इसलिए उसने चुपचाप दो कुएं खुदवाने में ही भलाई समझी। कुएं खुदकर तैयार हुए। उनमें पानी भर गया तो महात्मा ने धर्मदास से कहा, ‘दो में से एक मैं तुम्हें देता हूं और एक अपने पास रखता हूं।
सटीक उदाहरण से दी शिक्षा
महात्मा ने दी बांटने से बढ़ता है धन की शिक्षा। उन्होंने धर्मदास से कहा कि मैं कुछ दिनों के लिए कहीं जा रहा हूं। ध्यान रहे मेरे कुएं से तुम्हें एक बूंद पानी नहीं निकालना है। साथ ही अपने कुएं से सब गांव वाले को रोज पानी निकालने देना है। मैं वापस आकर अपने कुएं के पानी पीकर प्यास बुझाऊंगा।’ धर्मदास ने महात्मा वाले कुएं के मुंह पर एक मजबूत ढक्कन लगवा दिया। सब गांव वाले रोज धर्मदास वाले कुएं से पानी भरने लगे। लोग खूब पानी निकालते पर कुएं में पानी कम न होता। शुद्ध-शीतल जल पाकर गांव वाले तृप्त हो गए थे। लोग धर्मदास और महात्मा जी का गुणगान करते न थकते थे। एक वर्ष के बाद महात्मा गांव में आये और बोले कि उनका कुआं खोल दिया जाये। धर्मदास ने कुएं का ढक्कन हटवा दिया। यह क्या कुएं में एक बूंद भी पानी नहीं था।
कहा- बांटने से बढ़ता है धन और ज्ञान
महात्मा ने कहा, ‘कुएं से कितना भी पानी क्यों न निकाला जाए वह कभी खत्म नहीं होता। अपितु वह बढ़ता जाता है। पानी नहीं निकालने पर कुआं सूख जाता है इसका स्पष्ट प्रमाण तुम्हारे सामने है। उन्होंने कहा कि यदि किसी कारण से कुएं का पानी न निकालने पर पानी नहीं भी सूखेगा तो वह सड़ अवश्य जाएगा। तब किसी के काम में नहीं आएगा।’ उन्होंने कहा, ‘कुएं के पानी की तरह ही धन और ज्ञान की भी तीन गति होती है। उपयोग, नाश और दुरुपयोग। धन और ज्ञान का जितना प्रयोग करोगे वह उतना ही बढ़ेगा। प्रयोग नहीं करने पर कुएं के पानी की वह बेकार हो जाएगा। अतः धन -और ज्ञान का समय रहते सदुपयोग करना अनिवार्य है।’ धर्मदास ने कहा, ‘गुरुजी आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। मुझे अपनी गलती का अहसास हो गया है।’ मैं अब अपना जीवन जनकल्याण में लगा दूंगा।
संदर्भ- प्रेरक प्रसंग, भारतीय लोक कथा।
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