संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर

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संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर
संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर।

Palace, hut, and forest is equal for a Saint : संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर होता है। वह सुख-दुख को समान भाव में लेकर हमेशा मस्त रहता है। चाहे वन हो या झोपड़ी या फिर महल उसके लिए सब समान होता है। इसकी आड़ में अधिकतर संत का रूप धरे ठग लोगों को बेवकूफ बनाते हैं। उनके कारण सच्चे संत को भी उचित सम्मान नहीं मिलता है। लोग उन्हें भी संशय की निगाह से देखते हैं। ओशो ने इस विषय पर बहुत अच्छा प्रवचन दिया था। यह आंखें खोलने वाला है। उनका यह प्रवचन कथा रूप में है। इसे पढ़कर पता लगता है कि ईश्वर के सच्चे भक्त को कैसा होना चाहिए? साथ ही यह भी समझा जा सकता है कि सच्चा संत किसे समझा जाना चाहिए?

एक संत व सम्राट की पुरानी जापानी कथा

यह पुरानी कथा जापान की है। एक सम्राट महल से बाहर निकलता तो मुख्य मार्ग के किनारे एक संत को बैठा देखता था। एक बार उसने वहां रथ रुकवाया। फिर संत को प्रणाम कर बोला कि मैं आपको सदा यहां बैठे देखता हूं। आपको देखकर मेरे मन में बड़ी श्रद्धा होती है। आप जैसे महापुरुष वृक्ष के नीचे धूप, धूल, वर्षा, गर्मी आदि सब में ऐसे ही बैठे रहते हैं। मुझे अच्छा नहीं लगता है। आप मेरे महल में मेरे मेहमान बनकर रहें। यह सुनकर संत उठ कर खड़े हो गए। उन्होंने कहा, अच्छा चलो। अब सम्राट थोड़ा झिझका। उसने तो सोचा था कि संत कहेंगे कि ‘अरे, तू कहां मुझे ले जाता है कचरे में। महल इत्यादि सब कूड़ा-कर्कट है। मैं संसारी नहीं, संन्यासी हूं।’ तो सम्राट उसके पैरों में गिर गया होता। लेकिन यह तो चलने को तैयार है।

सम्राट को लगा कि वह फंस गया

संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर होता है। लेकिन यह संत कुछ अष्टावक्र की धारणा का रहा होगा। उसने कहा, ठीक, यहां नहीं तो वहां। तुझे दुखी क्यों करें! चल। लेकिन सम्राट तो यही सुनकर दुखी हो गया। उसने सोचा, यह कहां का बवाल सिर ले लिया! यह तो कोई भोगी सा लगता है। ऐसा प्रतीत हो रहा है कि वह रास्ता ही देख रहा था कि कोई बुला ले कि चल पड़े। अब तो फंस गए इसके जाल में। कह चुके तो एकदम पीछे भी नहीं हट सकते। ले आया संत को महल में। संत अच्छे से अच्छा भोजन करता, शानदार गद्दे-तकियों पर सोता था। छह महीने बाद सम्राट ने उससे कहा, महाराज, मुझे एक बात बताएं कि अब मुझमें और आपमें भेद क्या? अब तो हम एक ही जैसे हैं। अब मुझे अंतर बता दें। मेरे मन में यह सवाल बार-बार उठता है।

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संत ने सम्राट को दिखाया आईना

सम्राट के सवाल पर संत मुस्कराया। फिर कहा- यह सवाल उसी वक्त उठ गया था जब मैं उठ कर खड़ा हुआ था। इसका तेरे महल में रहने से कोई संबंध नहीं है। वह तो जब मैं उठ कर खड़ा हो गया था और मैंने कहा- चलो चलता हूं, तभी यह सवाल उठ गया था। तूने पूछने में इतनी देर क्यों लगाई? छह महीने क्यों खराब किए? वहीं पूछ लेता। ठीक है, अब ही सही। फर्क जानना चाहता है तो कल सुबह बताऊंगा। कल सुबह हम उठ कर शहर के बाहर चलेंगे। सुबह सम्राट उसके साथ हो लिया। शहर के बाहर निकले। सूरज उग आया। थोड़ी देर बाद सम्राट ने कहा, अब बता दें। उसने कहा, थोड़े और आगे चलें। दोपहर हो गई, साम्राज्य की सीमा आ गई। सम्राट का धैर्य जबाव देने लगा। उसने कहा, अब कितना घसीटेंगे? जो कहना है बता दें। कहां ले जा रहे हैं?

कहा-अब मैं जाता हूं, क्या तुम भी साथ चलोगे

विचलित सम्राट को संत ने कहा-अब मैं जाता हूं। क्या तुम भी साथ चलोगे? सम्राट ने कहा, यह कैसे हो सकता है? मैं कैसे जा सकता हूं? पीछे राज्य है, पत्नी-बच्चे, धन-दौलत, सारा हिसाब-किताब है, मेरे बिना कैसे चलेगा? संत ने कहा कि अब अंतर समझ में आया? संत के लिए महल या वन समान है। मैं जा रहा हूं पर तुम नहीं जा सकते। सम्राट को एकदम श्रद्धा उमड़ी। पैरों पर गिर पड़ा। कहा- महाराज, मैं भी कैसा मूढ़ कि आपको छोड़े दे रहा हूं। आप जैसे हीरे को पाकर भी गंवा रहा हूं। नहीं-नहीं महाराज, आप वापस चलिए। संत ने कहा, मैं तो अभी भी लौट सकता हूं लेकिन फिर सवाल उठ आएगा। तू सोच ले। सम्राट फिर संदिग्ध हो गया। संत ने कहा- तेरे सुख-चैन के लिए यही बेहतर है कि मैं सीधा जाऊं, लौटूं नहीं। तभी तू फर्क समझ पाएगा।

संन्यासी व संसारी दोनों जाल में लेकिन एक मुक्त, दूसरा उलझा हुआ

संन्यासी व संसारी दोनों जाल में। एक मन से मुक्त और दूसरा उलझा हुआ होता है। संसारी लिप्त है, ग्रस्त है, पकड़ा हुआ है, जाल में बंधा है। संन्यासी भी वहीं है, लेकिन किसी भी क्षण जाल के बाहर हो सकता है। पीछे लौट कर नहीं देखेगा। संन्यासी वही है जो पीछे लौट कर नहीं देखता। जो हुआ, हुआ। जो नहीं हुआ, नहीं हुआ। जहां से हट गया, हट गया। संसारी ग्रसित हो जाता है, बंध जाता है। नहीं तो महल किसी को बांधते हैं? महल क्या बांधेंगे? सामान्य मनुष्य को मोह बांध लेता है। यह भेद बहुत बारीक है। इसके भेद करने में मत पड़ना। अन्यथा संसार और संन्यास में द्वंद्व खड़ा कर लोगे। वही द्वंद्व सम्राट के मन में था। वह सोचता था कि संन्यासी त्यागी और संसारी भोगी। यह गलत है। त्यागी-भोगी दोनों संसारी। संन्यासी तो साक्षी है। त्याग व भोग में भी साक्षी रहता है।

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