जानें धर्म का मर्म जिससे जीवन होगा सफल

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अक्षय तृतीया तीन मई को
अक्षय तृतीया तीन मई को।

Know the quintessence of religion : जानें धर्म का मर्म जिससे जीवन होगा सफल। आजकल धर्म पर बाजार हावी हो गया। नकली बाबाओं ने अपने भक्तों का जीवन नर्क बना दिया है। यह स्थिति आस्तिकों के समक्ष बड़ी चुनौती है। लोग धर्म का मूल भूल से गए हैं। किसी को समोसा खाने में धर्म दिखता है तो कोई कथित बाबा का नाम जपकर खुश हो रहा है। ऐसे बाबा और उनके भक्तों ने धर्म के मर्म को लेकर गंभीर प्रश्न उत्पन्न कर दिए हैं। मैंने भी पहले के लेखों में स्पष्ट किया था। सभी बाबा वेशधारी वास्तव में साधु-संन्यासी नहीं होते हैं। वे तो खुद सुख-शांति की तलाश में भटक रहे होते हैं। ऐसे लोग अपना ही कल्याण नहीं कर सकते। दूसरों को क्या राह दिखाएंगे?

धर्म प्रदर्शन का विषय नहीं, शांति हमारे अंदर

धर्म व्यक्ति का आंतरिक मामला है। यह दिखावे का विषय नहीं है। इसलिए धर्म को मन में ही रखना चाहिए। वह मन में धारण करने की चीज है। यह हमारे बोलने में नहीं, बल्कि आचरण दिखना चाहिए। धर्म का ईमानदारी से पालन करना चाहिए इसी तरह शांति मन के अंदर होती है। जो उसे बाहर ढूंढने जाते हैं, खाली हाथ रहते हैं। अंततः उन्हें पछताना पड़ता है। इस विषय पर पहले के लेख में काफी लिख चुका हैं। इस बार प्रस्तुत है एक बोध कथा। भटके हुए लोगों पर नीचे दी गई कथा फिट बैठती है। इसे ओशो ने सुनाया था। कथा पढ़ें और जानें धर्म का मर्म जिससे जीवन होगा सफल।

साधु और वेश्या की कथा

प्राचीनकाल में एक साधु और एक वेश्या की एक साथ मृत्यु हुई। एक ही दिन। आमने-सामने रहते थे। साधु मंदिर में और वेश्या कोठे में। मृत्यु के दूत लेने आए। दोनों के बारे में चित्रगुप्त के आदेश से दूत उलझन में पड़ गए। उन्हें लगा कि चित्रगुप्त से आदेश में भूल हो गई है। वे पता करने के लिए यमपुरी लौटे। संदेश में साधु को नर्क ले जाने की आज्ञा थी। वेश्या को स्वर्ग ले जाने का आदेश था। उन्होंने चित्रगुप्त से कहा कि इसमें जरूर कहीं भूल हुई है। साधु, बड़े साधु थे। उनका बहुत नाम था। वेश्या भी कोई मामूली नहीं थी। दूर-दूर तक उसे लोग जानते थे। उसने अकूत धन-संपत्ति अर्जित की थी। ऐसे में स्वर्ग-नर्क का मामला सीधा साफ था। दूत ने कहा कि गणित में कोई गड़बड़ है। वेश्या को नर्क और साधु को स्वर्ग जाना चाहिए।

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साधु को नर्क और वेश्या को स्वर्ग भेजने का आदेश

चित्रगुप्त ने कहा कि संदेश ठीक है। वेश्या को स्वर्ग और साधु को नर्क ले जाओ। यमदूत ने पूछा, थोड़ा हम समझ भी लें। बड़ी दुविधा में हैं। चित्रगुप्त ने बताया कि जब भी साधु के घर में सुबह कीर्तन होता, तो वेश्या रोती अपने घर में। सोचती कि जीवन व्यर्थ गया। कब वह क्षण आएगा? कब ऐसे कीर्तन में मैं भी सम्मिलित हो सकूंगी? मन अधिक व्यग्र होता, तो कभी मंदिर की दीवार के पास कान लगाकर खड़ी हो जाती। मन में लगता कि मुझ जैसी पापी मंदिर में कैसे प्रवेश करे? यह भी डर था कि कहीं साधु को पता न चल जाए। इसलिए छिपकर कीर्तन सुनती। मंदिर में धूप जलती, फूल चढ़ते, घंटा बजता तो भाव-विभोर हो जाती।

वेश्या का मन मंदिर में और साधु का कोठे में रहा

कोठे में रहकर भी वेश्या जीवन भर मन से मंदिर में रही। चित्त मंदिर में घूमता रहा। और एक ही कामना थी कि अगले जन्म में चाहे बुहारी ही लगानी पड़े, पर मंदिर में ही जन्म हो। मंदिर के द्वार पर ही। उधर, साधु भी कुछ पीछे न थे। जब भी वेश्या के घर रात में राग-रंग छिड़ता। आधी रात होती, वे करवट बदलते रहते। सोचते, सारी दुनिया मजा लूट रही है। हम कहां फंस गए। इसलिए ध्यान रहे, पुजारी परमात्मा से जितने दूर रह जाते हैं, उतना शायद ही कोई रह पाता हो। क्योंकि पुजारी को प्रयोजन ही नहीं रह जाता। उसका मतलब कुछ और है। यह उसके लिए धंधा है। वे कैसे जानें धर्म का मर्म और कैसे पाएं मुक्ति?

उपासना खुद करनी होगी, उधार पर नहीं होती

उपासना उधार पर नहीं कर सकते। वह आपको ही करनी पड़ेगी। दूसरे से उपासना कराने का कोई मूल्य नहीं है। मंदिर में परमात्मा के निकट होते हों और बाहर निकलते ही परमात्मा खो जाता हो। ऐसी उपासना से क्या होगा? अगर वह है, तो सब जगह है। अगर नहीं है, तो कहीं भी नहीं है। अगर नहीं है, तो मंदिर व्यर्थ हैं। और अगर है, तो सारी पृथ्वी उसका मंदिर है। मन पवित्र है तो एक वृक्ष के पास बैठें, तो भी परमात्मा के पास बैठें। पशु के पास खड़े हों, तो भी परमात्मा के पास खड़े हों। मित्र पास हो, तो परमात्मा पास हो, और शत्रु पास हो, तो भी परमात्मा पास हो। आपके लिए वही रह जाए। जितना यह बढ़ता चला जाएगा, यह प्रतीति गहन होती चली जाएगी। आप उतनी ही उपासना में रत रहें।

ईश्वर के पास बैठना, उसे महसूस करना ही उपासना है

उपासना का अर्थ होता है, उसके पास बैठना। कहीं भी बैठे हों, अगर अनुभव करें कि परमात्मा के पास बैठे हैं, तो उपासना हो गई। घर में बैठे हों या मंदिर में। जंगल में हों या कहीं और हों,  अगर उसकी उपस्थिति अनुभव कर सकें। अगर अनुभव कर सकें उसका स्पर्श कि हवाओं में वही छूता है। सूरज की किरणों में वही आता है। पक्षियों के गीत में उसी के गीत हैं। वृक्षों में जो सरसराहट होती है हवा की, पत्ते जो कंपते हैं, वही कंपता है। सागर की जो लहर हिलती है, यह उसी की तरंगें हैं। अगर ऐसी प्रतीति हो सके, तो उपासना हो गई। फिर किसी और चीज की जरूरत ही नहीं है। उम्मीद है कि जानें धर्म का मर्म आपके सामने स्पष्ट हो गया होगा।

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