Know the secret of idol worship, there is no mention in Vedas : मूर्ति पूजा का रहस्य जानें, वेदों में नहीं है जिक्र। मूर्ति पूजा को लेकर हिंदुओं की दूसरे धर्मावलंबी आलोचना करते हैं। देश के प्राचीन इतिहास पर भी नजर डालें तो मूर्ति पूजा करने वाले और इसके विरोधियों में सदियों तक खूब संघर्ष हुआ है। बाद में इसमें कमी आई। अभी देश में बहुसंख्यक लोग मूर्ति पूजा करते हैं। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा कि वैदिक परंपरा में मूर्ति पूजा की अवधारणा नहीं थी। बाद में धीरे-धीरे उसमें दो गुट बने। साथ ही छोटा गुट मूर्ति पूजा करने लगा। समय के साथ-साथ उनकी संख्या बढ़ती गई। इसके साथ ही बढ़ गई मूर्ति पूजा की परंपरा। वैदिक काल (सत युग) में लोग प्रकृति की उपासना करते थे। उनके देवता इंद्र, वरुण, अश्विनी कुमार, सूर्य, अग्नि, पवन आदि प्रमुख थे। तब सोम और हवन से उनकी उपासना होती थी।
वेद का प्रभाव कम होने के बाद शुरू हुई मूर्ति पूजा
यह रोचक है कि हिंदू वेद को ही मूल ग्रंथ मानते हैं। लेकिन पूजा पद्धति और कर्मकांड में उसका पालन नहीं किया जाता है। वेद के मूल कार्य तो लुप्तप्राय हो चुके हैं। वैदिक साहित्य को खंगालने पर उस समय किसी मंदिर या मूर्ति पूजा का वर्णन नहीं मिलता है। यहां तक कि द्वापर युग में भी इंद्र पूजा का उल्लेख है। श्रीकृष्ण ने उसकी भी आलोचना की थी। विकल्प के रूप में लोगों को गोवर्धन पूजा करने के लिए कहा था। वेद की बात करें तो ऋग्वेद में विष्णु का उल्लेख है लेकिन इंद्र प्रधान हैं। विष्णु उनके सखा हैं। बाद में त्रिदेव सबसे महत्वपूर्ण हो गए। उनमें भी विष्णु और शिव की महत्ता अधिक बनी। उस समय भी मंदिरों का जिक्र नहीं के बराबर है। मूर्ति पूजा भी नगण्य सी थी। मूर्ति पूजा का रहस्य जानने के लिए द्वार के साहित्य को देखना होगा।
द्वापर में भी मूर्ति पूजा का अधिक प्रचलन नहीं
द्वापर युग तक के साहित्य को देखें तो मूर्ति पूजा का प्रचलन कम था। उस समय तक त्रिदेव समेत देवी-देवताओं विभिन्न रूपों में यदा-कदा पृथ्वी पर आते थे। उनका साक्षात स्वागत-सत्कार होता था। प्रारंभिक धर्म शास्त्रों में ईश्वर को अजन्मा, अप्रकट, निराकार और निर्गुण परम ब्रह्म परमेश्वर कहा गया है। त्रिदेव को जन्म, पालन और संहार के देवता के रूप में काफी हद तक सीमित थे। उनकी भी आयु निर्धारित है। कई ब्रह्मा, कई विष्णु और कई शिव होने की भी बात स्पष्ट रूप से लिखी गई है। उनके कई अवतार भी सर्वविदित है। ध्यान दें तो विष्णु हर साल योग निद्रा में चले जाते हैं। शिव को तो योगीराज ही कहा जाता है। उनका अक्सर ध्यान में जाना सर्वविदित है। कुछ ग्रंथों में उनके शक्ति की उपासना का भी जिक्र है। अर्थात उन्हें भी समय-समय पर शक्ति अर्जित करनी पड़ती है।
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सृष्टि के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करते ईश्वर
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने लिखा है कि कोई भी देवी-देवता सृष्टि के कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। लोगों को कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इससे बचने का कोई रास्ता नहीं है। ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं। विष्णु के अवतार परसुराम को माता की हत्या करनी पड़ी। शिव को भस्मासुर को दिए अपने ही वरदान से बचने के लिए विष्णु के मोहिनी रूप की आवश्यकता पड़ी। राम के पिता दशरथ को श्राप के कारण पुत्र वियोग में प्राण त्याग करना पड़ा। श्रीकृष्ण का पूरा कुल के लोग सामने ही श्राप के प्रभाव से लड़ मरे। उसे उन्होंने रोका नहीं। त्रिदेव यदि होनी में हस्तक्षेप करते तो पार्वती पुत्र गणेश का सिर हाथी का नहीं होता। कामदेव को पुनः शरीर की प्राप्ति हो जाती। तुलसीदासजी ने भी एक स्थान पर लिखा है। कर्म प्रधान विश्व रचि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चाखा।
बौद्ध और जैन धर्म में भी परमात्मा निराकार
मूर्ति पूजा का रहस्य जानने के लिए बौद्ध और जैन धर्म को भी जानना प्रासंगिक होगा। आज महात्मा बुद्ध की मूर्तियां जगह-जगह दिखने लगी हैं। लेकिन बुद्ध ने धर्म के पाखंड का विरोध किया था। उन्होंने ईश्वर की प्राप्ति के लिए आंतरिक तड़प की बात कही थी। खोज पर जोर दिया था। उनके भक्तों ने उन्हें ही ईश्वर घोषित कर दिया। यही स्थिति जैन धर्म की भी है। वह वीतराग परमात्मा की बात करती है। हर आत्मा में यही परम प्रकाश छिपा है। उसका मानना है कि आत्मा ही परमात्मा है। वह राग, द्वेष, जन्म और मरण से मुक्त अजर और अमर है। कर्मों और उसके फलों का क्षय कर शुद्ध रूप प्राप्त कर लेता है। इसके लिए उसे हर बंधन से मुक्त होना होता है। अर्थात जहां न शरीर हों, न इंद्रियां, न कर्म और न फल। हर बंधन से मुक्त ऐसी ही आत्मा परमात्मा है।
सनातन धर्म का मूल संदेश अद्वैत और एकेश्वरवाद
अधिकतर प्राचीन धर्म ग्रंथों में अद्वैतवाद और एकेश्वरवाद की बात है। दयानंद सरस्वती ने भी इसी को सही माना है। लेकिन अथर्व वेद में शिवलिंग का जिक्र है। पौराणिक तथ्यों की व्याख्या करें तो स्पष्ट होता है कि अथर्व वेद को द्वापर के अंत में मान्यता मिली है। वैसे भी यह अंतिम वेद है। ऋषियों की गुटबाजी और खींचतान को खत्म करने के लिए महर्षि वेदव्यास ने सभी को साथ बैठाकर उसे चौथे वेद की मान्यता दिलाई। हालांकि इसके बाद सनातन धर्म में गुटबाजी और बढ़ी। शिवलिंग की देखा-देखी वैष्णवों ने भी मूर्तियों की ओर रुख किया। हालांकि शुरुआत के मंदिरों को देखें तो प्रार्थना कक्ष में देवी-देवताओं मूर्तियों को दीवारों पर उकेरा जाता था। कालांतर में उनका स्थान बीच में हो गया। इसका यह अर्थ नहीं लगाएं कि मूर्ति पूजा कुरीति है। मूर्ति पूजा का रहस्य को जानने के लिए उसके भाव को समझें।
मूर्ति पूजा का रहस्य जानें, यह कुरीति नहीं
मूर्तियों की पूजा के अपने निहितार्थ और फल हैं। परमात्मा को पाने के लिए प्रार्थना, ध्यान और चिंतन-मनन आवश्यक है। निराकार पर ध्यान एकाग्र करना कठिन होता है। इसमें अधिक श्रम और समय की आवश्यकता है। दैनिक कार्य में व्यस्त गृहस्थों के पास समय कम है। सामने आकार हो तो कम समय में प्रार्थना-ध्यान संभव है। कुछ मिनट में मन एकाग्र हो जाता है। निश्चय ही यह विधि उपयोगी है। लक्ष्य की ओर मन को शीघ्रता और आसानी से ले जाता है। वास्तव में सनातन धर्म जीवन पद्धति का विज्ञान है। जिसे कई ऋषियों ने मिलकर देश, काल और परिस्थिति को देखते हुए अलग-अलग समय में बनाया है। यही कारण है कि इसमें अंतर्विरोध दिखता है। इसमें कोई संशय नहीं होना चाहिए। वह गलत नहीं है। तत्कालीन परिस्थिति के अनुसार है। हर युग में एक ही विधि प्रभावी नहीं हो सकती। कभी तीर-धनुष खतरनाक हथियार था। अब बेकार है।
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