ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी है श्रीशैलम में

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ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी है श्रीशैलम में
ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी है श्रीशैलम में

Not only Jyotirlinga, Shaktipeeth is also in Srishailam : ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी है श्रीशैलम में। आध्यात्मिक शक्ति के साथ ही भौतिक सुख प्राप्ति का बड़ा केंद्र है। यहां पहुंचने के मार्ग के दृश्य भी मनमोहक हैं। भोग व मोक्ष की लालसा में प्रतिदिन वहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। मंदिर की चारदिवारी पर कहीं तेलुगु, कहीं संस्कृत और कहीं चित्रों की भाषा में रामायण और महाभारत की कथाएं उत्कीर्ण हैं। जंगल से होकर गुजरते सड़कों के किनारे इधर-उधर भागते छोटे-छोटे पशु भी आकर्षण के केंद्र बन जाते हैं। हिरन, भालू, बंदर और सेही तो बहुतायत में हैं। कई तरह के पक्षी भी हैं। शेर-चीते आदि देखने के लिए अंदर जाना पड़ता है। उन्हें सड़क के पास तक आने नहीं दिया जाता है।

आस्था का बड़ा केंद्र

श्रीशैलम को दक्षिण का कैलास कहते हैं। नल्लमलाई पर्वत शृंखला पर मौजूद इस पहाड़ी के नाम सिरिधन, श्रीनगम,श्रीगिरी और श्री पर्वत भी हैं। मान्यता है कि अमावस्या को शिव और पूर्णिमा को माता पार्वती इस ज्योतिर्लिंग में वास करती हैं। द्वादश ज्योतिर्लिंग के साथ ही 51 शक्तिपीठ में से एक होने के कारण यहां काफी भीड़ थी। दर्शन के लिए टिकट और बिना टिकट की दोहरी व्यवस्था है। हमने 101 रुपये प्रति व्यक्ति वाले टिकट लिए और लाइन में लग गए। शुरू में कतार तेजी से चली। यह मुख्य मंडप के बाहर रोक दी गई। मालूम हुआ, अभी बाबा का अभिषेक हो रहा है। कऱीब घंटे भर इंतज़ार करने के बाद दर्शन हुआ। एक विशेष बात कि यहां जाति-धर्म का कोई भेद नहीं है। किसी भी जाति-धर्म को मानने वाले यहां अभिषेक कर सकते हैं। यह प्रथा यहां आरंभ से चली आ रही है।

कई कथाएं भी जुड़ी हैं ज्योतिर्लिंग को लेकर

श्रीशैलम ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी है। इसे लेकर कई किंवदंतियां हैं। इनमें से कुछ यहां प्रकारम पीठिका पर खुदी भी हैं। एक तो यह है कि महर्षि शिलाद के पुत्र पर्वत ने भगवान शिव का घोर तप किया। जब भगवान शिव ने दर्शन दिया तो पर्वत ने उनसे अपने शरीर पर ही विराजमान होने का अनुरोध किया। शिव ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। इस प्रकार तपस्वी पर्वत उसी स्थान पर पर्वत के रूप में बदल गए और उन्हें श्रीपर्वत कहा गया। भगवान शिव ने मल्लिकार्जुन स्वामी के रूप में उनके शिखर पर अपना वास बनाया। इसीलिए श्रीशैलम में भगवान शिव को मल्लिकार्जुन स्वामी के नाम से जाना जाता है।

ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ भी

श्रीशैलम की एक विशिष्टता यह भी है कि यहां शक्तिपीठ भी है। मल्लिकार्जुन स्वामी के साथ देवी भ्रमरांबा भी इसी परिसर में विराजमान हैं। शिव महापुराण के अनुसार देवी सती के ऊपरी होंठ यहीं गिरे थे। एक कथा यह भी है कि एक राजकुमारी ने शिव को पति के रूप में पाना चाहा। इसके लिए उसने कठोर तप किया। एक रात बाबा ने स्वप्न में उसे निर्देश दिया कि तुम इस भ्रमर के पीछे आओ। जहां यह रुक जाए, वहीं ठहर कर मेरी प्रतीक्षा करना। नींद खुली तो पाया कि सचमुच एक भौंरा सामने मंडरा रहा है। राजकुमारी उसके पीछे चल पड़ी। काफी दूर तक चलने के बाद भ्रमर श्रीशैलम पर्वत पर स्थित चमेली के पौधे पर ठहर गया। राजकुमारी वहीं बैठकर भगवान की प्रतीक्षा करते हुए पुन: तप करने लगी। अंत में शिव एक वृद्ध के रूप में प्रकट हुए और राजकुमारी के साथ विवाह किया।

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भ्रमरांबा शक्तिपीठ नाम पड़ने की लोककथा

कुछ दिनों बाद वनवासियों ने दोनों को भोजन के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने अपनी परंपरा के अनुसार भोजन में उन्हें मांस और मदिरा परोसी। शिव वह स्वीकार नहीं कर सके। राजकुमारी ने हठ किया तो वे वहां से दूर चले गए। कई बार अनुनय-विनय के बाद भी लौट कर नहीं आए। इससे रुष्ट राजकुमारी ने उन्हें पत्थर हो जाने का शाप दिया। वे यहां ज्योतिस्वरूप शिवलिंग में बदल गए। मल्लिका (चमेली) पुष्पों से अर्चित (पूजित) होने के कारण मल्लिकार्जुन कहे गए। यह बात देवी पार्वती को पता चली तो वह क्रोधित हुईं। चूंकि राजकुमारी भ्रमर के पीछे वहां आई थीं। अतः उन्होंने राजकुमारी को भ्रमर हो जाने का शाप दिया। इस प्रकार उनका नाम भ्रमरांबा पड़ा। वही यहां शक्तिस्वरूप में प्रतिष्ठित हैं।

श्रीशैलम मार्ग का मनमोहक दृश्य।
श्रीशैलम मार्ग का मनमोहक दृश्य।

कुछ अन्य कथाएं

ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ की एक और कथा है। भगवान शिव श्रीशैलम के जंगलों में एक बार शिकारी के रूप में आए। यहां उन्हें एक चेंचू कन्या से प्रेम हो गया। उसके साथ विवाह कर वह यहीं पर्वत पर बस गए। इसीलिए स्थानीय चेंचू जनजाति के लोग मल्लिकार्जुन स्वामी को अपना रिश्तेदार बताते हैं और चेंचू मल्लैया कहते हैं। शिव महापुराण में इस ज्योतिर्लिंग के आविर्भाव की कथा बिलकुल भिन्न है। इसके अनुसार भगवान शिव के पुत्र श्री गणेश और कार्तिकेय एक बार विवाह को लेकर आपस में बहस करने लगे। दोनों का हठ यह था कि मेरा विवाह पहले होना चाहिए। बात भगवान शिव और माता पार्वती तक पहुंची। उन्होंने कहा कि तुम दोनों में से जो पूरी पृथ्वी की परिक्रमा पहले पूरी कर लेगा, उसका ही विवाह पहले होगा। कार्तिकेय तुरंत अपने वाहन मयूर पर बैठकर पृथ्वी की परिक्रमा के लिए चल पड़े।

पृथ्वी की परिक्रमा में कार्तिक से गणेश का मुकाबला

गणेश जी के लिए यह समय बेहद कठिन था। एक तो स्थूल काया, दूसरे वाहन मूषक। उन्होंने एक सुगम उपाय निकाला। सामने बैठे माता-पिता के पूजनोपरांत उनकी ही परिक्रमा कर ली। और इस प्रकार पृथ्वी की परिक्रमा का कार्य पूरा मान लिया। उनका यह कार्य शास्त्रसम्मत था। पूरी पृथ्वी की परिक्रमा कर कार्तिकेय लौटे। देखा कि तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। उनके दो पुत्र भी हो चुके थे। कार्तिकेय रुष्ट होकर क्रौंच पर्वत पर चले गए। वात्सल्य से व्याकुल माता पार्वती कार्तिकेय को मनाने चल पड़ीं। बाद में भोलेनाथ भी यहां पहुंच कर ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए। उनकी पूजा यहां सबसे पहले मल्लिका पुष्पों से की गई। इसीलिए उनका नाम मल्लिकार्जुन पड़ा। माता पार्वती ने यहां शिवजी की पूजा एक भ्रमर के रूप में की थी। इसीलिए यहां उनके स्थापित रूप का नाम भ्रमरांबा पड़ा।

अत्यंत प्राचीन है शिवलिंग

पुराविज्ञानियों के अनुसार ज्योतिर्लिंग ही नहीं शक्तिपीठ में स्थित शिवलिंग प्राचीनतम है। यह संभवत: अर्जुन वृक्ष का जीवाश्म है। अनुमान है कि यह 70-80 हजार साल पुराना है। शायद इसीलिए इसे वृद्ध मल्लिकार्जुन कहते हैं। मंदिर में प्रवेश से पूर्व एक मंडप है। इसके बाद चारों तरफ ऊंचे मंडप हैं। यह स्थापत्य की विजयनगर शैली है। वर्तमान रूप में इसका निर्माण विजयनगर के राजा हरिहर राय ने कराया था। कोंडावेडू राजवंश केरेड्डी राजाओं का भी इसमें योगदान था। उत्तरी गोपुरम का निर्माण शिवाजी ने कराया था। इस मंदिर के अस्तित्व के प्रमाण दूसरी शताब्दी से ही उपलब्ध हैं। इसके चारों तरफ छह मीटर ऊंची दीवार है। परिसर में कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इनमें सहस्रलिंग और नटराज प्रमुख हैं। भ्रमरांबा शक्तिपीठ के निकट ही लोपामुद्रा की प्रतिमा भी है। महर्षि अगस्त्य की धर्मपत्नी लोपामुद्रा प्राचीन भारत की विदुषी दार्शनिकों में गिनी जाती हैं।

कल दूसरे भाग में समाप्त होगा।

साभार- इष्ट देव सांकृत्यायन

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