ईश्वर की संतान हैं हम

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मानव और देवता में सिर्फ भक्त और भगवान का ही संबंध नहीं है। हम मानव संतान हैं देवताओं की। वे ही हमारे आदि पिता व आदि माता हैं। इसीलिए मानवों से उनका संबंध अटूट और बेहद आत्मीय है। यही कारण है कि देवता हमेशा से मानवों की रक्षा करते आए हैं और उनकी आवश्यकताओं को पूरा करते रहे हैं। उनके सुख-दुख में साथी रहे हैं। भगवान को यूं ही दयानिधान, कृपासिंधु और भक्तवत्सल नहीं कहा जाता है। उनका रवैया हमेशा से मानवों के प्रति बेहद सकारात्मक और अपनापन वाला रहा है। जिस मानव ने भी उन्हें याद किया वह तत्काल उस पर अपनी कृपा बरसाते हैं। यहां तक कि घृणा और विरोध करने वालों पर भी उनका प्रेम रस बरसता है। भगवान हमेशा हमें हमारे अंतर्मन के माध्यम से सही राह दिखाते हैं। इंसान अपने मन की आवाज की अनदेखी कर बाहरी आवाज और क्रियाकलापों के फेर में पड़कर दुख उठाता है और भगवान को कोसता है। वह नहीं समझता कि जितना प्रेम हम ईश्वर से करते हैंं, उससे ज्यादा प्रेम वह हमसे करते हैं। हमारी पीड़ा उन्हें तकलीफ देती है, वह उसे दूर करना चाहते हैं। जब इंसान खुद की पीड़ा से उबरने के लिए सार्थक प्रयास करने के बदले बेकार के काम में उलझा रहता है तो उन्हें दुख होता है। प्रकृति के नियम से बंधे रहने के कारण वह हमारी पीड़ा दूर तो नहीं कर पाते लेकिन दुखी अवश्य होते हैं।


आत्मा से शुरू होती है आध्यात्मिक यात्रा

 

धर्मग्रंथों की व्याख्या से भी स्पष्ट होता है कि मानव की उत्पत्ति ईश्वर से हुई है। हर इंसान में आत्मा के रूप में ईश्वर का अंश है। इसीलिए परमात्मा भी कहा जाता है। यही कारण है कि ईश्वर की साधना के लिए साधक को अपने अंतर्मन/आत्मा से ही आध्यात्मिक यात्रा शुरू करनी पड़ती है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि ईश्वर की डोर हमारे अंतर्मन/आत्मा से बंधी हुई है। इसलिए सच्चे साधक खुद में ही सिमटे मस्त रहते हैं। उन्हें कहीं जाने की जरूरत ही महसूस नहीं होती है। दुर्भाग्य से आम आदमी इस मर्म को समझ नहीं पाता है और जीवन भर भ्रम की स्थिति में रहकर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारा, गिरजाघर आदि में ईश्वर की तलाश में भटकता रहता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि लाखों लोगों की आस्था के केंद्र धर्मस्थलों में ईश्वर के अंशों के लगातार जुड़ाव से ईश्वरीय गुण की प्रत्यक्ष अनुभूति सहज हो जाती है। लेकिन उससे बड़ा सच यह है कि धर्मस्थलों पर हमें जो अनुभूति होती है, वह पूरी तरह से बाह्य है। इसका असर सिर्फ तात्कालिक रूप से ही पड़ता है। अतः धर्मस्थलों में हमें सुकून का अनुभव होता है लेकिन वह लौटने के कुछ दिन बाद ही समाप्त हो जाता है।


आत्मा से संबंध बनाया तो कुछ भी अप्राप्य नहीं

साधना का असली मकसद अपने अंतर्मन की यात्रा है। जिसने सफलतापूर्वक अंतर्मन/आत्मा की यात्रा कर ली और उससे सीधा संपर्क स्थापित कर लिया, उसके लिए न कुछ अप्राप्य रह जाता है और न अधूरा। उसकी पहुंच तीनों काल और पूरे ब्रह्मांड में हो जाती है। पुराने ऋषि-मुनि इसी तरह के थे। योग, ध्यान और तपस्या की व्याख्या करें तो साफ हो जाता है कि ये सब हमारी चेतना और आत्मा का मिलन करवाते हैं, उन्हें एकाकार कर देते हैं। मंत्रों का जप भी यही काम करता है। मंत्र के जप से हमारे शरीर के खास अवयव तो जगते ही हैं, हमारी आत्मा भी मजबूत होती है और चेतना के साथ उसकी निकटता बढ़ने लगती है। सच यह है कि जिसने आत्मा को जगा लिया और उससे सीधा संपर्क कायम कर लिया, समझ लें कि उसने परमात्मा को भी पा लिया है। आत्मा और परमात्मा में कोई मौलिक अंतर है ही नहीं। इसीलिए कहा जाता है-अहम् ब्रह्मोस्मि। समस्या यही है कि लोग नष्ट होने वाले शरीर पर तो जीवन भर ध्यान देते हैं लेकिन अजर-अमर आत्मा के उत्थान एवं मजबूती के लिए तनिक भी प्रयास नहीं करते। जिस आत्मा के बल पर न सिर्फ हमारा वर्तमान जीवन बल्कि भावी जीवन भी निर्भर रहता है, उसकी उपेक्षा का सीधा मतलब दुखी वर्तमान और अंधकारमय भविष्य है।


रोजाना कुछ समय अपने साथ बिताएं

सभी धर्मगुरुओं एवं विचारकों ने हर व्यक्ति को प्रतिदिन कुछ समय अपने साथ बिताने की सलाह दी है। अपने साथ का अर्थ चेतना का आत्मा के साथ संबंध स्थापित करने की प्रक्रिया ही है। यह अत्यंत सरल है। यदि आपको योग-ध्यान, मंत्र-तंत्र आदि की जानकारी न हो तो भी कोई बात नहीं, सिर्फ दस मिनट अपने लिये निकालें और शांत चित्त और स्थित शरीर (आसान आसन में बैठना या लेटना) का होकर सांस के आने-जाने व उसकी गति पर ध्यान केंद्रीत करना प्रारंभ करें। इस दौरान सिर्फ इतना ध्यान देना है कि आपका शरीर स्थिर रहे। आप कोई शारीरिक क्रिया न करें। याद रखें कि शांत बैठते ही शरीर में खुजली, छींक, दर्द जैसी दबी अनुभूति अचानक बहुत ज्यादा उभर आती है क्योंकि मन और शरीर अस्थिर होता है। अतः उससे प्रभावित नहीं होना है। शरीर को प्रयास करके भी पूरी तरह शांत रखना है। अर्थात अनुभूतियों को नजरअंदाज कर खुजाना, छींकना आदि को रोकना है। इसी तरह उस दौरान मन बहुत तेजी से भटकने लगता है, उसे छोड़ दें। मन को जितना भाग सकता है भागने दें। उसके पीछे भागने या उसे नियंत्रित करने की कोशिश न करें। अपना ध्यान सिर्फ सांस पर केंद्रीत करने का प्रयास करें। कुछ दिन के निरंतर प्रयास से न सिर्फ शरीर, बल्कि मन भी शांत होने लगेगा। इसके साथ ही आपके अंतर्मन/आत्मा की यात्रा भी शुरू हो जाएगी। अंतर्मन की यात्रा का मतलब ईश्वर के साथ एकाकार होने की प्रक्रिया की शुरूआत है। जब आत्मा जगती है, उसका हमारी चेतना से सीधा संबंध बनता है तो हम सीधे ब्रह्मांड से जुड़ जाते हैं और उसका महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाते हैं।



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