दुर्गा साधना (3) : अत्यंत कल्याणकारी हैं मां दुर्गा

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दस महाविद्या साधक को भौतिक और आध्यात्मिक रूप से सब कुछ दिलाने के लिए पर्याप्त हैं लेकिन मैंने विभिन्न प्रदेशों में तंत्र के रूप में दुर्गा और उनके मंत्रों का सबसे ज्यादा प्रयोग होते देखा है। यहां तक कि कई मुसलमान साधकों एवं जनजातियों के साधकों को, जिनके समुदाय में दुर्गा की पूजा नहीं होती है, उनके मंत्रों का धड़ल्ले से प्रयोग करते और सफल होते पाया है। दरअसल मां दुर्गा में सभी देवी-देवताओं की शक्तियां समाहित हैं। उनका प्रदूर्भाव ही सभी देवताओं ने अपनी-अपनी शक्तियों को मिलाकर किया है। देश में सबसे ज्यादा उन्हीं की पूजा भी होती है। याद करें कि वेदों व पुराणों में साफ वर्णित हैं कि हवन की आहूतियों से देवताओं को बल मिलता था। राक्षसों ने जब भी उन्हें कमजोर किया, तो पहले उन्हें मिलने वाली आहूतियों एवं पूजा को ही रोकने की कोशिश की। हवन की आहूतियों में अपना हिस्सा न मिलने से देवता कमजोर होते थे। इसी तरह जिन देवी-देवताओं की जितनी ज्यादा पूजा होती है, उनका आभा मंडल उतना ज्यादा बढ़ता जाता है। 


याद करें कि किसी जमाने में संतोषी माता का नाम अचानक चर्चा और प्रचलन में आया। उस समय कई लोगों को उनकी पूजा से काफी फल भी मिला। कारण वही है कि लोगों की भक्ति और पूजा से देवी-देवताओं की शक्ति बढ़ती है। चूंकि इस समय देवियों में सर्वाधिक पूजित एवं श्रद्धा की केंद्र मां दुर्गा हैं। अत: वह भक्तों के लिए भी कामधेनु समान बनी हुई हैं। सर्वाधिक मंत्र जप से उनके मंत्र भी इस समय पर्याप्त जागृत अवस्था में हैं। अत: उनके बारे में चर्चा किए बिना इस विषय को विराम देना अनुचित होगा। हालांकि तांत्रिक विधि से अन्य सभी देवी-देवताओं के मंत्रों का भी जप कर साधकों को काफी फायदा मिलता है जिसके बारे में अगले लेख में संक्षिप्त जानकारी दूंगा। फिलहाल मां दुर्गा की चर्चा करता हूं।


नौ रूप

नवरात्रि के नौ दिनों दौरान मां दुर्गा के नौ रूपों—शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिद्धिदात्री के रूप में होती है। तांत्रिक रूप में दुर्गा के पुरश्चरण के लिए दुर्गा, सरस्वती, शारिका, मातंगी और बगलामुखी की समग्र साधना का प्रावधान है। मेरा अनुभव है कि कितनी भी बुरी दशा हो, दुर्गा के साधक को भोजन व जीवन यापन में कभी बाधा नहीं आती है।


एकाक्षरी मंत्र-– दुं

अंगन्यास– दां दीं दूं दें दौं द: से करें।

अष्टाक्षर मंत्र–  ऊं ह्रीं दुं दुर्गायै नम:।

मंत्रोद्धार– माता दुर्गा का यह अष्टाक्षर मंत्र अत्यंत प्रभावी है। इसमें मायाद्रि (माया-ह्रीं, आद्रि-द) कर्णविंद्वाढ्यो (कर्ण-उ, बिंदु-अनुस्वार) भूयोसौ सर्गवान भवेत् (पुन यह वर्ण विसर्ग युक्त :दु:) पंचान्तक: (ग) प्रतिष्ठावान (आ) मारुतो (य) भौतिकासन: (ऐ)। इस तरह ह्रीं दुं दुर्गायै हुआ। बाद में तारादि (ऊं) हृदयांतोोयं (हृदये नम:) मंत्रोवस्वक्षरात्मक: आदि में ऊं और अंत में नम: लगाने से मंत्र बना।

विनियोग–ऊं अस्य श्री दुर्गाष्टाक्षरमंत्रस्य महेश्वर ऋषि:। श्री दुर्गाष्टाक्षरात्मिका देवता। दुं बीजम्। ह्रीं शक्ति:। ऊं कीलकाय नम: इति दिग्बंध:। धर्मार्थकाममोक्षार्थे जपे विनियोग:।

ऋष्यादिन्या–ऊं महेश्वरऋषये नम: शिरसि। अनुष्टुपछंदसे नम: मुखे। श्री दुर्गाष्टाक्षरात्मिका देवतायै नमो हृदि। दुं बीजाय नमो नाभौ। ह्रीं शक्तिये नमो गुह्ये। ऊं कीलकाय नम: पादयो:। नमो दिग्बंध: इति सर्वांगे।

करन्यास–ऊं ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नम:। ऊं ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। ऊं ह्रूं मध्यमाभ्यां नम:। ऊं ह्रैं अनामिकाभ्यां नम:। ऊं ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नम:। ऊं ह्र: करतलकरपृष्ठाभ्यां नम:।

हृदयादिन्यास–ऊं ह्रां हृदयाय नम:। ऊं ह्रीं शिरसे स्वाहा। ऊं ह्रूं शिखायै वषट्। ऊं ह्रैं कवचाय हुम्। ऊं ह्रौं नेत्रत्रयाय वौषट्। ऊं ह्र: अस्त्राय फट्।


ध्यान

दूर्वानिभां त्रिनयनां विलसत्किरीटां शंखाब्जखंगशरखेटकशूलचापान्।

संतर्जनीं च दधतीं महिषासनस्थां दुर्गां नवारकुलपीठगतां भजेहम्।।

विधि और फल– आठ लाख जप से ही मंत्र का पुरश्चरण होता है। इसमें दशांश हवन की आवश्यकता नहीं है। मंत्र का जप पूरा होने के बाद त्रिमधुयुक्त तिल अथवा दुग्ध मिश्रित अन्न से सिर्फ आठ हजार हवन कर लेना चाहिए। कुछ पुस्तक में इस मंत्र का एक लाख जप का ही विधान लिखा है लेकिन मैं न्यूनतम आठ लाख जप का पक्षधर हूं। एक बार मंत्र का पुरश्चरण कर ही फल प्राप्ति के निमित्त प्रयोग करें। वटवृक्ष के नीचे रूद्राक्ष की माला से दस हजार जप कर घी, कमलपुष्प और कमलगट्टे से दशांश हवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है और लोगों का वशीकरण होता है। वन या एकांत में दस हजार जप कर वेत की जड़ से दशांश हवन करने पर शत्रु का नाश होता है। कनेर या बेल के पेड़ के नीचे दस हजार जप कर कुक्कुट के अंगों व तरह-तरह के फूलों से दशांश हवन करने पर रोग एवं उपद्रव नष्ठ होते हैं एवं शांति प्राप्त होती है। इस मंत्र के जप के बाद हवन के भस्म को नित्य लगाने पर राजा विजय प्राप्त करे एवं गर्भिणी महिला को पुत्र प्राप्त होवे। रात्रि में श्मशान में दस हजार जप कर सर्षप व मांस से दशांश हवन करने पर शत्रु का स्तंभन होता है।


नवार्ण मंत्र

ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे

नोट– तंत्र क्रिया और कामना भेद से 13 तरह के नवार्ण मंत्र हैं। इसी मंत्र में अक्षरों के उलटफेर से उसे बनाया गया है। जैसे- ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे के सरस्वती प्रधान कहा गया है। इसे थोड़ा बदलकर ह्रीं क्लीं ऐं चामुंडायै विच्चे कर दें तो यह लक्ष्मी प्रधान हो जाता है। ह्रीं ऐं क्लीं चामुंडायै विच्चे को माया प्रधान तथा क्लीं ऐं ह्रीं चामुंडायै विच्चे करने से आकर्षण प्रधान हो जाता है। दुर्गा सप्तशती में मूल मंत्र नौ अक्षर के ही हैं लेकिन उसमें ऊं लगाकर दशाक्षरी करने का भी प्रावधान है। दक्षिण भारत के अधिकतर हिस्से दशाक्षरी मंत्र से साधना की जाती है। मेरे विचार से दोनों मंत्र समान प्रभाव वाले हैं। साधक अपनी रूचि और सुविधानुसार इनमें से किसी भी मंत्र का जप कर सकते हैं।


विनियोग– अस्य श्री नवार्ण मंत्रस्य ब्रह्माविष्णुरूद्रा ऋषय: गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छंदासि श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरसत्यो देवता: नंदा शाकंभरी भीमा: शक्त्य: रक्तदंतिकादुर्गा भ्रामर्यो बीजानि, अग्नि वायु सूर्यस्यस्तत्वानि, ऋग्यजु: सामानि स्वरूपाणि, ऐं बीजं, ह्रीं शक्ति: क्लीं कीलकं श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती स्वरूपा त्रिगुणात्मिका श्री महादुर्गा देव्या प्रीत्यर्थे दुर्गासप्तशती पाठांगत्वेन जपे विनियोग:।

ऋष्यादिन्यास– ब्रह्मा विष्णु रूद्रा ऋषिभ्यो नम: शिरसि। गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् छंदोभ्यो नम: मुखे। श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरसत्यो देवताभ्यो नम: हृदि। ऐं बीज सहिताय रक्तदंतिका, दुर्गायै, भ्रामरी देवताभ्यो नम: लिंगे (मनसा)। ह्रीं शक्ति सहितायै नंदा शाकंभरी भीमा देवताभ्यो नम: नाभौ। क्लीं कीलक सहितायै अग्नि वायु सूर्यं तत्वेभ्यो नम: गुह्ये (लिंग मूल के ऊपर एवं छोटी आंत के बीच का भाग)। ऋग्यजु साम स्वरूपिणी श्री महाकाली महालक्ष्मी महासरस्वती देवताभ्यो नम: पादौ। श्री महादुर्गा प्रीत्यर्थे जपे विनियोग: सर्वांगे। ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे मंत्र पढ़कर शुद्धि करें।

नवार्ण करांगन्यास— इस क्रिया से मूल मंत्र की ऊर्जा को हाथों में स्थापित कर उन्हें ओजमय बनाया जाता है। उदाहरण के लिए तर्जनी उंगली इंगित करने के काम आती है। अत: पहले तर्जनी से (ऊं अंगुष्ठाभ्यां नम:) के द्वारा बुद्धि के केंद्र अंगूठे में ऊर्जा स्थापित की जाती है। बुद्धि का केंद्र होने के कारण अंगूठे की शक्ति का सहस्राधार से संबंध बनता है। इसी कारण अंगूठे से ऊर्जा को अन्य उंगलियों में स्थापित किया जाता है। हाथों के शुद्ध और ऊर्जावान होने के बाद पांचों उंगलियों से आकर्षिणी शक्ति के माध्यम से शरीर के अन्य अंगों में ऊर्जा स्थापित करने के लिए हृदयादिन्यास करते हैं।

षडंगन्यास– ऊं ऐं अंगुष्ठाभ्या नम:। (हृदयाय नम:)। ऊं ह्रीं तर्जनीभ्यां नम:। (शिरसे स्वाहा)। ऊं क्ली मध्यमाभ्यां नम:। (शिखायै वषट्)। ऊं चामुंडायै अनानिकाभ्यां नम:। कवचाय हुं)। ऊं विच्चे कनिष्ठाभ्यां नम:। (नेत्रत्रयाय वौषट्)। ऊं ऐं ह्रीं क्लीं चामुंडायै विच्चे करतलकर पृष्ठाभ्यां नम:। (अस्त्राय फट्)।


ध्यान

खडगं चक्रगदेषुचाप परिघांछूलं भुशुंडीं शिर:, शखं संदधतीं करैस्त्रिनयनां सर्वांगभूषावृताम्।

नीलाश्मद्युतिमास्य पाददशकां सेवे महाकालिकां, यामस्तौत्स्वपिते हरौ कमलजो हंतुं मधुंकैटभम्।।

अक्षस्रक्परशुं गदेषुकुलिशं पद्मं धनु: कुंडिकां, दंडं शक्तिमसिं च चर्म जलजं घंटां सुराभाजनम्।

शूलं पाश सुदर्शने च दधतीं हस्तै: प्रसन्नाननां, सेवे सैरिभमर्दिनीमिह महालक्ष्मीं सरोजस्थिताम्।।

  • घंटाशूल हलानि शंखमुसले चक्रं धनु: सायकं, हस्ताब्जैर्दधतीं घनांत विलसच्छीतांशुतुल्य प्रभाम्।

गौरीदेहसमुद्भवां त्रिजगतामाधारभूतां महापूर्वामत्र सरस्वतीमनुभजे शुंभादिदैत्यार्दिनीम्।।

माला पूजन– माला पर गंध व अक्षत चढ़ाने के बाद निम्न मंत्र बोलकर नमस्कार करें।

ऐं ह्रीं अक्षमालिकायै नम:। ऊं माले महामाये सर्वशक्तिस्वरूपिणी। चतुर्वर्गस्त्वयि न्यस्त: तस्मान्मे सिद्धिदाभव। ऊं अविघ्नं कुरुमाले त्वं गृहणामि दक्षिणे करे। जपकाले च सिद्धयर्थे प्रसीद मम् सिद्धये। ऊं अक्षमालाधिपतये सुसिद्धिं देहि देहि सर्वमंत्रार्थ साधिनि साधय साधय सर्वसिद्धिं परिकल्पय परिकल्पय में स्वाहा। (इसके बाद ऐं ह्रीं क्ली चामुंडायै विच्चे मंत्र का 108 बार जप करें।

अंत में कहें—ऊं गुह्याति गुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत् कृतं जपम्। सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत् प्रसादान्महेश्वरि।

विधि व फल– नौ लाख जप कर खीर से दशांश हवन व तर्पण कर ब्राह्मण भोजन कराएं। इस पुरश्चरण से सभी रोग, उपद्रव, शत्रु के प्रतिकूल कार्य नष्ट होकर साधक का हर तरह से कल्याण होता है। उसे ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। पुरश्चरण के पश्चात नाभि तक जल में स्थित होकर दस हजार जप करने से कवित्व की प्राप्ति होती है। बेल के पेड़ के नीचे एक माह तक किसी भी तय संख्या से प्रतिदिन जप कर बेलपत्र, मधुत्रय, मांस, दूध व कमल से कवन करने पर लक्ष्मी की प्राप्ति होती है।


 

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