दाशराज्ञ युद्ध ने बदली आर्यावर्त की दिशा-दशा

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हिंदू धर्म और संस्कृति को लेकर दावे तो बहुत किए जाते हैं लेकिन उनमें से अधिकांश बिना ठोस आधार के होते हैं। वस्तुत: किसी भी व्यक्ति, समुदाय और धर्म-संस्कृति को समझने के लिए उसके इतिहास व सभ्यता-संस्कृति का ज्ञान आवश्यक है। इस मामले सबसे पहले तो यह जानना आवश्यक है कि हिंदू कोई जाति या धर्म नहीं बल्कि विभिन्न जातियों, सभ्यता और संस्कृति का गुलदस्ता है। इसे तैयार होने में हजारों साल लगे। इसकी पुष्टि के लिए यद्यपि वैदिक काल का कोई प्रमाणिक इतिहास तो उपलब्ध नहीं है लेकिन वेद समेत तत्कालीन और थोड़े बाद के विभिन्न ग्रंथों को खंगाले तो काफी कुछ साफ हो जाता है। वैदिक काल में आर्य सभ्यता का विस्तार दुनिया के विभिन्न देशों में था। लोग तब विभिन्न जातियों, जनजातियों व कबीलों में बंटे थे। उनके प्रमुख राजा कहलाते थे, जिनके पास सीमित क्षेत्र और संसाधन थे। लेकिन बीतते समय के साथ-साथ उनमें भी अपनी सभ्यता व राज्य विस्तार की भावना बढ़ी और उन्होंने युद्ध और मित्रता के माध्यम से खुद का चतुर्दिक विस्तार का प्रयास किया। इस क्रम में कई जातियां, जनजातियां और कबीलों का लोप सा हो गया। एक नई सभ्यता और संस्कृति का उदय हुआ। इस क्रम में भारतीय उपमहाद्वीप का पहला दूरगामी असर डालने वाला युद्ध बना दशराज युद्ध। इस युद्ध ने न सिर्फ आर्यावर्त को बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि महर्षि वशिष्ट की महर्षि विश्वामित्र पर श्रेष्ठता भी साबित कर दी। यह बात अलग है कि तात्कालिक रूप से लगभग गुमनामी की जिंदगी जीने को मजबूर विश्वामित्र ने खुद को बाद में एक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर लिया।


राम-रावण व महाभारत युद्ध जैसा असर डाला ‘दाशराज्ञ युद्ध’ ने

साढ़े छह से सात हजार वर्ष पूर्व लड़ा गया यह एक ऐसा युद्ध था जिसके बाद भारतीय उपमहाद्वीप में धर्म और इतिहस ने करवट बदली थी। यह तो सभी जानते हैं कि आज से लगभग पांच हजार वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ था। अधिकतर लोग उसे ही सबसे बड़ा और लोगों पर प्रभाव डालने वाला युद्ध मानते हैं। उस युद्ध के सूत्रधार भगवान कृष्ण थे, इसलिए इस युद्ध की चर्चा आज भी होती है। हालांकि भगवान राम का रावण से युद्ध भी काफी महत्वपूर्ण और दूरगामी असर वाला माना जाता है। लेकिन महाभारत युद्ध की बात कुछ और थी। यही सही है कि उसका प्रभाव बहुत व्यापक पड़ा था लेकिन अधिकतर लोग नहीं जानते हैं कि महाभारत युद्ध के लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व त्रेतायुग में हुआ दशराज युद्ध (दाशराज्ञ के नाम से जाना जाता है। इस की चर्चा ऋग्वेद में मिलती है)। प्रकारांतर से इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इससे यह भी पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था।


उन दिनों पूरा आर्यावर्त कई टुकड़ों में बंटा था और उस पर विभिन्न जातियों व कबीलों का शासन था। भरत जाति के कबीले के राजा सुदास थे। उन्होंने अपने ही कुल के अन्य कबीलों से सहित विभिन्न कबीलों से युद्ध कर से लड़ा था। उनकी लड़ाई सबसे ज्यादा पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन कबीले के लोगों से हुई थी। सबसे बड़ा और निर्णायक युद्ध पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के नेतृत्व में हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के योद्धा थे, तो दूसरी ओर ‘तृत्सु’ नामक समुदाय के लोग थे। दोनों ही हिंद-आर्यों के ‘भरत’ नामक समुदाय से संबंध रखते थे। हालांकि पुरुओं के नेतृत्व में से लड़ने वाले कुछ समूहों के आर्य होने पर संदेह जताया जा रहा है। तुत्सु समुदाय का नेतृत्व राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था। सुदास के विरुद्ध दस राजा (कबीले) युद्ध लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण कर रहे थे।


इस युद्ध में भरत वंश के सुदास ने जीत हासिल की थी। इस युद्ध में पराजित समूह में से द्रुह्रु समुदाय के राजा का नाम गंधार था। हार बाद के द्रुह्रु राजा गंधार ने वायव्य दिशा में जाकर अपना राज्य स्थापित किया। गंधार के इसी राज्य को गांधार कहा जाने लगा। (आधुनिक युग में इसी का अपभ्रंश रूप कंधार है जो अफगानिस्तान में है।) सम्राट भरत के समय में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का काफी विस्तार हुआ। राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया। उस दौरान यह राज्य संयुक्त रूप से ‘कुरु-पंचाल’ कहलाया। परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतंत्र हो गया।


इस युद्ध का सबसे बड़ा कारण पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा था। प्रारंभ में सुदास के राजपुरोहित विश्वामित्र थे। बाद में मतभेद के बाद सुदास ने विश्वामित्र को हटाकर वशिष्ठ् को अपना राजपुरोहित नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से विश्वामित्र ने दस राजाओं के एक कबिलाई संघ का गठन किया। इन कबीरों में पांच महत्वपूर्ण थे- पुरु, यदु, तुर्वश, अनु और द्रुह्मु तथा पांच अन्य छोटे कबीले थे। अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन थे। यह संघर्ष परुष्णी (रावी) नदी के किनारे हुआ। इस युद्ध का एक कारण परुष्णी नदी के जल का बंटवारा भी था। दरअसल इस युद्ध की पृष्ठभूमि वर्षों पूर्व तैयार हो गई थी। उस युग के अत्यंत शक्तिशाली तुत्सु राजा दिवोदास ने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी हत्या कर दी थी। इसके बाद उन्होंने इंद्र की सहायता से संबर के बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। बाद में धीरे-धीरे वहां कई छोड़े-बड़े दस राज्य बन गए। पुराने दुश्मन के भय और समान दर्द होने के कारण वे सभी राजा एकजुट होकर रहते थे। उनकी बढ़ती गतिविधियों व चुनौतियों को देखते हुए दिवोदास के पुत्र सुदास ने फिर से इन पर आक्रमण कर दिया।


इस युद्ध में शामि विभिन्न जातियों/समुदाय/कबीलों का संक्षिप्त परिचय निम्न है————–

1. अलीन समुदाय : इतिहासकार मानते हैं कि यह कबीला (समुदाय) अफगानिस्तान के नूरिस्तान क्षेत्र के पूर्वोत्तर में रहता था। चीनी तीर्थयात्री हुएन त्सांग ने उस जगह को उनकी गृहभूमि होने का जिक्र किया है। 2. अनु : यह ययाति के पुत्र अनु के कुल का समुदाय था, जो परुष्णि (रावी नदी) के पास रहता था। 3. भृगु समुदाय : माना जाता है कि यह समुदाय प्राचीन भृगु ऋषि के वंश के थे। बाद में इनका संबंध अथर्ववेद के भृगु-आंगिरस विभाग की रचना से किया गया है। 4. भालन समुदाय : कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह बोलन दर्रे के इलाके में बसने वाले लोग थे। 5. द्रुह्य : ऋग्वेद के अनुसार यह समुदाय द्रुह्यु कुल का था, जो अफगानिस्तान के गांधार प्रदेश में निवास करता था। 6. मत्स्य : ऋग्वेद में इस समुदाय का जिक्र मिलता है लेकिन बाद में इनका शाल्व से संबंध होने का उल्लेख भी मिलता है। यह जनजाति समुदास के लोग थे। 7. परसु : परसु समुदाय प्राचीन पारसियों का समुदाय था। ईरान इनका मूल स्थान था। प्राचीन समय में ईरान को पारस्य देश कहा जाता था। 8. पुरु : यह समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जिसे सरस्वती नदी के किनारे बसा होना बताया जाता रहा है, हालांकि आर्य काल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे। 9. पणी : इन्हें दानव कुल का माना गया है। ऐतिहासिक शोध में इन्हें स्किथी लोगों से संबंधित बताते हैं। 10. दास (दहए) : यह दास जनजातियां थी। ऋग्वेद में इन्हें दसुह नाम से जाना गया। माना जाता है कि यह काले रंग के थे।


ऋग्वेद में दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वाामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वाशमित्र का अंत करना चाहते थे। हालांकि विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। लेकिन बाद में वे फिर से शक्तिशाली बनकर उभरे। यह सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी। एक ओर वेद पर आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे। उस काल में राजनीतिक व्यवस्था गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित भी हो रही थी। दशराज युद्ध में भारत कबीला राजा-प्रथा पर आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग सभी लोकतांत्रिक थे। इस युद्ध में सुदास की जीत के बाद उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के आर्यावर्त और आर्यों पर भरत वंश के लोगों का अधिकार स्थापित हो गया। इसी कारण आगे चलकर पूरे देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह ‘भारत’ पड़ गया।



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