रामेश्वरम की अमिट यादें का अंतिम भाग

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रामेश्वरम की अमिट यादें का अंतिम भाग
रामेश्वरम की अमिट यादें का अंतिम भाग।

unforgettable memories of Ramaeshwaram : रामेश्वरम की अमिट यादें के अंतिम भाग में पढ़ें दर्शनीय स्थलों के बारे में। गंधमादन के बाद वहां लक्ष्मण तीर्थ, सीताकुंड और हनुमान मंदिर प्रमुख हैं। हालांकि सौंदर्य या भव्यता की दृष्टि से खास नहीं हैं। इनका सिर्फ पौराणिक महत्व है। लंका से श्रीराम अयोध्या लौटने के क्रम में माता सीता के साथ वहां गए थे। वहां उन्होंने ज्योतिर्लिंग व सेतु दिखाया। फिर भगवान शिव की पूजा की थी। तब श्रीराम, सीताजी और लक्ष्मणजी ने पूजा के लिए विशेष कुंड बनाए। उसी के जल से अभिषेक किया। इन्हीं कुंडों का नाम रामतीर्थ, सीताकुंड और लक्ष्मण तीर्थ है। यहाँ सफाई और व्यवस्था नहीं मिलती है। यह देखकर दुख अवश्य  होता है।

आकर्षित करते हैं तैरते हुए पत्थर

हनुमान मंदिर में तैरते पत्थरों का दर्शन आकर्षित करता है। पत्थर का पानी पर तैरना असंभव सी घटना मानी जाती है। इसे कुछ लोग ईश्वरीय चमत्कार मानते हैं। कुछ सिर्फ गल्प कहते हैं। इसे सामान्यत: नकार दिया जाता है। किंतु यह सच है कि पत्थर पानी में तैरते हैं। इसे आप यहां खुद देख सकते हैं। तैरते पत्थरों को छू सकते हैं। दिल करे तो खरीदकर ला भी सकते हैं। यह वास्तव में दुर्लभ श्रेणी के पत्थर ही होते हैं। ये पत्थर प्रकृति के चमत्कारों में एक हैं। इनका पानी पर तैरना श्रीराम के स्पर्श की कृपा पर है या नहीं किंतु इसे प्रकृति का स्पर्श जरूर मिला है। इसे रामेश्वरम की अमिट यादें कह सकते हैं।

भूवैज्ञानिक के अनुसार पत्थर का तैरना चमत्कार नहीं

भूविज्ञान के अनुसार पत्थर का तैरना कोई चमत्कार नहीं है। हिमालय के अस्तित्व में आने से पूर्व एशिया, यूरोप और आस्ट्रेलिया एक ही खंड था। जहां आज हिमालय है वहां टेथीस नामक छिछला सागर था। इसके उत्तर में अंगारा लैंड और दक्षिण में गोंडवाना लैंड था। टेक्टॉनिक प्लेटों के खिसकने से कालांतर में टेथीस सागर की जगह हिमालय का निर्माण हुआ। भारत का दक्षिणी भाग गोंडवाना लैंड का प्रमुख हिस्सा है। यह मुख्यत: ज्वालामुखी से निर्मित आग्नेय शैलों से बना है। आग्नेय शैलें ज्वालामुखी से निकले लावा के ठंडे होने से बनती हैं। इनमें कहीं-कहीं छिद्र रह जाते हैं। उनमें हवा भर जाती है। यही हवा जब अधिक हो जाती है तो पत्थर पानी में तैरने लगते हैं। आग्नेय शैलों के अंतर्गत आने वाला पूरा पत्थर परिवार तैर नहीं सकता। इसमें एक विशेष कोटि होती है जिसे हम झांवां पत्थर कह सकते हैं।

पंबन रेल पुल
पंबन रेल पुल।

बंगाल की खाड़ी व हिंद महासागर का मिलन स्थल

इतने भ्रमण से ही रामेश्वरम की अमिट यादें मन में अंकित हो गईं। अब आसपास के कुछ महत्वपूर्ण स्थल रह गए थे। उनमें एक था– धनुषकोडि या धनुषकोटि। इस स्थल के विषय में हमने सुन रखा था। धनुषकोटि में कभी विभीषण का मंदिर हुआ करता था। कहा जाता है कि रावण वध के बाद वापसी में विभीषण के कहने से श्रीराम ने यहां पुल का सिरा अपनी धनुष से तोड़ दिया था। ‘कोडि’ का अर्थ तमिल भाषा में अंत या सिरा होता है। मान्यता है कि रामेश्वरम और काशी की यात्रा सेतु में स्नान किए बिना पूरी नहीं होती। धनुषकोडि को महोदधि (बंगाल की खाड़ी) और रत्नाकर (हिंद महासागर) का मिलन स्थल भी कहा जाता है। हालांकि आज का भूगोल इसे प्रमाणित नहीं करता। धनुषकोडि श्रीलंका के बीच में विश्व  की सबसे छोटी सीमा का निर्माण भी करता है जो मात्र 50 गज की लंबाई की है।

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अब खंडहर मात्रा है धनुषकोडि

धनुषकोडि अब एक ध्वन्शावशेष बनकर रह गया है। 22 दिसंबर 1964 की मध्यरात्रि में एक भयंकर समुद्री तूफान ने धनुषकोडि का गौरवशाली अतीत और वैभवशाली वर्तमान को पूरी तरह निगल लिया था। इस भीषण तूफान में लगभग 1800 जानें गईं थी। पूरा द्वीप शमशान बनकर रह गया। इसका अपना एक रेलवे स्टेशन था और एक पैसेंजर ट्रेन (पंबन-धनुषकोडि) चक्कर लगाया करती थी। दैवी आपदा की उस रात भी वह पंबन से 110 यात्रियों और पांच कर्मचारियों को लेकर चली थी। अपने लक्ष्य अर्थात धनुषकोडि रेलवे स्टेशन से कुछ कदम पहले ही तूफान ने उसे धर दबोचा और सभी 115 प्राणी आपदा की भेंट चढ़ गए। अब यह खंडहर मात्र रह गया है। यहां छोटी नाव या पैदल भी पहुंचा जा सकता है। रेत पर चलने वाली जीपें और लारियां भी उपलब्ध हैं। यहां की यात्रा भी रामेश्वरम की अमिट यादें मन में छोड़ती है।

शंकराचार्य मठ और पंबन रेल पुल

रामनाथ मंदिर के पास शंकराचार्य का मठ है। यह मठ महत्वपूर्ण है। हालांकि आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में नहीं है। वहां से निकलकर हम सागर किनारे पंबन रेल पुल के पास पहुंचे। स्थानीय लोगों ने बताया कि इस दिशा में लंका है। थोड़ी देर बाद वहां की बत्तियाँ दिखाई देंगी। आखिर कुल दूरी यहां से तीस किलोमीटर ही तो है। यह रेलवे पुल रामेश्वरम द्वीप को भारत के मुख्य भाग से जोड़ता है। यह इंजीनियरिंग का बेजोड़ नमूना है और इसकी विशेषता यह है कि जब बड़ी जहाजों को निकलना होता है तो रेल की पटरियों को उठा दिया जाता है और निकल जाता है. पुन: पटरी को नीचे कर दिया जाता है रेलगाड़ियां गुजरने लगती हैं।

और अंत में

रामेश्वरम जाएं तो सामुद्रिक जीवों से निर्मित सामान अवश्य खरीदें। शंख, घोंघे और सीप के कवच के सामान बहुत सुंदर और सस्ते मिलते हैं। इनसे आप घर को सजा सकते हैं। उपहार के लिए भी ये बहुत ही उत्तम होते हैं। वामावर्ती शंख तो मिलती ही है, दक्षिणावर्ती शंख के तमाम रूप उपलब्ध हैं। रामेश्वरम में हमारा ठहराव एक दिन का ही था। रात हो चली थी। ढाबे पर हमने उत्तर भारतीय भोजन किया। रात जल्दी सो गए कि प्रात: कन्याकुमारी वाली बस पकड़नी है। काश! एक दिन और होता हमारे पास  रामेश्वरम  में ठहरने के लिए! बस मन ही मन यह प्रार्थना गूंजती रही–                               श्रीताम्रपर्णी जलराशियोगे
निबद्ध्यम सेतुम निशि विल्व्पत्रै।
श्रीरामचंद्रेण समर्चितमतम
रामेश्वराख्यं सततं नमामि।

साभार-हरिशंकर राढ़ी

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