भारतीय सभ्यता संस्कृति में दान देने की सर्वाधिक महत्ता बताई गई है। यदि दानदाता अपनी पहचान गुप्त रखे तो उसका महत्व और बढ़ जाता है। प्रत्यक्ष दान में चूंकि देने और लेने वाला आमने-सामने होता है, इससे जहां लेने वाला कृतज्ञता के बोझ तले दब सा जाता है, वहीं दाता के मन में अहंकार आने का खतरा रहता है। गुप्त दान में देने वाला सामने नहीं होता, अत: लेने वाले में कृतज्ञता के बोझ तले दबने के बदले सिर्फ कृतज्ञता के भाव का जोर ज्यादा रहता है और देने वाला उस भाव को महसूस कर अवर्णनीय आत्मिक शांति व खुशी को महसूस करता है। धर्म के रूप में भी देखें तो गुप्त दान दानदाता को ज्यादा पुण्य का भागी बनाता है। इसकी व्याख्या करती एक सुंदर कथा आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं। इस कथा में गुरु की महिमा (गुरु यदि योग्य हों तो किस तरह शिष्य की जीवनधारा को बदल कर उसे कल्याण के मार्ग पर प्रेरित करते हैं) के साथ ही जरूरतमंद का मजाक उड़ाने के बदले उसकी मदद से मिलने वाली खुशी को बड़े सहज और प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया गया है।
कथा के अनुसार एक बार एक संत संपन्न परिवार से संबंध रखने वाले एक युवा शिष्य के साथ ग्रामीण क्षेत्र में कहीं टहलने निकले। उन्होंने देखा की रास्ते में खेतों के पास पुराने हो चुके एक जोड़ी जूते उतरे रखे हैं, जो संभवत: पास के खेत में काम कर रहे किसी गरीब मजदूर के थे। उस समय मजदूर अपना काम खत्म कर जाने की तैयारी में लगे हुए थे। यह देख शिष्य को मजाक सूझा। उसने शिक्षक से कहा, गुरु जी क्यों न हम मजदूर के ये जूते कहीं छिपा कर खुद झाड़ियों के पीछे छिप जाएं। जब वो मजदूर अपने जूतों को यहाँ नहीं पाकर घबराएगा तो उसे देखकर बड़ा मजा आएगा! थोड़ी देर बाद हम उसे जूते लौटा देंगे। इससे उसका कोई नुकसान भी नहीं होगा और मुफ्त का मनोरंजन भी हो जाएगा। शिक्षक गंभीरता से बोले, किसी गरीब के साथ इस तरह का भद्दा मजाक करना ठीक नहीं है। तुम्हारा कुछ देर का मनोरंजन तो हो जाएगा लेकिन इससे कुछ ही देर के लिए उसे जूते खोने को लेकर घोर पीड़ा महसूस होगी। यह पाप है। यदि तुम्हें उससे भावनात्मक रूप में मजे लेना है तो तुम एक काम करो। तुम इन जूतों में कुछ सिक्के डाल दो और फिर हम छिप कर देखते हैं कि इसका मजदूर पर क्या प्रभाव पड़ता है!
शिष्य ने गुरु की आज्ञा का पालन किया और फिर दोनों पास की झाड़ियों में छुप गए। थोड़ी ही देर बाद मजदूर अपना काम खत्म कर जूतों की जगह पर आ गया। उसने रूटीन तरीके से जैसे ही एक पैर जूते में डाले, उसे किसी कठोर चीज का आभास हुआ। उसने हड़बड़ाहट में जूते हाथ में लिए और देखा की अंदर कुछ सिक्के पड़े थे। उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और वो सिक्के हाथ में लेकर पहले बड़े गौर से उन्हें उलट-पलट कर देखने लगा. फिर उसने इधर-उधर नजर दौड़ाई। उसे दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आया तो उसने सिक्के अपनी जेब में डाल लिए। अब उसने दूसरा जूता उठाया, उसमें भी सिक्के पड़े हुए थे। अब मजदूर भावविभोर हो गया। उसकी आँखों में आंसू आ गए। उसने हाथ जोड़कर ऊपर देखते हुए कहा–”हे भगवान्, समय पर प्राप्त इस सहायता के लिए आपका और उस अनजान सहायक का लाख-लाख धन्यवाद। उस अनाम मददगार की सहायता और दयालुता के कारण आज मेरी बीमार पत्नी को दवा और भूखे बच्चों को भरपेट रोटी मिल सकेगी। अनजान सहायक पर आप कृपा बनाए रखिए।
मजदूर की बातें सुनकर शिष्य की आँखें भर आयीं। शिक्षक ने शिष्य से कहा– ” क्या तुम्हारी मजाक वाली बात की अपेक्षा जूते में सिक्का डालने से तुम्हें कम खुशी मिली?” शिष्य बोला, ” आपने आज मुझे जो पाठ पढाया है, उसे मैं जीवन भर नहीं भूलूंगा। अब मेरे जीवन का उद्देश्य स्पष्ट हो गया है। आज मैं उन शब्दों का मतलब भी समझ गया हूँ जिन्हें मैं पहले कभी नहीं समझ पाया था कि लेने की अपेक्षा देना कहीं अधिक आनंददायी है। देने का आनंद असीम है। वास्तव में देना ही देवत्व है। किसी का मजाक उड़ाने के बदले उससे सहानुभूति जताना और उसे प्रेम देना व्यक्ति को ऊंचा उठाती है और वास्तविक सुख का अनुभव कराती है।”