
आध्यात्म में भक्त का दर्जा साधक से किसी स्थिति में कम नहीं है। चूंकि भक्त भगवान का प्रिय होता है, इसलिए कई बार वह साधक पर भारी पड़ जाता है। ऐसा ही एक बार हुआ सूरदास और उनके गुरु के साथ। सूरदास ने न सिर्फ गुरु के मन की बात जान ली, बल्कि उनका मार्गदर्शन भी कर उन्हें चौंका दिया।
सूरदास नेत्रहीन थे। कहते हैं कि बचपन में उन्हें एक बार भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन हो गए थे। कृष्ण के प्रति सूरदास की अगाध श्रद्धा थी। वे कृष्ण को देखने के बाद और कुछ नहीं देखना चाहते थे। इस कारण उन्होंने अपनी आंखें फोड़ ली थीं। सूरदास के गुरु वल्लभाचार्य थे। एक बार की बात है कि सूरदास बैठ कर भजन गुनगुना रहे थे और वल्लभाचार्य मानसिक पूजा कर रहे थे। मानसिक पूजा में मन में ही पूजा की जाती है। जैसे, हम मन में ही सोचते हैं कि अमुक सामग्री से और अमुक तरीके से भगवान की पूजा हम कर रहे हैं।
मानसिक पूजा के क्रम में वल्लाचार्य ने भगवान को पुष्प-नैवेद्य अर्पित किए। इसके बाद वे भगवान को पुष्पहार चढ़ाने लगे। लेकिन, पुष्पहार छोटा पड़ गया। बार-बार वह श्रीकृष्ण के मुकुट में जाकर अटक जाता। वल्लभाचार्य ने कई बार कोशिश की लेकिन वे भगवान को हार पहनाने में असफल रहे। इसी दौरान सूरदास बोल पड़े-हार की गांठ खोल लीजिए गुरुजी। भगवान को हार पहना कर फिर गांठ बांध दीजिए। वल्लभाचार्य इससे आश्चर्यचकित रह गए। कोई भी इस बात को नहीं समझ सकता था। लेकिन, सूरदास ने अपनी भक्ति की शक्ति से यह बात समझ ली और गुरु को रास्ता दिखा दिया।