सभी साधुवेशधारी संत नहीं होते, सावधान रहें

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संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर
संत के लिए महल, झोपड़ी और वन बराबर।

Not all monks are saints, be careful : सभी साधुवेशधारी संत नहीं होते, सावधान रहें। ओशो ने अपने प्रवचन में इस पर भी प्रहार किया है। उनके मूल विचार और धारा से भले कई लोगों को असहमति हो लेकिन उनके कई प्रवचन मनन करने योग्य हैं। इस बार उनके ऐसे ही एक प्रवचन को प्रस्तुत कर रहा हूं। साधु-संत के नाम पर वैसा रूप धरे भिखारियों, चालबाजों और पाखंडियों की भीड़ हर तरफ नजर आती है। धर्मांध लोक आसानी से इनके चंगुल में फंस जाते हैं। ऐसे धंधेबाज और उनके अंध भक्त ही हिंदू धर्म के लिए बड़ा खतरा बने हुए हैं। ये धर्म की गलत व्याख्या कर जहां लोगों को दिग्भ्रमित कर रहे हैं, वहीं उनके श्रम, धन और समय की भी बर्बादी कर रहे हैं। ओशो ने इस अति गंभीर समस्या को सहज-सरल शब्दों में समझाया है। नीचे लगभग उनके ही शब्द हैं।

पचास लाख से भी ज्यादा कथित साधु-संत

कोई पचास लाख से भी ज्यादा साधु-संत है भारत में। इनमें से कितने बुद्धत्व को उपलब्ध हुए हैं? यह एक भीड़ है। भिखारियों की। चालबाजों की। बेईमानों की। पाखंडियों की। धोखेबाजों की यह भीड़ है। ये तुम्हें सदियों-सदियों से चूस रही है। इस भीड़ में किसके भीतर का दीया जला है? इस भीड़ में किसको परमात्मा के दर्शन हुए हैं? यह भीड़ उधार की बातों को, सदियों पहले लिखे गये शास्त्रों को, तोते की तरह दोहराए चली जा रही है। इन अंधों की बातें तुम्हें जंचती हैं। क्योंकि तुम भी अंधे हो! ये अंधे तुम्हारी ही भाषा में बोलते हैं। इसलिए बातें जंचती हैं, समझ में आती हैं। जान लो कि सभी साधुवेशधारी संत नहीं होते हैं।

बुद्धों के वचन पकड़ से बाहर हो जाते हैं

‎बुद्धों के वचन तुम्हारी पकड़ के बाहर हो जाते हैं। क्योंकि बुद्धों के वचन समझने के पहले तुम्हें किसी क्रांति से गुजरना पडेगा! बुद्धों के वचन समझने के पहले तुम्हें अपनी प्रतिभा पर धार लानी होगी। तुम्हें अपने भीतर ध्यान का दीया जलाना होगा। तुम्हारे भीतर भी कुछ बुद्धत्व की लहर उठे तो तुम्हारा बुद्धों से नाता बने। नहीं तो तुम बुद्धुओं के चक्कर में ही पड़े रहोगे।

संसार स्वप्न नहीं, स्वप्न संसार है

तुमने बार-बार सुना होगा पंडितों को। पुरोहितों को यह कहते हुए कि ‘संसार स्वप्न है। मैं तुमसे कहना चाहता हूँ ‘स्वप्न संसार’ है! तुम्हारे भीतर जो स्वप्नों का जाल है वही संसार है। उसे छोड़ना होगा! ये बाहर बोलते हुए पक्षी तो फिर भी बोलेंगे। ऐसे ही बोलेंगे और भी मधुर बोलेंगे। इनके कंठों में और भी संगीत आ जाएगा। क्योंकि तुम्हारे पास सुनने वाले कान होंगे। और जिसके पास सुनने वाले कान हैं। उससे पत्थर भी बोलने लगते हैं। ये वृक्ष तो ऐसे ही हरे होंगे। और हरे हो जाएंगे। क्योंकि जिसके पास देखने वाली आंख है उसके लिए रंगों में रंग, गहराइयों में गहराइयां, अरूप में भी रूप दिखाई पड़ने लगता है। संत संसार में रहकर भी इससे अलग हो जाता है। बाकी इसी में डूबे रहते हैं। क्योंक सभी साधुवेशधारी संत नहीं होते।

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