निराश न हों, खुद बनाएं भाग्य

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अध्यात्म के क्षेत्र में अहम से मुक्ति आवश्यक
अध्यात्म के क्षेत्र में अहम से मुक्ति आवश्यक।

इसमें कोई शक नहीं कि प्रकृति के कार्यकारिणी नियम के अनुसार ही मनुष्य का अपने पूर्व कर्मों के अनुसार भाग्य और भोग निर्धारित है। गीता एवं रामायण में भी इस सिद्धांत को सही माना गया है। कई लोग इसे ही अंतिम आधार पर मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रह जाते हैं।


 जबकि यह आधा सत्य है। सामान्य रूप से देखें कि पूर्व में जब कार्यकारिणी नियम के अनुसार हमारे भाग्य और भोग को निर्धारित करते हैं तो क्या वर्तमान कर्म उसमें कोई प्रभाव नहीं डाल सकता? इसे एक उदाहरण से समझें कि आप दिल्ली से कोलकाता जाना चाहते हैं लेकिन गलती से या जान-बूझकर मुंबई वाली ट्रेन में बैठ जाते हैं तो सामान्य स्थिति में या हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने पर तो मुबंई ही पहुंचेंगे लेकिन यदि आपने कर्म किया और तत्काल उस ट्रेन से उतर कर कोलकाता जाने के लिए दूसरी ट्रेन पर चढ़ें तो देर से और परेशानी झेलकर ही सही, आप कोलकाता ही पहुंचेंगे। ऐसा ही हमारे पूर्व जन्म एवं वर्तमान कर्म की भूमिका होती है और उसी आधार पर हमारा भाग्य बदलता है।


यह सत्य है कि जो प्रारब्ध (पिछले कर्म) परिपक्व होकर भोग के रूप में प्रस्तुत हैं उसमें पूरी तरह से परिवर्तन होना तो कठिन है। जैसे आप कोलकाता के बदले मुंबई की ट्रेन में सवार हो गए तो उससे कोलकाता नहीं पहुंच सकते हैं लेकिन लक्ष्य में कर्म से फेरबदल कर सकते हैं, उसी तरह जो पुराने कर्म अभी पक रहे हैं और भोग बनने की स्थिति में अभी नहीं पहुँच पाये हैं, उन पर वर्तमान कर्मों का प्रभाव पड़ता है। ऐसे भोगों का फल न्यून या अधिक हो सकता है अथवा वे खत्म भी हो सकते हैं। धर्म ग्रंथों में जहाँ शुभ कर्मों के महात्म्य का वर्णन किया गया है वहीं स्थान-स्थान पर ऐसा उल्लेख भी आया है कि “इस शुभ कर्म के करने से पिछले पाप नष्ट हो जाते हैं।” यहाँ संदेह उत्पन्न होता है कि यदि उस कर्म के करने वाले के पाप नष्ट ही हो गये तो वर्तमान में तथा भविष्य में किसी प्रकार का दुख या अभाव उसे न रहना चाहिए। परंतु ऐसा होता नहीं, शुभ कर्म करने वाले भी अन्य साधारण व्यक्तियों की तरह सुख दुख प्राप्त करते रहते हैं।


पूर्वकृत पापों के नष्ट होने का संबंध उन कर्मों से है जिनका अभी परिपाक नहीं हुआ है, जो अभी संचित रूप में पड़े हैं और समयानुसार फलित होने के लिए जो सुरक्षित रखे हुए हैं। वर्तमान काल में यदि अधिक बलवान शुभकर्म किए जाएं, मन में यदि उच्चकोटि की सतोगुणी भावनाओं का प्रकाश प्रज्वलित रहे तो उसके तेज से, ऊष्मा से वह अशुभ संचय झुलसने लगता है और हतप्रभ हीन वीर्य होने लगता है। जहाँ अग्नि की भट्टी जलती रहती हो और उसके आसपास में पुस्तकें, औषधियाँ आदि रखी रहें तो वे सब उस गर्मी के कारण जीर्णशीर्ण निस्तेज और क्षतवीर्य हो जायेंगी। कोई बीज उस गर्मी में रखे रहें तो उनकी उपजाने की शक्ति मारी जायेगी। इसी प्रकार यदि वर्तमान काल में कोई व्यक्ति अपनी मनोभूमि को तीव्रगति से निर्मल और सतोगुणी बनाता जा रहा है तो उसकी तीव्रता से भूतकाल के अशुभ कर्मों की शक्ति अवश्य नष्ट होगी। इसी प्रकार यदि भूतकाल में अच्छे कर्म किये गये थे और उनका सुखदायक शुभ परिपाक होने जा रहा था तो वह परिपाक भी वर्तमान काल के कुकर्मों, दुर्गुणों, कुविचारों और दुष्ट भावनाओं के कारण हीन-वीर्य, निष्फल और मृतप्राय: हो सकता है। वर्तमान का प्रभाव भूत पर ही पड़ता है और भविष्य पर भी। महापुरुषों के पूर्वज भी प्रशंसा पाते हैं और संतान भी आदर की दृष्टि से देखी जाती है। इसी तरह दुष्ट, कुकर्मियों के पूर्वज भी कोसे जाते हैं और उनकी संतानें भी लज्जा का अनुभव करती है।


स्मरण रखिए वर्तमान ही प्रधान है। पिछले जीवन में आप भले या बुरे कैसे भी काम करते रहे हों यदि अब अच्छे काम करते हैं तो चंद भोग्य बन गये फलों को छोड़ कर अन्य संचित पाप क्षतवीर्य हो जायेंगे और यदि उनका कुछ परिणाम हुआ भी तो बहुत ही साधारण स्वल्प कष्ट देने वाला एवं कीर्ति बढ़ाने वाला होगा। शिवि, दधीच, हरिश्चन्द्र, प्रहलाद, ध्रुव, पांडव आदि को पूर्व भोगों के अनुसार कष्ट सहने पड़े पर वे कष्ट अंतत: उनकी कीर्ति को बढ़ाने वाले और आत्मलाभ कराने वाले सिद्ध हुए। सुकर्मी व्यक्तियों के बड़े-बड़े पूर्व घातक स्वल्प दुख देकर सरल रीति से भुगत जाते हैं। पर जो वर्तमान काल में कुमार्गगामी हैं उनके पूर्वकृत सुकर्म तो हीन वीर्य हो ही जायेंगे जो संचित पाप कर्म हैं वे सिंचित होकर परिपुष्ट और पल्लवित होंगे, जिससे दुखदायी पाप फलों की श्रृंखला अधिकाधिक भयंकर होती जाएगी। अत: हमें चाहिए कि सद्विचारों को आश्रय दें और सुकर्मों को अपनायें, यह प्रणाली हमारे बुरे भूतकाल को भी श्रेष्ठ भविष्य में परिवर्तित कर सकती है।



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