एक बहुत बड़े साधक थे। उनके पास एक व्यक्ति आया और उनसे आग्रह किया कि आप मुझे अपना शिष्य बना लीजिये और मुझे धर्म की दीक्षा दीजिए। साधक ने कहा -ठीक है, पर तुम्हें कुछ समय धैर्यपूर्वक मेरे साथ रहकर मेरी सेवा करनी होगी। व्यक्ति तैयार हो गया और साधक के साथ रहते मनोयोग से सेवा करने लगा। देखते-देखते चार वर्ष बीत गए लेकिन उसे साधक ने कुछ भी नहीं बताया। ऐसे ही रखा। चार वर्ष पूरे होने के बाद साधक ने कहा -अभी तक तुम दीक्षा देने लायक नहीं सके हो। इसी तरह सेवा करते रहो, शायद अगले चार वर्षों के बाद तुम दीक्षा पाने लायक बन जाओगे। वह व्यक्ति पुनः मनोयोग से साधक की सेवा करने लगा। जब पुनः चार वर्ष पूरे हो गए, तब साधक ने उसे अपने पास बुलाया और एक बक्सा देते हुए कहा कि नदी के पार मेरा एक मित्र रहता है। उसे यह दे आओ। वह तुम्हें परख कर पात्र होने पर दीक्षा दे देगा। व्यक्ति बक्सा लेकर चला लेकिन रास्ते में उसने सोचा कि आखिर इस बक्सा में क्या है? इसे खोल कर देखा जाए। तभी विवेक ने उसे आगाह किया कि यह गलत है, उसे दूसरे की अमानत नहीं देखनी चाहिए, पर वह अपने मन को काबू मे नहीं रख सका और बक्सा खोला दिया। बक्सा के खुलते ही उसमें से एक चूहा निकलकर भागा उसने सोचा -कोई बात नहीं। चूहा ही तो था, भाग गया। उसने बक्से को बंद किया और नदी पार साधक के मित्र को दे दिया और दीजिए करने की प्रार्थना की। साधक के मित्र ने जब बक्सा खोला तो उसे खाली पाया। मित्र भी पहुंचे साधक थे। उन्होंने उस व्यक्ति से कहा -तुम्हें धर्म की दीक्षा अभी नहीं मिलेगी। ‘क्यों नहीं मिलेगी ? मुझमे धर्म को जानने की प्रबल इच्छा है और मैंने इसके लिए समर्पित भाव से सेवा की है। साधक के मित्र ने कहा – अभी तुम्हारा आत्मसंयम सधा नहीं है। तुमने बक्सा खोल कर देखा, उसमे चूहा था जो भाग निकला। जो व्यक्ति एक चूहे की रक्षा नहीं कर सकता, वह भला आत्मा की रक्षा कैसे कर पाएगा ? पहले तुम आत्मसंयम करो। इसके बाद तुम दीक्षा लेने के योग्य पात्र हो सकोगे और तभी तुम्हें उसका फायदा मिल सकेगा। व्यक्ति को सही मर्म समझ में आ गया।