आध्यात्मिक विधियों के सफल न होने का कारण जानें

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प्रतिकूल ग्रहों को शांत करने के लिए करें ये उपाय
प्रतिकूल ग्रहों को शांत करने के लिए करें ये उपाय।

Know the reason of failure the spiritual method : आध्यात्मिक विधियों के सफल न होने का कारण जानें। इसमें कोई संदेह नहीं कि विधियां जीवंत हैं। उन्हें काफी शोध के बाद ऋषियों ने बनाया है। निश्चय ही विधियों को देने से पूर्व उन्होंने उसका सफल प्रयोग किया है। इसके बाद भी यदि कई लोगों को उस विधि से लाभ नहीं मिलता। इसका कारण विधियों में कमी नहीं, उसके करने वाले में दोष होना है। ओशो ने इस विषय की बहुत अच्छी व्याख्या की है। ध्यान विधियों की असफलता के कारणों को स्पष्ट किया है। उन्होंने कहा- हमने लोगों को जीवन भर साधना करते देखा। फिर भी वे जहां के तहां ही रह गए। उलटे और कलह व अशांति से भर गए। उनमें पाखंड आ गया। क्रोध अधिक आने लगा। साथ ही इसका पश्चाताप भी होने लगा कि साधक होते हुए भी क्रोध से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।

अहंकार असफलता का बड़ा कारण

विधि के काम न करने के कई कारण हैं। उनमें सबसे बड़ा और आम कारण है साधक होने का अहंकार। थोड़ी सी पूजा करने वाला ही स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगता है। उसमें अपने प्रति विशिष्ट होने और दूसरे के प्रति हेय होने का भाव जगता है। वे अवसर मिलते ही अपनी साधना और छोटी-छोटी उपलब्धियों का बखान करने लगते हैं। अर्थात दूसरे को बताने लगते हैं कि वे कितने महान हैं। ऐसे में उनका कल्याण होना संभव ही नहीं है। ओशो कहते हैं कि लोग अपनी प्रेमिका से प्रेम के बारे में बात नहीं करते हैं लेकिन ईश्वर से प्रेम का ढोल पीटकर बखान करते हैं। साधना का मार्ग ऐसा है कि दायां हाथ जो काम करे उसका पता बाएं हाथ को नहीं लगना चाहिए। साधना के दौरान होने वाले दिव्य अनुभव अत्यंत गोपनीय होते हैं, वे सिर्फ स्मरण रखने वाले हैं।

झूठ व संकल्प की कमी भी समस्या

आध्यात्मिक विधियों के सफल न होने का दूसरा कारण झूठ है। लोग साधना काल में भी खूब झूठ बोलते हैं। झूठ से मन में तनाव भरता है। तनाव से अशांति आती है। इससे मानसिक एकाग्रता भंग होती है। ऐसे में साधना के सुचारु और सफल होने का प्रश्न ही नहीं उठता है। उसका असफल होना निश्चित है। संकल्प की कमी से भी लोग लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाते हैं। मनुष्य की समस्या यह है कि वे छोटी-छोटी आदतें तक बदल नहीं पाते। वे एक ही तरह की गलती को बार-बार दोहराते हैं। जिस बुरी आदत को छोड़ने का संकल्प लेते हैं, उस पर अगले दिन ही टिक पाना संभव नहीं हो पाता है। उसे फिर कल पर टाल देते हैं। जो स्वयं की छोटी-छोटी आदतें नहीं बदल सकते वे स्वयं को कैसे बदल सकेंगे। उनसे ईश्वर प्राप्ति जैसे लक्ष्य की तो कल्पना भी संभव नहीं है।

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धैर्य की कमी भी असफलता का कारण

इस भौतिक युग में लोगों में धैर्य की बहुत अधिक कमी है। आज उपाय किया और कल परिणाम चाहिए। ऐसा कैसे संभव है? जब कोई सामान्य रूप से बीमार पड़ता है तो डाक्टर जांच के बाद दवा लिखते हैं। उसे असर करने में ही दो से तीन दिन लग जाते हैं। स्वस्थ होने में एक सप्ताह से दस दिन लगना आम है। रोग गंभीर हो तो पूरी तरह स्वस्थ होने में महीनों लग जाते हैं। मनुष्य की चेतना गंभीर रूप से बीमार है। उसे स्वस्थ रखने के कभी जतन ही नहीं किए। जब प्रयास शुरू किया तो तत्काल परिणाम चाहिए। ऐसे कैसे संभव होगा? जन्म-जन्म के फेर से मुक्ति के लिए भी धैर्य रखना ही होगा। इसके लिए मन को विराट बनाना होगा। स्वीकार्यता बढ़ानी होगी। लोग बड़े दुकानों में महंगे दाम पर वस्तु खरीदते हैं। रिक्शा और सब्जी वाले से दो-चार रुपये के लिए बहस करते हैं।

स्वीकार भाव बढ़ाने से ग्रंथियां नहीं बनतीं

चीजों को स्वीकार करने का भाव बढ़ने से धैर्य बढ़ने लगता है। जब अच्छी और बुरी वस्तुओं, घटनाओं और लोगों को आप उसी रूप में सहज स्वीकार करने लगेंगे तो तनाव खत्म होने लगेगा। नई ग्रंथियां बननी रुक जाएंगी। पुरानी ग्रंथियां रेचन से बाहर निकलने लगेंगी। जैसे-जैसे व्यक्ति तनावमुक्त और निर्गंथ होता जाएगा, वैसे-वैसे उसकी एकाग्रता बढ़ेगी। ध्यान की नई अवस्था में प्रवेश करने लगेगा। तब इसमें निरंतरता बनने लगेगी। कोई भी विधि लक्ष्य तक पहुंचने के लिए निरंतरता की मांग करती है। आध्यात्मिक विधियों के सफल न होने का एक कारण निरंतरता की कमी भी है। इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए। निरंतरता की कमी का अर्थ दो कदम चल कर चार कदम पीछे हो जाना है। ऐसी यात्रा में लक्ष्य प्राप्ति असंभव है।

सही विधि का पालन नहीं करते लोग

लोगों की एक बड़ी समस्या यह भी है कि वे अपने लिए सही विधि नहीं चुन पाते हैं। वे एक बार में ही छलांग लगाकर सब कुछ पा लेना चाहते हैं। ओशो कहते हैं कि ध्यान की दो विधियां हैं। पहली सक्रिय और दूसरी निष्क्रिय। सक्रिय विधि में श्रम करना होता है। अर्थात-व्यायाम, प्राणायाम आदि। निष्क्रिय में कुछ नहीं करना पड़ता है। शरीर और मन को पूरा  ध्यान की अवस्था में विश्राम देना होता है। जब तक शरीर श्रम नहीं करेगा, थकेगा नहीं तो पूर्ण विश्राम को कैसे अनुभव करेगा। पूर्ण विश्राम के लिए शरीर को थकाना, पसीना निकालना आवश्यक है। तब निष्क्रिय विधि में प्रवेश करेगा। कोई हलचल नहीं, कोई तनाव नहीं मात्र शांति, पूर्ण शांति। खाली बैठा व्यक्ति सीधे निष्क्रिय विधि में प्रवेश करता है तो शरीर परेशान करना है। कभी खुजली होती है तो कभी चींटी काटती है। ध्यान में एकाग्र हो ही नहीं पाता है।

विधियां परखी हुईं, ईमारदारी से करें पालन

ध्यान की सभी विधियां सटीक और वैज्ञानिक हैं। पूरी तरह से परखी हुई हैं। विधियों के हर चरण का ईमानदारी से पालन करें। उसमें अपना शत-प्रतिशत दें तो कोई कारण नहीं कि सफलता नहीं मिलेगी। इसमें पूरी शक्ति से सभी चरणों को क्रमबद्ध रूप से पार करना आनिवार्य है। इसमें इकनी त्वरा और इतना संकल्प हो कि व्यक्ति स्वयं को पूरी तरह से विधि के हवाले कर सके। इसमें ऐसा भाव हो मानो जीवन में इसके अतिरिक्त और कुछ बचा ही नहीं। यदि यह निकल गया तो जीवन खत्म। आध्यात्मिक विधियों के सफल होने के लिए यह आवश्यक है। तभी उसमें पूरा समर्पण हो सकेगा। तभी लक्ष्य प्राप्त हो सकेगा। अन्यथा असफलता हाथ लगेगी और विधियां, ध्यान, साधना, कुंडलिनी जगाना आदि ढकोसला ही लगेगा।

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