वेद को दुनिया के सबसे प्राचीन धर्मों में से एक माना जाता है। इसमें प्रकृति के ही अंग अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुतियां संग्रहित हैं। वास्तव में ये मंत्र एक तरह से प्राकृतिक ताकतों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर उनसे मानव कल्याण के लिए प्रार्थना हैं। इन मंत्रों की रचना विभिन्न गोत्रों के ऋषियों ने की है। वेदों में भी पहला ग्रंथ ऋग्वेद माना जाता है। यह दस मंडलों में विभक्त है। जिसमें दो से सात मंडल सबसे प्राचीन और मौलिक माने जाते हैं। वहीं प्रथम और दसवां मंडल बाद में जोड़ा गया प्रतीत होता है। ऋग्वेद की अनेक बातें ईरानी भाषा का प्रचीनतम ग्रंथ अवेस्ता से मिलती है। इस आधार पर कई विद्वान मानते हैं कि आर्य यूरोप से पश्चिम एशिया होते हुए भारत पहुंचे। ऋग्वेद एवं ईरानी ग्रंथ अवेस्ता में बहुत से देवताओं के और सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं।
ऋग्वेद के अनुसार आर्यों की (जो कि 1500 ई पूर्व भारत आए उनकी) सबसे पवित्र नदी सिंधु थी। जबकि सरस्वती दूसरी प्रमुख नदी थी। ऋग्वेद में इंद्र को पुरंदर अर्थात किले को तोड़ने वाला कहा गया है। ऋग्वैदिक प्रशासन कबाईली था। इसी काल में व्यवसाय के आधार पर समाज का वर्गीकरण शुरू हुआ। ऋग्वेद में सबसे ज्यादा स्तुति इंद्र की 250 बार, अग्नि की 200 बार की गई है। अग्नि देव देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थ का काम करते थे। इसी कारण मानव द्वारा अग्नि में दी गई आहुति देवताओं तक पहुंचती थी। जबकि वरूण देव भी काफी आदरणीय थे। नवें मंडल में सोम रस के बारे में बताया गया है जबकि दसवां मंडल पुरुष सुक्त से संबंधित है। ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद को त्रिवेद भी कहा जाता है। ऋग्वेद के सभी मंत्रों को अन्य वेदों में भी समाहित किया गया है। तदंतर वेद के चार स्वरूप हुए।
1.ऋग्वेद : इसमें ऋचाओं (श्लोक) की संख्या 1028 है। यह मंत्रों का संग्रह है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले होता कहलाते हैं।
2.सामवेद : इसमें ऋचाओं (श्लोक) की संख्या 1810 है। इसमें मंत्रों को गायन के लिए धुन में बांधा गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले उदगाता कहलाते हैं।
3.युजर्वेद : इसमें ऋचाओं (श्लोक) की संख्या 1875 है। इसमें मंत्रों के गायन और उसके अनुष्ठान की विधि के बारे में बताया गया है। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले अध्वर्यु कहलाते हैं।
4.अथर्वर्वेद : इसमें ऋचाओं (श्लोक) की संख्या 731 है। इसमें विपत्ति और व्याधि नाश एवं भूत- प्रेत से मुक्ति संबंधित मंत्र हैं। इस वेद के मंत्रद्रष्टा अर्थात पाठ करने वाले ब्रह्मा कहलाते हैं।
वेद की ऋचाओं को बताने वाले ऋषि व द्रष्टा : बाद के दिनों में विभिन्न गोत्रों से संबंध रखने वाले ऋषियों ने ऋग्वेद के ऋचाओं की रचना की। इनके नाम हैं-मधुच्छंदा, विश्वामित्र, मेधातिथि, कण्व, जेता, आजीपति, घोर हिरण्यस्तूप, आंगिरस, प्रस्कण्व, सव्य, नोधा,गौतम, पराशर, शाक्य, राहुगण, कुत्स, ऋज्राश्व, अम्बरीष, कश्यप, मारीच,आप्त्यावित, कक्षीवान, दीर्घतमस, परच्छेप, अगस्त्य, मरूच्छेप, लोपामुद्रा,गुत्समद, सोमादुतिभार्गव, शौनक, कूर्म, उत्कीलकात्य, कौशिक,देवश्रवा, प्रजापति, वामदेव, वशिष्ठ, पुरूमीलहज व भरद्वाज।
ऋग्वेद अध्याय-1, सूक्त-2, अनुवाक-1
(ऋषि-मधुच्छंदा वैश्वामित्र। देवता-वायु, इंद्रवायु, मित्र वरुण। छंद-गायत्री)
वायवा याहि दर्शते में सोमा अरंकृता:। तेषां पाहि श्रुधि हवम्।।1
वाय उक्थेभिर्जरन्ते त्वामच्छा जरितार:। सुतसोमा अहर्विद: ।।2
वायो तव प्रपृञ्चती धेना जिदाति दाशुषे। उरूची सोमपीतये ।।3
इंद्रवायु इमे सुता उप प्रयोभिरा गतम्। इंदवो वामुशन्ति हि ।।4
वियुविंद्रश्च चेतथ: सुतानां वाजिनीवसू। तावा यातमुप द्रवत् ।।5।।3