विचारों की शक्ति : हमारे विचारों से बनता है भविष्य

224
कर्मों के अलावा कुछ साथ नहीं जाता
कर्मों के अलावा कुछ साथ नहीं जाता।

प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों द्वारा ही अपने व्यक्तित्व और भविष्य का निर्माण करता है।चूंकि विचार का बीज ही समयानुसार फलित होकर गुणों का रूप धारण करता है और वे गुण, मनुष्य के दैनिक जीवन में कार्य बनकर प्रकट होते रहते हैं। विचार ही वह तत्व है जो गुण, कर्म, स्वभाव के रूप में, दृष्टिगोचर होता है। मन, कर्म, वचन में विचारों का ही प्रतिबिम्ब सदा परिलक्षित होता रहता है।


मानव मनोभूमि में सत् और असत् दो प्रकार के संकल्प काम करते रहते हैं। भलाई और बुराई दोनों ही ओर मन चलता रहता है। इस दुविधा में जिधर रुचि अधिक हुई, उधर ही प्रकृतियां बढ़ जाती है। यदि असत मार्ग पर चला गया तो अपयश, द्वेष, चिन्ता, दैवी प्रकोप, शारीरिक और मानसिक अस्वस्थता दरिद्रता एवं अप्रतिष्ठा प्राप्त होती है। यदि सत मार्ग का अनुगमन किया गया तो प्रशंसा, प्रतिष्ठा, प्रेम, सहयोग, संतोष, दीर्घ जीवन, शारीरिक और आत्मिक बलिष्ठता एवं सदा आनन्द ही आनन्द का रसास्वादन होता है। दो प्रकार के विचार ही मनुष्य समाज को दो भागों में बाँटते हैं। सुखी-दुखी, रोगी-निरोगी, दरिद्र-सम्पन्न, दृष्ट-सज्जन, पापी-पुण्यात्मा, निन्दित-पूज्य, प्रसन्न-चिन्तित आदि द्विविधि श्रेणियाँ केवल मात्र द्विविधि विचारों द्वारा ही विनिर्मित होती हैं।


अधिक संख्या में जन समुदाय का मानसिक धरातल परिमार्जित नहीं होता, उसमें पाश्विक वृत्तियों की प्रधानता रहती हैं। अविवेक, अज्ञान, अदूरदर्शिता, संकुचित स्वार्थपरायणता, लोभ विषय विकारों में आसक्ति एवं निकृष्ट कोटि के मनोरंजन की अभिलाषाओं से मन: दोष भरा रहता है। जिससे उसके सोचने, कार्य करने और आनंद लाभ करने की परिधि ऐसी सीमित हो जाती है जिसमें बुराई, तामसिकता एवं अशान्ति ही उत्पन्न हो सकती है। इसी कटघरे में अधिकांश लोग बंद रहते हैं माया का यह घेरा मनुष्य को बुरी तरह जकड़े रहता है। वह जकड़ा हुआ प्राणी पराधीनता जन्म नाना प्रकार के दुखों को प्राप्त करता रहता है। यही भव बंधन है।


अज्ञान, आसक्ति, अहंकार वासना एवं संकीर्णता के बंधनों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं। आत्मा-परमात्मा का अंश होने के कारण स्वभावत: युक्त है, उसे यह कुप्रवृत्तियां ही अपने बंधन में बांधकर मायाबद्ध जीव बना लेती है। इन बंधनों से छुटकारा मिलते ही आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है और जीवन मुक्ति का अनिर्वचनीय उपलब्ध करने लगता है।


अपनी भूल आप समझ में नहीं आती, यदि समझ में आ जाय तो उसे तुरन्त सुधार लें। रोगी यह नहीं समझता कि मैं कुपथ्य कर रहा हूँ यदि उसे ऐसा पता होता तो कुपथ्य करके प्राणों को संकट में क्यों डालता? यों तो कहने सुनने को हर एक भूल करने वाला और कुमवृध करने वाला यह जानता है कि जो कर रहे हैं वह ठीक नहीं पर ऐसा केवल बाहरी रूप से ही सोचा जाता है, यदि अन्त:करण के गहन अन्तराल को सच्चे हृदय से या कुपंथ की बुराई मालूम हो जाय तो उसे छोड़ते हुए देर न लगे। बात माया बन्धन के बारे में है।


स्वार्थ, वासना के निकृष्ट सुख में लोग वैसे ही अनुभव करते रहते हैं जैसे कुत्ता सूखी हड्डी चबा कर मसूड़े छिलने से निकलने वाले ही रक्त को ही चाटता है और रक्तपान का अनुभव करता है। यदि मानव मन को अनुभूति अंत:करण के गहरे अन्तराल में होना कि माया बन्धन के कटघरे में जो सुख है क्रमवश सुख लगता है वस्तुत: वह भारी घाटे विपत्ति का कारण है तो उसे अपने बन्धनों को तोड़ने में निश्चय ही तत्परता हो जाएगी।


इस अनुभूति के लिए ही आध्यात्मवाद समस्त शिक्षा और साधना है। इस श्रेय मार्ग पर चलने वाला सत् का महत्व समझ जाता वह सद्विचारों को अपनाता है, जिससे सुदूर और सत्कार्यों में उसकी प्रवृत्ति होती है और धीरे-धीरे वह सत्पुरुष बनता हुआ सन्मार्ग चलता हुआ जीवन लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है।


     अपना सुधार सबसे बड़ी सेवा

यदि मन का देवता यह मान ले कि सृष्टि के समस्त जीव जिस प्रकार काम सेवन के संबंध में प्रकृति की मर्यादा का पालन करते हैं, उसी प्रकार वह भी करे तो इतनी मात्र उसकी स्वीकृति से आपका मुरझाया हुआ चेहरा कमल के फूल की तरह खिल उठेगा। जीवन रस बुरी तरह निचुड़ते रहने से पौरुष खोखला होता चला जाता है, इस बरबादी को न करने के लिए यदि मन सहमत हो जाए। तो आपके मस्तिष्क और कार्यकलापों में से ओज टपकने लगेगा। जैसे सिंह की हर क्रिया, हर चेष्टा में से प्रस्फुटित होने लगेगा। तब आप खोखले कागज के खिलौने नहीं, एक लौह पुरुष सिद्ध होंगे, आपकी आंखों में तेज, बुद्धि में प्रौढ़ता और क्रिया में प्रामाणिकता की छाप होगी। यह लाभ आपको बड़ी आसानी से मिल सकते हैं, यदि आप मन के देवता को इंद्रियों का दुरुपयोग न करके आहार- बिहार को प्राकृतिक और नियमित रखने की एक छोटी -सी बात पर सहमत कर लें। सेवा में बड़ी शक्ति है, उससे भगवान भी वश में हो सकते हैं फिर मन देवता द्रवित क्यों न होंगे ?
हर आदमी को लगता है कि वह काम में बहुत व्यस्त रहता है। उस पर जिम्मेदारियों का तथा परिश्रम का बहुत बोझ रहता है, पर सही बात ऐसी नहीं है। उसका कार्यक्रम अनियंत्रित, बेसिलसिले, अस्त- व्यस्त ढंग का होता है, इसलिए थोड़ा काम भी बहुत भार डालता है। यदि हर काम समय विभाजन के अनुसार सिलसिले से, ढंग और व्यवस्था के आधार पर बनाया जाए तो सब काम भी आसानी से हो सकते हैं, मानसिक भार से भी बचा जा सकता है और समय का एक बहुत बड़ा भाग उपयोगी कार्यों के लिए खाली भी मिल सकता है। हमारे अविकसित देश में तो लोग पढ़ने ध्यान देना तो दूर उसका महत्त्व समझने तक में असमर्थ हो गए हैं, पर जिनकी विवेक की आखें  खुली हुई हैं, वे जानते हैं कि इस संसार की प्रधान शक्ति ज्ञान है और वह ज्ञान का बहुमूल्य रत्न भंडार पुस्तकों की तिजोरियों में भरा पड़ा है। इन तिजोरियों की उपेक्षा करके कोई व्यक्ति अपने अंत:प्रदेश को न तो विकसित कर सकता है और न उसे महान बना सकता है। अध्ययन एक वैसी ही आत्मिक आवश्यकता है जैसे शरीर के लिए भोजन। इसलिए मन देवता को राजी करना होगा कि दैनिक कार्यक्रम की व्यवस्था बनाकर वे कुछ समय बचाएं और उसे अध्ययन के लिए नियत कर दें। नित्य का अध्ययन वैसा ही अनिवार्य बना दें जैसा कि शौच, स्नान, भोजन और शयन आवश्यक होता है।


स्वाध्याय और ज्ञान के बाद तीसरी विभूति है- स्वभाव। इन तीन को ही मिलाकर पूर्ण व्यक्तित्त्व का निर्माण होता है। अपने सब कार्यों में व्यवस्था, नियमितता, सुंदरता, मनोयोग तथा जिम्मेदारी का रहना स्वभाव का प्रथम अंग है। दूसरा अंग है -दूसरों के साथ नम्रता, मधुरता, सज्जनता, उदारता एवं सहृदयता का व्यवहार करना। तीसरा अंग जब यथोचित रुप से विकसित होते हैं तो उसे स्वस्थ स्वभाव कहा जाता है। यह तीनों बातें भी मन की स्थिति पर ही निर्भर रहती हैं।


LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here