Warning: Invalid argument supplied for foreach() in /home/m2ajx4t2xkxg/public_html/wp-includes/script-loader.php on line 288 सृष्टि का विज्ञान है वेद-9 - Parivartan Ki Awaj
ऋग्वेद के नीचे दिए गए सूक्त 17, 18 और 19 के मंत्रों और स्तुतियों के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि मनुष्यों द्वारा किसी देवताओं की स्तुति, प्रार्थना, ध्यान आदि उन्हें पुष्ट करता है और मजबूती प्रदान करता है। ब्रह्मांड की कार्यकारिणी नियम के अनुसार यह शक्ति दोतरफा काम करती है। इससे यह भी साबित हो जाता है कि जितनी जरूरत मनुष्यों को अपनी जरूरत के लिए देवताओं की है, उतनी ही जरूरत देवताओं को भी अपना देवत्व और विशिष्टता बनाए रखने के लिए मनुष्यों की है। राक्षस इस मर्म को समझ गए थे। इसलिए वे जब अधिक मजबूत होते थे तो देवताओं का नाश करने तथा उन्हें कभी मजबूत न होने देने के लिए उनकी स्तुतियां, यज्ञ, हवन, सोमरस आदि पर ही रोक लगाते थे।
अर्थ–मैं सम्राट इंद्र और वरुण से रक्षा की कामना करता हूं। वे दोनों हम पर कृपा करें। हे मनुष्यों के स्वामी! हम ब्राह्मणों के बुलाने पर रक्षा के लिए अवश्य आएं। हे इंद्र और वरुण! हमको अभीष्ट धन देकर संतुष्ट करें। हम आपका सामीप्य चाहते हैं। बल तथा सुबुद्धि प्राप्त करने की इच्छा से हम आपकी कामना करते हैं। हम अन्न दान करने वालों में आगे रहें। सहस्रों धनदाताओं में इंद्र ही श्रेष्ठ हैं। स्तुति ग्रहण करने वालों में वरुण श्रेष्ठ हैं।
अर्थ–उनकी रक्षा से हम धन को प्राप्त कर उसका उपभोग करें। वह धन प्रचूर परिमाण में संचित हो। हे इंद्र और वरुण! विभिन्न प्रकार के धनों के लिए हम आपका आह्वान करते हैं। हमको भले प्रकार से जय का लाभ कराइए। हे इंद्र और वरुण! आप दोनों स्नेह भाव रखते हुए हमको अपना आश्रय प्रदान करें। हे इंद्र और वरुण! जो सुंदर स्तुति आपके निमित्त करता हूं और जिन स्तुतियों को आप पुष्ट करते हैं, उनको ग्रहण करें।
सोमानं स्वरणं कणुहि ब्रह्मणस्पते। कक्षीवंतं य औशिज: ।।1 यो रेवान् यो अमीवहा वसुवित् पुष्टिवर्धन:। सं न: सिपुक्तु यस्तुर: ।।2 मा न: शंसो अररुषो धृतिर्: प्रणङ् मर्त्यस्य। रक्षा णो ब्रह्मणस्पते ।।3 सा घा वीरो न रिष्यति यमिंद्रो ब्रह्मणस्पति:। सोमो हिनोति मर्त्यम् ।।4 त्वं तं ब्रह्मणस्पते सोम इंद्रश्च मर्त्यम्। दक्षिणा पात्वंहस ।।5।।34
अर्थ–हे ब्रह्मणस्पते! मुझ सोम निचोडऩे वाले को उशिज के पुत्र कक्षीवान् के समान प्रसिद्धि प्रदान करें। धनवान्, रोगनाशक, धनों के ज्ञाता, पुष्टिवर्द्धक, शीघ्र फल देने वाले बृहस्पति हम पर कृपा करें। नास्तिक हम को वश में न कर सकें। हम मरणधर्मा प्राणी हिंसित न हों, अत: हे ब्रह्मणस्पते! हमारी रक्षा करें। इंद्र, सोम और ब्रह्मणपस्पति द्वारा प्रेरणा प्राप्त मनुष्य कभी दुखी नहीं होता। ब्रह्मणस्पते! आप, सोम, इंद्र और दक्षिणा उस मनुष्य की पापों से रक्षा करें।
सदस्पतिमद्भुतं प्रियमिंद्रस्य काम्यम्। सनिं मेधामयासिपम् ।।6 यस्मादृते न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां योगसिन्वति ।।7 आदृध्नोति हविष्कृतिं प्रांचं कृणोत्यध्वरम्। होत्रा देवेषु गच्छति ।।8 नराशंसं सुधृष्टममपश्यं सप्रथस्तमम्। दिवो न सद्यमखसम् ।।9।।35
अर्थ–अद्भुत रूप वाले, इंद्र के प्रिय तथा पालक अग्नि से धन और सुमति की याचना करता हूं। जिसकी कृपा के बिना ज्ञानी का यज्ञ पूर्ण नहीं होता, वह अग्नि हमको उचित प्रेरणा देते हैं। अग्नि ही प्राप्त हवियों को समृद्ध कर यज्ञ की वृद्धि करते हैं। यजमान की स्तुतियां देवताओं को प्राप्त होती है। प्रतापी, विख्यात तथा यशस्वी मनुष्यों द्वारा स्तुति किए और पूजे गए अग्नि को मैंने देखा है।
सूक्त-19
(ऋषि-मेघातिथि काण्व। देवता-अग्नि और मरुत। छंद-गायत्री)
प्रति त्यं चारुमध्वरं गोपीथाय प्र हूयसे। मरुदिभरग्न आ गहि ।।1 नहि देवो न मर्त्यो महस्तव क्रतुं पर:। मरुदिभरग्न आ गहि ।।2 ये महो रजसो विदुर्विश्वे देवासो अद्रुह:। मरुदिभरग्न आ गहि ।।3 या उग्रा अर्कमानृचुरनाधृष्टास ओजसा। मरुदिभरग्न आ गहि ।।4 ये शुभ्रा घोरवर्पस: सुक्षत्रासो रिशादस:। मरुदिभरग्न आ गहि ।।5।।36
अर्थ–हे अग्ने! सुशोभित यज्ञ में सोम पीने के लिए मैं आपका आह्वान करता हूं। मरुद्गणों के साथ यहां आइए। हे अग्ने ! आपके समान महान और बलशाली कोई देवता या मनुष्य नहीं है। आप मरुतों के साथ पधारें। जो विश्वेदेवा किसी से बैर नहीं रखते और महान अंतरिक्ष के ज्ञाता हैं, हे अग्ने ! उनके साथ आइए। जिन उग्र, अजेय और बलशाली मरुतों ने वृष्टि की थी, स्तोत्रों से स्तवन किए हुए उन मरुतों के साथ यहां आइए। हे अग्ने ! जो शोभायुक्त, उग्र रूप धारण करने वाले, बलशाली और शत्रुओं के संहारकर्ता हैं, उन्हीं मरुद्गणों के साथ आइए।
ये नाकस्याधि रोचने दिवि देवास आसते। मरुदिभरग्न आ गहि ।।6 य ईङ्खयंति पर्वतान् तिर: समुद्रमर्णवम्। मरुदिभरग्न आ गहि ।।7 आ ये तन्वंति रश्मिमिस् तिर: समुद्रमोजसा। मरुदिभरग्न आ गहि ।।8 अभि त्वा पूर्वपीतये सृजामि सौम्यं मधु। मरुदिभरग्न आ गहि ।।9।।37
अर्थ–हे अग्ने ! स्वर्ग से ऊपर प्रकाशित लोक में जिन मरुतों का निवास है, उन्हें साथ लेकर आइए। हे अग्ने ! बादलों का संचालन करने वाले और जल को समुद्र में गिराने वाले मरुतों के साथ यहां पधारिए। हे अग्ने ! सूर्य किरणों के साथ सर्वत्र व्याप्त और समुद्र को बलपूर्वक चलायमान करने वाले मरुतों के साथ पधारिए। हे अग्ने ! आपके पीने के लिए मधुर सोमरस प्रस्तुत कर रहा हूं। अत: आप मरुतों के साथ यहां आइए।