संवाद में क्रोध का अर्थ होता है हार जाना

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संवाद में क्रोध का अर्थ होता है हार जाना

Anger means losing dialogue : संवाद में क्रोध का अर्थ होता है हार जाना। सोचें कि आदमी कब क्रोधित होता है। जब तर्क खत्म होने लगते हैं। जब दिमाग काम नहीं करता और कोई रास्ता नजर नहीं आता है। तब मन में खीज उत्पन्न होती है। मन क्रोधित हो उठता है। जब दो लोग या समूह में संवाद करते हैं तो उसमें सिर्फ तर्क और विचार होना चाहिए। क्रोध का मतलब बातचीत खत्म। धर्म और आध्यात्म का मूल मंत्र है क्रोध व वाणी पर नियंत्रण। जिसका दोनों पर नियंत्रण है, वह हर क्षेत्र में सफल होगा। जिसका इस पर नियंत्रण नहीं, वह ज्ञानी होकर भी अज्ञानी बन जाता है। शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच हुआ शास्‍त्रार्थ इसका शानदार उदाहरण है। शंकराचार्य़ युवा क्रांतिकारी विचारक थे। वे धार्मिक कर्मकांडों को अधिक महत्‍व नहीं देते थे। जबकि मंडन मिश्र स्थापित बुजुर्ग विद्वान थे। वे परंपरा और अनुष्‍ठानों के अनुयायी थे।

सनातन धर्म के सम्मान की पुनः स्थापना को निकले शंकराचार्य

शंकराचार्य के काल में सनातन धर्म गंभीर चुनौतियों में था। बौद्ध धर्म अपने चरम पर था। बौद्ध विद्वान वेदों की खिल्लियां उड़ाते थे। उसे बेकार साबित करने की कोशिश करते थे। शंकराचार्य वैदिक धर्म के सम्मान को पुनः स्थापित करना चाहते थे। इसके साथ ही उनका मानना था कि कर्मकांड से मोक्ष नहीं मिलता है। यह दैनिक जीवन तक सीमित है। इसमें कई कुरीतियां भी शामिल हो गई हैं। इसलिए वे वैदिक धर्म पर विद्वानों से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित कर रहे थे। उनका प्रभाव क्षेत्र और विचार तेजी से फैलने लगा। सनातन धर्म की ध्वजा फिर शान से लहराने लगी थी। इसके साथ ही शंकाराचार्य कर्मकांडों की उपयोगिता पर भी बहस चाहते थे। वे बताना चाहते थे कि मोक्ष के लिए कर्मकांड जरूरी नहीं। इसके लिए सामान्य जन को जागरूक करना चाहते थे।

प्रकांड विद्वान मंडन मिश्र से किया शास्त्रार्थ

देश भर में विद्वानों से शास्त्रार्थ करते शंकराचार्य बिहार के सहरसा क्षेत्र स्थित महिषी गांव पहुंचे। वहां मंडन मिश्र नामक प्रकांड विद्वान रहते थे। वे बुजुर्ग और गृहस्थ थे। उनका परंपरा और कर्मकांड पर अटूट विश्वास था। चूंकि मंडन मिश्र उत्तर भारत के स्थापित विचारक थे। उन्हें हराने से बड़े समूह में अपने विचार को पहुंचाया जा सकता था। इसीलिए वे मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करना चाहते थे। मंडन मिश्र शंकराचार्य को पराजित कर अपनी विचारधारा को और मजबूती देना चाहते थे। उनका मानना था कि कर्मकांड दैनिक जीवन के लिए जरूरी है। शंकराचार्य का प्रभाव क्षेत्र बहुत बड़ा था। अत: उन्हें पराजित करने से कर्मकांड वाली विचारधार को अधिक मजबूती मिलनी तय थी। दोनों प्रकांड विद्वान थे। अपनी-अपनी विचारधारा को लेकर अति उत्साही भी थे। इसलिए शास्त्रार्थ के प्रति दोनों लालायित भी थे। शर्त रखी गई कि जो हारेगा, वह दूसरे का शिष्य बनेगा।

फूलों के हार की ताजगी से तय हुई जीत-हार

यहां आता है संवाद में क्रोध का अर्थ है हार का सिद्धांत। समस्या थी कि इन महान विद्वानों के बीच निर्णायक कौन हो। मंडन मिश्र की पत्नी भी प्रकांड विद्वान थीं। शंकराचार्य ने उनसे ही निर्णायक बनने का अनुरोध किया। उन्होंने अनुरोध स्वीकार किया। समस्या थी कि जिस विषय पर शास्त्रार्थ होना था, उसमें दोनों पहुंचे हुए थे। ऐसे में सही-गलत तय करना बेहद कठिन था। साथ ही पत्नी होने के कारण उनके लिए मंडन मिश्र को पराजित घोषित करना बड़ी चुनौती थी। क्योंकि हारने वाला दूसरे का शिष्य होता। फिर मंडन मिश्र को संन्यासी बनना पड़ता। फिर पत्नी ने शानदार रास्ता निकाला। दोनों को ताजे फूलों का हार पहनाया। कहा, जिसका फूल पहले मुरझाएगा, उसकी हार होगी। अर्थात बहस में जिसके तर्क चुकने लगेंगे, उसे क्रोध आएगा। क्रोध से शरीर का तापमान बढ़ेगा। तब फूल मुरझा जाएगा। इसी आधार पर मंडन मिश्र पराजित घोषित किए गए।

मिलती है अहम सीख, संवाद में क्रोध का अर्थ हार

यह अहम सीख है कि संवाद में क्रोध का अर्थ हार जाना होता है। आज हर बात में लोग सड़क पर उतरते हैं। प्राचीन भारत में बड़े से बड़े संवेदनशील मुद्दे बातचीत से सुलझा लिए जाते थे। बात भी ऐसी जिसमें क्रोध की गुंजाइश नहीं। सिर्फ तर्क ही कसौटी होते थे। यह प्रसंग बातचीत के तौर-तरीके और उपयोगिता को दर्शाता है। इससे सीख मिलती है कि संवाद में क्रोध का अर्थ तर्क की कमी होती है। अर्थात जब कोई सामने वाले को तर्कपूर्ण जवाब देने में असमर्थ होता है। तब वह क्रोधित होता है। अर्थात तब वह हार जाता है। यह भारत के महान आदर्श जीवन का भी प्रतीक है। पत्नी मौका होते हुए भी निष्पक्ष रहती है। पति को हारकर खुद का त्याग करना तो स्वीकार करती है लेकिन पंच पर दाग नहीं लगने देती है। ऐसा उदाहरण विश्व में अपवाद ही मिलेगा।

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