भूल स्वीकार करना व्यक्तित्व विकास की पहली सीढ़ी

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वृक्षों का महत्त्व।
वृक्षों का महत्त्व ।

Accepting mistake is the first step in personality development : भूल स्वीकार करना व्यक्तित्व विकास की पहली सीढ़ी। यह मात्र दैनिक जीवन में ही नहीं, आध्यात्मिक मार्ग के लिए भी आवश्यक है। इसके बिना मनुष्य का उत्थान संभव नहीं है। भूल करना मानव की सहज वृत्ति है। वह काम करेगा तो भूल भी होगी। सच्चा मनुष्य उस भूल को स्वीकार करता है, तभी वह उसे सुधार पाता है। जो भूल स्वीकार नहीं करेगा, उससे किसी सुधार की आशा करना भी व्यर्थ है। ऐसा व्यक्ति किसी कार्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सकती है। क्योंकि वह हर असफलता के लिए नित नए बहाने बनाएगा। ये बहाने दूसरे की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश होगी लेकिन वस्तुतः उसी के मार्ग की बाधा बन जाएगा। इस बारे में एक रोचक और प्रासंगिक कथा है। यह एक चोर और न्यायाधीश की कथा है। इसे पढ़ें और इसके संदेश को समझें।

चोर के कुतर्क पर जज ने दी अनोखी सजा

किसी समय एक चोर चोरी करते पकड़ा गया। उसे सजा के लिए न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। उसने न्यायाधीश के समक्ष सफाई देते हुए कहा कि हुजूर मैंने चोरी तो अवश्य की है, परंतु सच्चा अपराधी मैं नहीं हूं। मेरे पड़ोसी ने अपने सोने का चमकदार कड़ा दिखाकर मेरे मन को मोहित कर लिया। उसने मुझे उसको चुरा लेने के लिए विवश कर दिया। अतएव सच्चा अपराधी वही है। सजा उसी को मिलनी चाहिए। अपराधी की ये बातें सुनकर जज साहब को उसकी युक्ति पर हंसी आ गई। उन्होंने अपराधी को एकांतवास की सजा सुनाई। उन्होंने कहा कि तुम्हारी बातों से सिद्ध होता है कि तुम्हारी समस्या का कारण लोग हैं। अतः तुम्हें उनसे दूर किया जा रहा है। अब तुम एकांतवास में रहोगे। ऐसे में तुम्हारा मन लुभाने के लिए कोई मनुष्य तुम्हारे सामने नहीं आएगा।

भूल स्वाभाविक, उसे स्वीकार करना सीखें

अधिकतर मनुष्य ऐसे ही होते हैं। भूल स्वीकार करना व्यक्तित्व विकास की पहली सीढ़ी के मंत्र को नहीं जानते हैं। वे अपनी हर भूल के लिए नित्य इसी प्रकार के कुतर्कों का उपयोग करते हैं। अमुक मनुष्य मेरे कार्य में बाधा डालता है। अमुक ने मुझसे ऐसी बात कही जिससे मुझे क्रोध आ गया। चार आदमियों में बैठते हैं तो लाचार होकर ऐसा काम करना ही पड़ता है। ऐसी बातें अपने दोषों को दूसरों के सिर मढ़ने का प्रयत्न नहीं तो क्या हैं? यदि वास्तव में हर क्षेत्र में सफल होना चाहते हैं तो कोई भूल हो तो उसे स्वीकार करने में आनाकानी न करें। ऐसा करने का अर्थ है कि आप उस भूल को स्वीकार कर रहे हैं। अर्थात- आप भविष्य में ऐसा न करने का संकल्प ले रहे हैं। नैतिक उन्नति की सबसे पहली सीढ़ी यही है कि मनुष्य अपने अपराधों को समझने और स्वीकार करने लगे।

गलती स्वीकार न करने का अर्थ उसे फिर दोहराना

अधिकतर मनुष्य एक के बाद एक गलतियां करते रहते हैं। उन्हें पता नहीं होता कि ये कार्य वास्तव में बुरे हैं। जिस समय चोर चोरी को बुरा समझेगा, उसी समय से जान लो कि वह रास्ते पर आ रहा है। परंतु यह मन की इच्छा से होना चाहिए। दबाव में अथवा किसी की हां में हां मिलाने के अभिप्राय से करने पर कोई फायदा नहीं होगा। इससे तो हानि ही होती है। गलत कार्य से घृणा होने की बात तो दूर रही, ऐसा करने से तो उसने अपने आपको ही ठगा कहना चाहिए। प्रवंचना अथवा मायाजाल इसी का नाम है। उन्नति की इच्छा रखने वाले मनुष्य को इसमें आगा-पीछा नहीं करना चाहिए। अपने किए हुए अपराधों को दूसरों के सिर मढ़ते फिरने की प्रवृत्ति के कारण मनुष्य अपने ऐबों को नहीं देख सकता है। अतः उसमें सुधार की भी कोई संभावना नहीं रहती है।

क्रमशः। शेष अगले अंक में।

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